
डॉ. प्रभात कुमार सिंघल - लेखक एवं पत्र्कार.प्राचीन समय से ही भारत देश अपनी अर्वाचीन संस्कृति के लिए पहचाना जाता है। विभिन्न संस्कृति और धर्म वाले देश में जैन धर्म कितना प्राचीन है, यह स्प६ट रूप से नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि जैन धर्म के तीर्थंकर भगवान महावीर को जैन धर्म का संस्थापक कहा जाता है जबकि इनसे पूर्व भी इस धर्म के 23 तीर्थंकर हुए और महावीर स्वामी अन्तिम व 24वें तीर्थंकर थे। महावीर स्वामी नें कभी नहीं कहा कि वे जैन धर्म के संस्थापक हैं, परन्तु जैन अनुयायियों ने उनसे ही जैन धर्म का उदय माना। यह सत्य है कि जहां इस धर्म के पहले 23 तीर्थंकरों ने उन्हीं शिक्षाओं व सद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया जिन्हें महावीर स्वामी ने आलोकित और संस्थापित किया।
6- प्राचीन जैन धर्म को विद्वानों ने श्रमणों का धर्म कहा है। वेदों में भी प्रथम तीर्थंकरी ऋषभनाथ का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि वैदिक साहित्य में जिन यतियों और व्रात्यों का पता चलता है वे श्रमण परम्परा के थे। आर्यं के समय में ऋषभदेव और अरि६टनेमी को लेकर जैन परम्परा का पता चलता है। महाभारतकाल में इस धर्म के प्रमुख नेमीनाथ थे। ईसा पूर्व 8वीं सदी में पा८र्वनाथ हुए जिनका जन्म काशी में हुआ। काशी के समीप ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ और संभवतः इन्हीं के नाम पर सारनाथ नाम प्रचलित है। भगवान पा८र्वनाथ तक जैन परम्परा संगठित रूप में सामने नहीं आई। पा८र्वनाथ के समय से पा८र्वनाथ सम्प्रदाय प्रारम्भ हुआ और इसे संगठित होने का स्वरूप भी ७ाुरू हुआ। यह श्रवण सम्पदाय का पहला सम्प्रदाय था। भगवान महावीर स्वामी भी पा८र्वनाथ सम्प्रदाय से थे। श्रमण वैदिक परम्परा के विरूद्ध थे। यहीं से जैन धर्म का अपना अलग अस्तित्व प्रारम्भ हुआ। महावीर तथा गौतम बुद्ध के समय में यह श्रमण कुछ बुद्ध और कुछ जैन हो गये। दोनों की अलग-अलग ७ााखाएं बन गईं।
7- जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी (599 ई.पू.) ने तीर्थंकरों के धर्म और परम्परा को एक सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। कैवल्य का मार्ग प्रशस्त किया। मुनी, आर्यिका, श्रावक और श्राविका चतुर्विद संघ कहलाया। जैन धर्म के जिन के आधार पर इस धर्म का नाम जैन धर्म पडा। इसका अर्थ था ऐसे व्यक्ति जो अपनी इन्दि्रयों पर विजय प्राप्त कर ले।
8- सम्राट अशोक के समय के शलालेख आदि साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मगध में जैन धर्म का प्रचार था। मठों में जैन मुनि रहते थे। उनमें इस बात पर मतभेद रहा कि तीर्थंकरों की प्रतिमाओं को कपडे पहनाकर रखा जाये या नहीं। जैन मुनि वस्त्र् धारण करें या नहीं। आगे चलकर जब मतभेद बढ गया तो ईसा की पहली सदी में आकर जैन मुनि ७वेताम्बर और दिगम्बर दो दलों में विभक्त हो गये। इनमें ७वेताम्बर मुनि ७वेत वस्त्र् धारण करने लगे और दिगम्बर मुनि बिना कपडों के नग्न अवस्था में रहने लगे। यहीं से जैन धर्म ७वेताम्बर और दिगम्बर दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया जो आज तक प्रचलित है।
9- दोनों सम्प्रदायों में मतभेद दाशर्निक सिद्धांतों की अपेक्षा चरित्र् को लेकर अधिक है। दिगम्बर जहंा आचरण के पालन में कठोर हैं वहीं ७वेताम्बर उदार ह। दिगम्बर मानते हैं कि मूल आगम लुप्त हो गये हैं। कैवल्य ज्ञान प्राप्ति से भोजन की आव८यकता नहीं रहती और स्त्री ७ारीर से कैवल्यज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं जबकि ७वेताम्बर ऐसा नहीं मानते हैं। करीब 300 वषर् पूर्व ७वेताम्बरों से ही एक और ७ााखा निकली जिसे स्थानकवासी कहा गया और वे मूर्ति पूजक नहीं हैं। जैनियों की तेरहपंथी, बीसपंथी, तारणपंथी, यापनीय आदि कुछ और उपशाखाएं भी बन गईं। सभी ७ााखाओं में कतिपय मतभेद अव८य है परन्तु महावीर स्वामी तथा अहिंसा, संयम और अनेकान्तवाद में सबका बराबर वि८वास है।
