अत्यधिक शोरगुल, तेज़ रफ्तार और सतही रिश्तों से भरी इस दुनिया में, अब भी कुछ लोग हैं जो मौन, आत्म-जागरूकता और ऊर्जाओं की सूक्ष्म तरंगों से जीवन को दिशा देने का कार्य कर रहे हैं। ऐसे लोगों की संख्या भले ही कम हो, पर उनका प्रभाव गहरा होता है। ऐसे ही एक व्यक्तित्व हैं उदयपुर की समाजशास्त्री और ऊर्जा चिकित्सक डॉ. स्वीटी छाबड़ा, जिनका मानना है कि भारत को मानसिक और आत्मिक पुनरुद्धार की ज़रूरत है — और वह शुरुआत व्यक्ति के भीतर से होती है।
एक मौन जो भीतर जागता है
उदयपुर के भुवाणा क्षेत्र में स्थित उनका एनआईसीसी सेंटर बाहरी तौर पर एक चिकित्सा केंद्र जैसा लगता है, लेकिन अंदर कदम रखते ही आप किसी आध्यात्मिक प्रयोगशाला में प्रवेश करते हैं। वहां न मशीनों की आवाज़ है, न तेज़ प्रकाश का प्रहार — बस मौन, संगीत और ऊर्जा की तरंगें।
यहां का मुख्य आकर्षण है एक विशेष फ्लोटेशन टैंक — एक मृत सागर जैसे अनुभव के लिए तैयार किया गया टब, जिसमें 800 किलो एप्सम साल्ट घोला गया है। इसमें व्यक्ति निश्चल होकर 55 मिनट तक तैरता है, शरीर गुरुत्वाकर्षण से मुक्त होता है और मन ‘थीटा’ अवस्था में प्रवेश करता है।
“यह मौन किसी शोर से नहीं, भीतर की बेचैनी से मुक्ति देता है,” डॉ. छाबड़ा बताती हैं। “जब आप तैरते हैं, तब आप केवल अपने भीतर होते हैं। यह साधना का अनुभव है।”
बेचैन युवा, खोए हुए मूल्य
भारत की युवा पीढ़ी आज जितनी तेज़ है, उतनी ही खोई हुई भी। स्क्रीन की लत, नींद की कमी, और पहचान की उलझन — यह सब मिलकर उन्हें मानसिक रूप से असंतुलित कर रही है। डॉ. छाबड़ा इसे एक गंभीर संकट मानती हैं।
“कोटा में बच्चों की आत्महत्याएं केवल शिक्षा प्रणाली की विफलता नहीं हैं,” वे कहती हैं, “यह आत्म-निर्माण की प्रक्रिया से कट जाने का परिणाम है। आज के युवाओं में क्षमता है, लेकिन उन्हें अपनी चेतना को स्थिर रखने की कला नहीं सिखाई गई।”
उनका समाधान स्पष्ट है — अनुशासन, मौन और ध्यान। वह युवाओं को सुबह जल्दी उठकर ‘ओम्’ का उच्चारण करने, ध्यान करने और जीवन में संतुलन लाने की सलाह देती हैं। उनके अनुसार, यह कोई धार्मिक अभ्यास नहीं बल्कि आत्मिक पुनरावृत्ति है।
उपेक्षित बुज़ुर्गों की पीड़ा
डॉ. छाबड़ा का कार्य केवल युवाओं तक सीमित नहीं। वह उन बुज़ुर्गों को भी गले लगाती हैं जिन्हें समाज ने धीरे-धीरे अकेला छोड़ दिया है। आधुनिकता की चकाचौंध में जो हाथ कभी परिवार को थामे रखते थे, अब वृद्धाश्रमों में अकेले कांपते हैं।
उनके लिए डॉ. छाबड़ा ने तिब्बती साउंड बाउल्स के ज़रिए नि:शुल्क चिकित्सा सत्र आरंभ किए हैं। सात विशिष्ट ध्वनि आवृत्तियों के माध्यम से शरीर के चक्रों को सक्रिय कर वह बुज़ुर्गों को एक नई ऊर्जा प्रदान करती हैं।