10- प्राचीन समय में गुप्तकाल में कलिंग के राजा खारवेल ने ईसा की पहली ७ाताब्दी ने जैन धर्म स्वीकार किया। इस समय में उत्तर भारत में मथुरा और दक्षिण भारत में मैसूर जैन धर्म के बडे केन्द्र थे। पांचवी से बारहवीं ७ाताब्दी तक दक्षिण भारत के राष्ट्रकूट, चालुक्य, गंग एव कदम्बु राजवंशों द्वारा जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया गया। इन ७ाासकों ने जैन मुनियों को आश्रय प्रदान किया। ग्यारहवीं सदी में चालुक्य वंश के राजा सिद्धराज एवं उनके पुत्र् कुमार पाल ने जैन धर्म को राज धर्म घोषत किया तथा गुजरात क्षेत्र् में इस धर्म का प्रचार किया। मुगलकाल में हिन्दू, जैन एवं बौद्ध मन्दिरों को आक्रमणकारी मुस्लिमों ने निशाना बनाया जिससे बडे पैमाने पर मन्दिरों का विनाश हुआ। धीरे-धीरे जैनियों के मठ भी टूटने और बिखरने लगे फिर भी इस समाज के लोगों ने जैन धर्म को संगठित होकर बचाये रखा। जैन समाज के लोगों का भारतीय संस्कृति, सभ्यता, कला और समाज को विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा जो निरन्तर आज भी जारी है।
11- जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकर हुए जो जैनियों के लिए पूजनीय हैं। इनके अनेक मंदिर भारत के विभिन्न क्षेत्रें में पाये जाते हैं। जैन तीर्थंकरों का क्रमवार विवरण इस प्रकार है।
12- ऋषभदेव
13- जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव माने जाते हैं। इनके पिता का नाम नाभिराय एवं माता का नाम मरूदेवी था। ये समस्त भारत के अधिपति थे। उस समय सम्पूर्ण वसुधा का कोई ७ाासक नहीं था। भरत इनके ज्ये६ठ पुत्र् थे जो उनके राज्य के उत्तराधिकारी बने और प्रथम सम्राट भी कहलाए। उन्हीं के नाम पर हमारे राष्ट्र का नाम भारत पडा। इन्होंने संसार से विरक्त होकर राजपाट त्याग दिया एवं दीक्षा पूर्वक दिगम्बर साधु हो गये। वैदिक धर्म में भी ऋषभदेव को एक अवतार माना गया है। भागवत में इनका राजा के रूप में विस्तृत वर्णन है। जैन साहित्य में इन्हें आदिब्रह्मा, आदिनाथ, बृहददेव, प्रजापति, पुरूदेव और वृषभ नामों से पुकारा गया है। इन्होंने नग्न साधु होकर पूरे देश में विहार किया।
14- राजा के रूप में इन्होंने प्रजा को आजीविका के लिए कृष, शिक्षा, रक्षा, शिल्प, वाणिज्य और सेवा षटकर्मों की शिक्षा दी इसलिए इन्हें ’‘प्रजापति’’ कहा गया। माता के गर्भ से आने पर सुवर्ण रत्नों की वषार् होने से ‘‘हिरण्यगर्भ’’, दाहिनें पैर के तलवे में बैल का चिन्ह होने से ‘‘ऋषभ’’, धर्म का प्रवर्तन करने से ‘‘वृषभ’’, ७ारीर की अधिक ऊंचाई होने से ‘‘बृहददेव’’ तथा सबसे पहले मोक्ष मार्ग का उद्दे८य देने से ‘‘आदिब्रह्मा’’ कहा गया।
15- अजितनाथ
16- इनका जन्म माघ मास के ७ाुक्ल पक्ष की अ६टमी को अयोध्या के राजपरिवार में हुआ। इनके पिता का नाम जीतशत्र्ु और माता का नाम विजया था। इनके पिता साकेत के राजा थे। ये जैन धर्म के दूसरे तीर्थंकर माने जाते हैं। ये कर्तव्य परायण, प्रजावत्सल्य, ७ाौर्य पराक्रम और भक्ति भाव से परिपूर्ण व अकूत धन के स्वामी थे। ज्योतिषों ने घोषणा की थी कि यह बालक या तो चक्रवर्ती राजा होगा या तीर्थंकर बनेगा। आचार्य अरिदमन के प्रभाव से ये सांसारिक बंधनों विरक्त हो गये तथा युवावस्था में ही घरबार छोडकर 12 वषर् तक कठोर तपस्या की। उनके धर्म परिवार में 95 गण, 22 हजार केवली, 1 लाख साधु, 3 लाख 30 हजार साध्वियां, 2 लाख 98 हजार श्रावक एवं 5 लाख 45 हजार श्राविकाएं थीं। इनका निर्वाण चैत्र् मास की पंचमी के दिन सम्मेद शखर पर हुआ।
17- संभवनाथ