“यह केवल उपचार नहीं — सम्मान है,” वे कहती हैं। “जो पीढ़ी हमारे लिए सब कुछ छोड़ आई, उनके लिए कुछ घंटे देना हमारा कर्तव्य है।”
रिश्तों की बुनियाद पर सवाल
समाज में बढ़ते रिश्तों के टूटने को लेकर डॉ. छाबड़ा की सोच बहुत स्पष्ट है। उनका मानना है कि असीम विकल्पों ने हमें अपने रिश्तों में धैर्य खोने पर मजबूर कर दिया है। बच्चों को छोटी उम्र में ही विकल्प देना उन्हें भविष्य में ज़िद्दी और अधिकारवादी बना देता है।
“पहले हम जो थाली में मिलता था, वही खाते थे। अब अगर बच्चा राजमा नहीं चाहता तो मां तुरंत छोले बना देती है। यह केवल खाने की बात नहीं — यह एक जीवनशैली बन रही है, जिसमें हर इच्छा तुरंत पूरी होनी चाहिए। इससे रिश्तों में सहयोग नहीं, प्रतियोगिता आती है।”
उनके अनुसार, आधुनिक समाज दो मूल्यों को खो चुका है — विश्वास और साझा करना। जब तक ये वापस नहीं आएंगे, जीवन की स्थिरता संभव नहीं।
ऊर्जा, चेतना और ऑरा की भाषा
डॉ. छाबड़ा के कार्य का एक अत्यंत गूढ़ पहलू है — ऑरा स्कैनिंग। वह मानती हैं कि हर व्यक्ति के चारों ओर एक ऊर्जा क्षेत्र होता है जो उसके मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य का संकेत देता है।
“जब व्यक्ति अपनी ऊर्जा को महसूस करना सीखता है, तब जीवन में बदलाव स्वयं होने लगता है। नकारात्मकता कम होती है, निर्णय स्पष्ट होते हैं, और जीवन की गति संयमित होती है।”
वे इस तकनीक को सिखाती भी हैं — ताकि लोग आत्मनिर्भर बनें और अपने ऊर्जात्मक स्वास्थ्य की ज़िम्मेदारी खुद उठाएं।
नि:स्वार्थ सेवा, राष्ट्रधर्म की भावना
सबसे प्रेरणादायक बात यह है कि डॉ. छाबड़ा अपने वरिष्ठ नागरिकों की चिकित्सा के लिए किसी प्रकार का शुल्क नहीं लेतीं। “अगर कोई किसी वृद्ध को लेकर आता है, तो वह मेरे लिए सेवा का अवसर है। मैं उनसे कुछ नहीं लूंगी,” वह मुस्कुराकर कहती हैं।
उनकी दृष्टि में भारत की असली उन्नति आर्थिक नहीं, आत्मिक होनी चाहिए। “हम तकनीकी रूप से तो तेज़ हो रहे हैं, लेकिन भीतर खाली हो रहे हैं। यह बहुत खतरनाक है।”
एक नई जीवन दृष्टि की ओर
एनआईसीसी सेंटर में हर दिन कुछ नया होता है — कोई अपनी चिंता छोड़ रहा होता है, कोई अपनी ऊर्जा खोज रहा होता है, और कोई मौन में पुनः जीना सीख रहा होता है। डॉ. छाबड़ा न केवल चिकित्सक हैं, बल्कि एक जीवन दृष्टा हैं — जो भारत को भीतर से पुनर्जीवित करने में जुटी हैं।
उनका संदेश सीधा है — “आरोग्य केवल शरीर का नहीं, आत्मा का भी होना चाहिए। और आत्मा की चिकित्सा केवल मौन, अनुशासन और जागरूकता से ही संभव है।”
वे केवल एक चिकित्सा नहीं देतीं — वे जीवन जीने की कला सिखाती हैं।
आप तैयार हैं? तो एक दिन मौन में उतरिए, और खुद से मिलने की शुरुआत कीजिए।
शायद वही भारत की असली दिशा है — अंदर की ओर लौटना।