18- जैन धर्म के तीसरे तीर्थंकर संभवनाथ माने जाते हैं। इनका जन्म द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ के निर्वाणकाल के बहुत समय बीतने के बाद हुआ। श्रावस्ति नगरी के राजा जितारी की रानी सेनादेवी के गर्भ से आपका अवतरण मार्गशीषर् ७ाुक्ल 15 को हुआ। माता ने 14 मंगल स्वप्न देखे। इनका पुनर्जन्म माना जाता है। पूर्व जन्म में ये अजितनाथ के निर्वाण के बाद महाविदेह के एरावत क्षेत्र् में क्षेमपुरी का राजा विपुलवाहन राज्य करता था। उसने प्रजा के कल्याण के लिए कई कार्य किये और उनके दुखों व पीडा को दूर करने के लिए कई बार राजा को भूखे पेट सोना पडता था व प्यासे कंठ से प्रभु की प्रार्थना करता था। यही राजा पुनर्जन्म लेकर संभवनाथ तीर्थंकर के रूप में पूजे गये। इनके जन्म के समय राज्य में धन-धान्य की भरपूर फसल हुई तथा इस खुशहाली को देखकर इनका नाम ‘‘संभव’’ रखा गया। संभवनाथ युवा हुए तथा कई राज कन्याओं ने उनका पाणिग्रहण करवाया गया। उन्हें संध्याकाल में महल की छत पर टहलते हुए बादलों को मिलते-बिखरते देखकर वैराग्य की भावना उत्पन्न हुई।
19- उन्होंने अपने पुत्र् को राज्य सौंपकर एक वषर् तक मुक्त हस्त से दान देकर जनता की गरीबी को दूर करने का सुफल किया। उन्होंने मार्गशीषर् ७ाुक्ल पूर्णिमा के दिन श्रमण दीक्षा स्वीकार की। 14 वषार्ें की साधना के बाद ज्ञान प्राप्त कर धर्म पीठ की स्थापना की। ‘‘अ८व’’ संभवनाथ का चिन्ह है। अ८व युद्धों में विजय दिलाता है तथा संयमित मन-जीवन में भी विजय दिलवा सकता है। सुदीर्घकाल तक इस लोक में आलोक बिखेरते हुए संभवनाथ ने चैत्र् ७ाुक्ल पंचमी को सम्मेद शखर से निर्वाण प्राप्त किया। इनके धर्म परिपार में 105 गणधर, 2 लाख श्रमण, 36 हजार श्रमणियां, 2 लाख 93 हजार श्रावक तथा 6 लाख 36 हजार श्राविकाएं थीं।
20- अभिनन्दननाथ
21- जैन धर्म के चौथे तीर्थंकर अभिनन्दननाथ स्वामी का जन्म पावन नगरी अयोध्या में इक्ष्वाकु वंश में माघ ७ाुक्ल की द्वितीया को पुनर्वसु नक्षत्र् में माता सिद्धार्था देवी के गर्भ से हुआ। इनके पिता का नाम राजा संवर था। इनका वर्ण सुवर्ण और चिन्ह बन्दर था। इनके गणधरों की संख्या 116 थी। बृजनाभ स्वामी इनके प्रथम गणधर थे। इन्होंने माघ ७ाुक्ल द्वादशी को दीक्षा प्राप्त की तथा दो दिन बाद इन्होंने खीर से प्रथम पारणा किया। कठोर तप करने के बाद इनको पौष ७ाुक्ल चतुर्दशी को अयोध्या में देवदार वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। जैनियों के अनुसार वैशाख ७ाुक्ल अ६टमी को सम्मेद शखर इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।
22- सुमतिनाथ
23- जैन धर्म के पांचवे तीर्थंकर सुमतिनाथ का जन्म इक्ष्वाकु वंश के राजा मेघप्रय की पत्नी रानी सुमंगला के गर्भ से मघा नक्षत्र् में वैशाख ७ाुक्ल अ६टमी को हुआ। इनका वर्ण सुवर्ण था तथा चिन्ह चकवा था। इनके यक्ष का नाम तुम्बुरव एवं यक्षिणी का नाम वज्रांकुशा था। गणधरों की संख्या 100 थी तथा प्रथम गणधर चरमस्वामी थे। दीक्षा लेने के बाद 20 वषार्ें तक कठोर तप किया तथा अयोध्या में ही चैत्र् ७ाुक्ल एकादशी को प्रियंगु वृक्ष के नीचे इन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। इन्होंने कई वषार्ें तक मानव जाति को अहिंसा और सत्य के मार्ग पर चलने का संदेश दिया। चत्र् ७ाुक्ल एकादशी को सम्मेद शखर पर निर्वाण प्राप्त किया।
24- पद्मप्रभ
25- जैन धर्म के छठे तीर्थंकर पद्मप्रभ का जन्म कौशाम्बी के इक्ष्वाकु वंश में कार्तिक मास के कृ६ण पक्ष द्वादशी को चित्र नक्षत्र् में सुसीमा देवी के गर्भ से हुआ। इनके पिता का नाम धरणराज था। ७ारीर का वर्ण लाल एवं चिन्ह कमल था। यक्ष का नाम मातंग और यक्षिणी का नाम अप्रति चक्रे८वरी था। इनके गणधरों की संख्या 108 थी जिनमें पद्योतनस्वामी प्रथम गणधर थे। इन्होंने कौशाम्बी में कार्तिक कृ६ण पक्ष त्र्योदशी को दीक्षा प्राप्त कर 6 माह तक कठोर तप करने पर प्रियंगु वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति की। सम्मेद शखर पर फाल्गुन कृ६ण पक्ष की चतुर्दशी को निर्वाण प्राप्त किया।
26- सुपा८र्वनाथ
27- जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर सुपा८र्वनाथ का जन्म वाराणसी के इक्ष्वाकु वंश में ज्ये६ठ ७ाुक्ल पक्ष की द्वादशी को विशाखा नक्षत्र् में पृथ्वी देवी के गर्भ से हुआ। इनके पिता का नाम राजा था। ७ारीर का वर्ण सुवर्ण एवं चिन्ह स्वास्तिक था। यक्ष का नाम मातंग और यक्षिणी का नाम ७ाांता देवी था। गणधरों की संख्या 95 थी, जिनमें विदर्भस्वामी प्रथम गणधर थे। ज्ये६ठ मास की त्र्योदशी को दीक्षा प्राप्त कर 9 माह तक कठोर तप करने के बाद फाल्गुन कृ६ण पक्ष सप्तमी को वाराणसी में शरीष वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया। हमेशा सत्य का समर्थन किया तथा अनुयायियों को हिंसा से बचने और न्याय के मूल्य को समझने का संदेश दिया। सम्मेद शखर पर फाल्गुन कृ६ण पक्ष सप्तमी को निर्वाण प्राप्त किया।
28- चन्द्रप्रभ
29- जैन धर्म के आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ का जन्म चन्द्रपुरी में पौष माह की कृ६ण पक्ष द्वादशी को अनुराधा नक्षत्र् में लक्ष्मणा देवी के गर्भ से हुआ। पिता का नाम महासेन था। ७ारीर का वर्ण ७वेत एवं चिन्ह चन्द्रमा था। यक्ष का नाम अजीत और यक्षिणी का नाम मनोवेगा था। इनके 93 गणधर थे, जिनमें दिन्नस्वामी प्रथम गणधर थे। चन्द्रपुरी में पौष कृ६ण पक्ष त्र्योदशी को दीक्षा प्राप्त कर 3 माह तक कठोर तप करने पर चन्द्रपुरी के ही नागवृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। सम्मेद शखर पर भाद्रपद मास के कृ६ण पक्ष की सप्तमी को निर्वाण प्राप्त किया।
30- पु६पदन्त
31- जैन धर्म के नवें तीर्थंकर पु६पदन्त का जन्म काकान्दी नगर के इक्ष्वाकु वंश के राजा सुग्रीव की पत्नी माता रामा देवी के गर्भ से मार्गशीषर् मास के कृ६ण पक्ष की पंचमी तिथि को मूल नक्षत्र् में हुआ। इन्हें सुविधानाथ भी पुकारा जाता है। ७ारीर का वर्ण ७वेत एवं चिन्ह मगर था। यक्ष का नाम ब्रह्मा और यक्षिणी का नाम काली था। मार्गशीषर् कृ६ण पक्ष की ष६टी को काकान्दी में दीक्षा प्राप्त कर 4 माह तक कठोर तप करने के बाद सम्मेद शखर पर साल वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया। जीवन में हमेशा धर्म और अहिंसा मार्ग को अपना और प्राणियों को भी इस मार्ग पर चलने की शिक्षा दी। भाद्र ७ाुक्ल पक्ष नवमी को इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।
32- ७ाीतलनाथ
33- जैन धर्म के दसवें तीर्थंकर ७ाीतलनाथ का जन्म भदि्रकापुर में इक्ष्वाकु वंश में माघ मास कृ६ण पक्ष द्वादशी को पूर्वाषाढा नक्षत्र् में सुनन्दा के गर्भ से हुआ। पिता का नाम दृढरथ था। ७ारीर का वर्ण सुवर्ण एवं चिन्ह कल्पवृक्ष था। यक्ष का नाम ब्रह्मे८वर और यक्षिणी का नाम अशोकादेवी था। इनके 81 गणधर थे, जिनमें नन्दस्वामी प्रथम गणधर थे। भदि्रकापुर में माघ कृ६ण पक्ष की द्वादशी को दीक्षा प्राप्त कर 3 माह तक कठोर तप किया और भदि्रकापुर के ही प्लक्ष वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। इन्होंने पूर्व तीर्थंकरों की भांति भक्तों और मानव समाज को सत्य व अहिंसा के मार्ग पर चलने का संदेश दिया। सम्मेद शखर पर वैशाख मास के कृ६ण पक्ष की तृतीया को निर्वाण प्राप्त किया।
34- श्रेयांसनाथ
35- जैन धर्म के ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म सिंहपुरी में फाल्गुन माह की कृ६ण पक्ष की द्वितिया को श्रवण नक्षत्र् में वि६णु देवी के गर्भ से हुआ। पिता का नाम वि६णुराजा था। ७ारीर का वर्ण सुवर्ण एवं चिन्ह गेंडा था। यक्ष का नाम नामकुमार और यक्षिणी का नाम महाकाली था। इनके 76 गणधर थे, जिनमें कच्छपस्वामी प्रथम गणधर थे। सिंहपुरी में फाल्गुन कृ६ण पक्ष की त्र्योदशी को दीक्षा प्राप्त कर 2 माह तक कठोर तप करने के बाद सिंहपुरी के ही तन्दूक वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। सम्मेद शखर पर श्रावण मास के कृ६ण पक्ष की तृतीया को निर्वाण प्राप्त किया।
36- वासुपूज्य
37- जैन धर्म के बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य स्वामी का जन्म चम्पापुरी में इक्ष्वाकु वंश में फाल्गुन माह की कृ६ण पक्ष की चतुर्थी को सतभिषा नक्षत्र् में जया देवी के गर्भ से हुआ। पिता का नाम राजा वासुपूज्य था। ७ारीर का वर्ण लाल एवं चिन्ह भैंसा था। यक्ष का नाम षणमुख और यक्षिणी का नाम गौरी था। इनके 66 गणधर थे, जिनमें सुभूम स्वामी प्रथम गणधर थे। चम्पाापुरी में फाल्गुन अमावस्या को दीक्षा प्राप्त कर 1 माह तक कठोर तप करने के बाद चम्पापुरी के ही पाटल वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। इन्होंने आषाढ मास के ७ाुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को चम्पापुरी में ही निर्वाण प्राप्त किया।
38- विमलनाथ
39- जैन धर्म के तैरहवें तीर्थंकर विमलनाथ का जन्म कम्पिला में इक्ष्वाकु वंश में माध माह की ७ाुक्ल पक्ष तृतीया को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र् में ७यामा देवी के गर्भ से हुआ। पिता का नाम कृतवर्म था। ७ारीर का वर्ण सुवर्ण एवं चिन्ह ७ाूकर था। यक्ष का नाम षणमुख और यक्षिणी का नाम विदिता देवी था। इनके 57 गणधर थे, जिनमें मंदरस्वामी प्रथम गणधर थे। कम्पिला में माघ ७ाुक्ल पक्ष की चतुर्थी को दीक्षा प्राप्त कर 2 माह तक कठोर तप करने पर कम्पिला जी के ही जम्बू वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। सम्मेद शखर पर आषाढ मास के कृ६ण पक्ष की सप्तमी को निर्वाण प्राप्त किया।
40- अनन्तनाथ
41- जैन धर्म के चौदहवें तीर्थंकर अनन्तनाथ का जन्म अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश में वैशाख माह की कृ६ण पक्ष की त्र्योदशी को रेवती नक्षत्र् में सुयशा देवी के गर्भ से हुआ। पिता का नाम सिंहसेन था। ७ारीर का वर्ण सुवर्ण एवं चिन्ह बाज था। यक्ष का नाम पाताल और यक्षिणी का नाम अंकुशा देवी था। इनके 50 गणधर थे, जिनमें जसस्वामी प्रथम गणधर थे। अयोध्या में वैशाख कृ६ण पक्ष चतुर्थी को दीक्षा प्राप्त करने के बाद 3 वषर् तक कठोर तप करने पर अयोध्या के ही अशोक वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। सम्मेद शखर पर चैत्र् मास के ७ाुक्ल पक्ष की पंचमी को निर्वाण प्राप्त किया।
42- धर्मनाथ
43- जैन धर्म के पन्द्रहवें तीर्थंकर धर्मनाथ का जन्म रत्नपुरी के इक्ष्वाकु वंश में माघ माह की ७ाुक्ल पक्ष की तृतीया को पु६य नक्षत्र् में सुव्रता देवी के गर्भ से हुआ। पिता का नाम भानू था। ७ारीर का वर्ण सुवर्ण एवं चिन्ह वज्र था। यक्ष का नाम किन्नर और यक्षिणी का नाम कंदर्पा देवी था। इनके 43 गणधर थे, जिनमें अरि६टस्वामी प्रथम गणधर थे। अयोध्या में माघ माह के ७ाुक्ल पक्ष की त्र्योदशी को दीक्षा प्राप्त करने के बाद 2 वषर् तक कठोर तप करने पर रत्नपुरी के ही दधिपर्ण वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। कई वषार्ें तक साधक जीवन व्यतीत करने के बाद सम्मेद शखर पर ज्ये६ठ मास के ७ाुक्ल पक्ष की पंचमी को निर्वाण प्राप्त किया।
44- ७ाान्तिनाथ
45- जैन धर्म के सौलहवें तीर्थंकर ७ाान्तिनाथ का जन्म हस्तिनापुर के इक्ष्वाकु वंश में ज्ये६ठ माह की क६ण पक्ष की त्र्योदशी को भरणी नक्षत्र् में अचीरा देवी के गर्भ से हुआ। पिता का नाम वि८वसेन था। इन्हें अवतारी पुरूष माना जाता है। उनके जन्म से ही चारों ओर ७ाान्ति का राज्य स्थापित हो गया। ७ारीर का वर्ण सुवर्ण एवं चिन्ह मृग था। यक्ष का नाम गरूढ और यक्षिणी का नाम निर्वाणा देवी था। इनके 62 गणधर थे, जिनमें चक्रयुधस्वामी प्रथम गणधर थे। हस्तिनापुर में ज्ये६ठ माह के कृ६ण पक्ष की चतुर्दशी को दीक्षा प्राप्त करने के बाद एक वषर् तक कठोर तप करने पर हस्तिनापुर के ही नन्दी वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। कई वषार्ें तक सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने के बाद सम्मेद शखर पर ज्ये६ठ मास के ७ाुक्ल पक्ष की त्र्योदशी को निर्वाण प्राप्त किया।
46- कुन्थुनाथ
47- जैन धर्म के सत्र्हवें तीर्थंकर कुन्थुनाथ का जन्म हस्तिानापुर के इक्ष्वाकु वंश में वैशाख माह की कृ६ण पक्ष की चतुर्दशी को कृत्तिका नक्षत्र् में श्रीकान्ता के गर्भ से हुआ। पिता का नाम ७ाूरसेन था। ७ारीर का वर्ण सुवर्ण एवं चिन्ह बकरा था। यक्ष का नाम गन्धर्व और यक्षिणी का नाम बला देवी था। इनके 35 गणधर थे, जिनमें सांब स्वामी प्रथम गणधर थे। हस्तिनापुर में वैशाख माह के कृ६ण पक्ष की पंचमी को दीक्षा प्राप्त करने के बाद 16 वषर् तक कठोर तप करने पर हस्तिनापुर के ही तिलक वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। कई वषार्ें तक साधक जीवन व्यतीत करने के बाद सम्मेद शखर पर वैशाख मास के कृ६ण पक्ष की एकादशी को निर्वाण प्राप्त किया।
48- अरनाथ
49- जैन धर्म के अट्ठारहवें तीर्थंकर अरनाथ का जन्म कुरूक्षेत्र् के हस्तिनापुर के में हुआ। इस राज्य के महाराजा सुदशर्न उनके पिता और महारानी श्रीदेवी माता थी। उनके जन्म और निर्वाण की तिथि एक ही है। मार्गशीषर् माह की ७ाुक्ल पक्ष की दशमी के दिन पैदा हुए और इसी माह, पक्ष व दिन को सम्मेद शखर पर निर्वाण प्राप्त किया। इनका पूर्व जन्म माना जाता है। पूर्वजन्म में ये प्रजावत्सल ७ाासक थे। उन्होंने कहा था कि अरिहन्त चौदह आत्मिक दोष ज्ञानावरन, कर्मजन्य, अज्ञानदोष, दशर्नावरण-कर्मजन्य-निद्रादोष, मोहकर्मजन्य-मिथ्यात्वदोष, अविरति दोष, राग, द्वेष, हास्य, रति, अरतिखेद, भय, ७ाोक चिन्ता, दुर्गेच्छा, काम एवं दानांतराय से मुक्त होते हैं। उनका धर्मसंघ विशाल था जिसमें 33 गणधर, 2400 केवली, 2551 मन पर्यावरण ज्ञानी, 2600 अवधिज्ञानी, 610 चौदहपूर्वधारी, 2300 वैक्रियलधारी, 1600 वादी, 5000 साधु, 6000 साध्वी, 1.84 लाख श्रावक एवं 3.72 लाख श्राविकाएं थी।
50- मल्लिनाथ
51- जैन धर्म के उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ का जन्म मिथिला के इक्ष्वाकु वंश में मार्गशीषर् माह की ७ाुक्ल पक्ष की एकादशी को अ८वनी नक्षत्र् में रक्षिता देवी के गर्भ से हुआ। पिता का नाम राजा कुंभराज था। ७ारीर का वर्ण नीला एवं चिन्ह कलश था। यक्ष का नाम कुबेर और यक्षिणी का नाम धरणप्रिया देवी था। इनके 28 गणधर थे, जिनमें अभीक्षक स्वामी प्रथम गणधर थे। मिथिला में मार्गशीषर् माह के ७ाुक्ल पक्ष की एकादशी को दीक्षा प्राप्त करने के बाद एक वषर् तक कठोर तप करने पर मिथिला के ही अशोक वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। कई वषार्ें तक साधक जीवन व्यतीत करने के बाद सम्मेद शखर पर फाल्गुन मास के ७ाुक्ल पक्ष की तृतीया को 500 साधुओं के संग इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।
52- मुनिसुब्रनाथ
53- जैन धर्म के बीसवें तीर्थंकर मुनिसुब्रनाथ का जन्म राजगृह के हरिवंश कुल में ज्ये६ठ माह के कृ६ण पक्ष की अ६टमी को श्रवण नक्षत्र् में पद्मावती देवी के गर्भ से हुआ। पिता का नाम राजा सुमित्र था। ७ारीर का वर्ण ७याम एवं चिन्ह कछुआ था। यक्ष का नाम वरूण और यक्षिणी का नाम नरदत्ता देवी था। इनके 18 गणधर थे, जिनमें मल्लि स्वामी प्रथम गणधर थे। राजगृह में फाल्गुन माह के ७ाुक्ल पक्ष की द्वादशी को दीक्षा प्राप्त करने के बाद 11 महीने तक कठोर तप करने पर राजगृह के ही चम्पक वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। कई वषार्ें तक साधक जीवन व्यतीत करने के बाद सम्मेद शखर पर ज्ये६ठ मास के कृ६ण पक्ष की नवमी को निर्वाण प्राप्त किया।
54- नमिनाथ
55- जैन धर्म के इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ का जन्म मिथिला के इक्ष्वाकु कुल में श्रावण माह के कृ६ण पक्ष की अ६टमी को अ८वनी नक्षत्र् में विप्रा देवी के गर्भ से हुआ। पिता का नाम विजय था। ७ारीर का वर्ण सुवर्ण एवं चिन्ह नीलकलम था। यक्ष का नाम भृकुटि और यक्षिणी का नाम गांधारी देवी था। इनके 17 गणधर थे, जिनमें ७ाुभ स्वामी प्रथम गणधर थे। मिथिला में आषाढ माह के कृ६ण पक्ष की नवमी को दीक्षा प्राप्त करने के बाद 09 महीने तक कठोर तप करने पर मिथिला के ही वकुल वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। कई वषार्ें तक साधक जीवन व्यतीत करने के बाद सम्मेद शखर पर 536 साधुओं के साथ बैशाख मास के कृ६ण पक्ष की दशमी को निर्वाण प्राप्त किया।
56- नेमीनाथ तीर्थंकर
57- जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर नेमीनाथ का जन्म सौरीपुर, द्वारका के हरिवंश कुल में श्रावण माह के ७ाुक्ल पक्ष की पंचमी को चित्र नक्षत्र् में शवा देवी के गर्भ से हुआ। पिता का नाम समुद्रविजय था। ७ारीर का वर्ण ७याम एवं चिन्ह ७ांख था। यक्ष का नाम गोमेध और यक्षिणी का नाम अम्बिका देवी था। इनके 11 गणधर थे, जिनमें वरदत्त स्वामी प्रथम गणधर थे। सौरीपुर में श्रावण माह के ७ाुक्ल पक्ष की ष६टी को दीक्षा प्राप्त करने के बाद 54 दिन तक कठोर तप करने पर गिरनार पर्वत पर मेषश्रृंग वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। कई वषार्ें तक साधक जीवन व्यतीत करने के बाद गिरनार पर्वत पर 1000 साधुओं के साथ आषाढ मास के ७ाुक्ल पक्ष की अ६टमी को निर्वाण प्राप्त किया। इनके प्रथम आर्य का नाम यक्षदिन्ना था। इन्हें जैन धर्म में श्रीकृ६ण के समकालीन और उनका चचैरा भाई माना जाता है। ‘‘विविधतीर्थकल्प’’ से पता चलता है कि नेमीनाथ का मथुरा में विश६ट स्थान था।
58- पा८र्वनाथ तीर्थंकर
59- जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पा८र्वनाथ का जन्म बनारस में अरि६टनेमी के 1000 वषर् बाद इक्ष्वाकु वंश में पौष माह के कृ६ण पक्ष की दशमी को विशाखा नक्षत्र् में वामा देवी के गर्भ से हुआ। पिता का नाम राजा अ८वसेन था। ७ारीर का वर्ण नीला एवं चिन्ह सर्प था। यक्ष का नाम पा८र्व और यक्षिणी का नाम पद्मावती था। इनके 10 गणधर थे, जिनमें आर्यदत्त स्वामी प्रथम गणधर थे। बनारस में पौष माह के कृ६ण पक्ष की एकादशी को दीक्षा प्राप्त करने के बाद 84 दिन तक कठोर तप करने पर वाराणसी में ही घातकी वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ।
60- पा८र्वनाथ ने 30 वषर् की आयु में सांसारिक मोह-माया त्यागकर घर छोड दिया और सन्यासी बन गये। एक कथा के अनुसार एक दिन कुमार पा८र्वनाथ वन क्रीड के लिए गंगा के किनारे गये जहां एक तापसी तप कर रहा था। वह अग्नि में पुराने और पोले लक्कड जला रहा था। उन्होंने देखा कि उस लक्कड में एक नाग-नागिन का जोड है जो जलने से मरणासन्न अवस्था में आग गया है। उन्होंने तापसी से यह बात कही। तापसी झुंझलाकर बोला इसमें कहां नाग-नागिन हैं और जब उसने लक्कड को फाडा तो उसमें मरणासन्न नाग-नागिन दिखाई दिये। पा८र्व ने ‘‘णमोकारमन्त्र्’’ पढकर नाग-नागिन के युगल को संबोधा, जिसके प्रभाव से वह मरकर देव जाति से धरणेन्द्र पद्मावती हुआ।
61- अधिकांश जैन मन्दिरों में पा८र्वनाथ की मूर्तियों के मस्तक पर जो फणामण्डल देखा जाता है वह धरणेन्द्र के फणामण्डल मण्डप का ही अंकन है, जिसे उसने कृतज्ञतावश योग-मगन पा८र्वनाथ पर कमठ द्वारा किये गये उपसर्गों के निवारणार्थ अपनी विक्रिया से बनाया था। पा८र्वनाथ ने बिहार प्रदेश के संवेद शखर पर्वत से जिसे आज ‘‘पा८र्वनाथ हिल’’ कहा जाता है, निर्वाण प्राप्त किया।
62- महावीर स्वामी
63- जैन धर्म के तीर्थंकरों की परम्परा में महावीर स्वामी अथवा वर्धमान महावीर 24वें और अन्तिम तीर्थंकर हुए। ये महात्मा बुद्ध के समकालीन थे। इन दोनों का जन्म ऐसे समय में हुए जबकि समाज में हिंसा, पशुबलि और जातीय भेदभाव व्यापक रूप में प्रचलन में थे। दोनों ने ही इन कुरीतियों के विरूद्ध आवाज उठाई और समाज को अहिंसा का संदेश दिया।
64- महावीर स्वामी का जीवनकाल 599 ईसा पूर्व से 527 ईसा पूर्व तक माना जाता है। इनकी माता का नाम त्र्शला देवी और पिता का नाम सिद्धार्थ था। बचपन में महावीर का नाम ‘‘वर्धमान’’ था और ये बाल्यकाल से ही तेजस्वी, साहसी, ज्ञान पिपासु और बलशाली होने के कारण महावीर कहलाए। इन्होंने अपनी इन्दि्रयों को वश में कर लिया जिससे इन्हें ‘‘जितेन्द्र’’ भी कहा जाता है।
65- महावीर का विवाह कलिंग राजा की पुत्री यशोदा के साथ हुआ। महावीर ने 30 वषर् की आयु में अपने ज्ये६ठबंधु से आज्ञा प्राप्त कर घर-बार त्याग दिया और कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया। महावीर ने पा८र्वनाथ के द्वारा ७ाुरू किये गये तत्व ज्ञान को परमार्जित कर जैन दशर्न का स्थायी आधार प्रदान किया। उन्होंने बिना किसी का सहारा लिये अपनी श्रद्धा के बल पर जैन धर्म की पुनः प्रति६ठा की। वर्तमान समय में जैन धर्म की व्यापकता और विशालता तथा जैन दशर्न का पूरा श्रेय महावीर स्वामी को जाता है। महावीर स्वामी को विभिन्न नामों अर्हत, जिन, निर्ग्रत, महावीर एवं अतिवीर नामों से पुकारा जाता है। इनके ‘‘जिन’’ नाम से ही आगे चलकर इस धर्म का नाम जैन धर्म पडा। जैन धर्म में अहिंसा और कर्म की पवित्र्ता पर वि८ोष बल दिया जाता है तथा अनेकान्तवाद तीसरा प्रमुख सिद्धांत है। महावीर स्वामी अहिंसा और अपरिग्रह की साक्षात मूर्ति थे। वे सभी धर्मों में समान भाव रखते थे और किसी भी प्राणी मात्र् को दुख नहीं पहुंचे उनकी भावना रहती थी।
66- भगवान महावीर स्वामी ने जो आचार संहिता बनाई उसमें प्रमुख बिन्दु इस प्रकार हैं -
67- किसी भी जीवित प्राणी अथवा कीट की हिंसा न करना।
68- किसी भी वस्तु को किसी के दिये बिना स्वीकार नहीं करना।
69- मिथ्या भाषण न करना ।
70- आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करना।
71- वस्त्रें के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु का संचय नहीं करना।
72- उन्होंने धर्म के क्षेत्र् में मंगल क्रांति का सूत्र्पात किया। उन्होंने कहा कि कभी आंख बन्द करके किसी भी चीज का अनुसरण या अनुकरण नहीं करें। धर्म दिखावा नहीं है, रूढ नहीं है, प्रदशर्न नहीं है तथा किसी के भी प्रति घृणा व द्वेषभाव नहीं हैं। उन्होंने धर्मों के आपसी मतभेदों के विरूद्ध आवाज उठाई। धर्म को अन्धवि८वासों, कर्मकाण्डों तथा पुरोहितों के ७ाोषण एवं भाग्यवाद की अकर्मण्यता की जंजीरों के जाल से बाहर निकालने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने कहा कि धर्म एक ऐसा पवित्र् अनु६ठान है जिससे आत्मा का ७ाुद्धिकरण होता है। साधना की सिद्धी परमशक्ति का अवतार बनकर जन्म लेने में है अथवा साधना के बाद परमात्मा में विलीन हो जाने में नहीं है, बहिरात्मा के अन्तरआत्मा की प्रक्रिया से गुजरकर स्वयं परमात्मा हो जाने में है।
73- जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का जन्म बिहार प्रान्त के कुण्डलपुर नगर में 2614 (सन् 2015) में पूर्व महाराजा सिद्धार्थ की महारानी त्र्शला के गर्भ से चैत कृ६ण तेरस को हुआ था। ७ारीर का वर्ण सुवर्ण एवं चिन्ह सिंह था। यक्ष का नाम ब्रह्मशांति और यक्षिणी का नाम सिद्धायिका देवी था। इनके 11 गणधर थे, जिनमें गौरम स्वामी प्रथम गणधर थे। कुण्डलपुर में मार्गशीष माह की दशमीं को दीक्षा प्राप्त करने के बाद 12 वषर् और 6.5 महीने कठोर तप करने पर ऋजुबालुका नदी के किनारे साल वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। कई वषार्ें तक साधक जीवन व्यतीत करने तथा जैन धर्म के सिद्धांतों का व्यापक प्रचार प्रसार करने के बाद पावापुरी में कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली के दिन भगवान महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया।
74- कुण्डलपुर वर्तमान में नालन्दा जिले में स्थित है। वषर् 2002 में यहां जैन समाज की पूज्य साध्वी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानवती माताजी अपने संघ के साथ पद विहार करने गई और उनकी प्रेरणा से कुण्डलपुर में 2600 वषर् प्राचीन नंद्यावर्त महल की प्रतिकृति का सात मंजिल ऊंचा निर्माण कराया गया जिसे बिहार के पर्यटन विभाग द्वारा पर्यटक स्थल मानते हुए प्रचारित किया गया। आज यह स्थल जैनियों का एक प्रमुख तीर्थ स्थल बन गया है। कुण्डलपुर में हर वषर् चैत्र् ७ाुक्ल पक्ष की त्र्योदशी के दिन बिहार सरकार एवं कुण्डलपुर दिगम्बर जैन समिति के द्वारा कुण्डलपुर महोत्सव का आयोजन किया जाता है।
75- जैन धर्म के इन चौबीस तीर्थंकरों ने अपने अपने समय में धर्ममार्ग से विलग हो रहे समुदाय को संबोधित कर उसे धर्ममार्ग में लगाया। इसी से इन्हें धर्म मार्ग और मोक्ष मार्ग का प्रवर्तक तीर्थंकर कहा गया। आचार्य विद्यानन्द ने स्प६ट कहा है कि ‘‘कि बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना, नार्थोपदेशना’’ अर्थात् बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्वोपदेश संभव नहीं है।
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