उदयपुर। अफ्रीकी मछली तिलापिया उदयपुर की प्रसिद्ध झीलों में देशी मछलियों की विविधता के लिए खतरा बन गई है। हाल ही में यह मछली उदयपुर की पिछोला, फतहसागर और गोवर्धन सागर झीलों में दर्ज की गई है।
सरोवर विज्ञानी एवं मत्स्य महाविद्यालय, उदयपुर के पूर्व डीन डॉ. एल. एल. शर्मा ने बताया कि इस मछली की पहचान ओरियोक्रोमिस नायलॉटिकस Oreochromis niloticus, जिसे सामान्यतः नाइल तिलापिया कहा जाता है, के रूप में हुई है। यह मछली बार-बार प्रजनन कर अपनी संख्या तेज़ी से बढ़ाती है, जिससे कुछ वर्षों में देशी मछलियों की संख्या दबाव में आ सकती है।
भारत के जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा 2001 में पिछोला झील में की गई एक प्रामाणिक मछली सर्वेक्षण रिपोर्ट में 40 प्रजातियाँ दर्ज थीं। पिछले 25 वर्षों में इसमें कम से कम 5 और प्रजातियाँ और जुड़ी हैं।
डॉ. शर्मा के अनुसार यह आक्रामक प्रजाति पूरे बेडच नदी तंत्र और आसपास के जलक्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र को बदल सकती है और देशी मछलियों की जैव विविधता को प्रभावित कर सकती है।
ज्ञात हो कि लगभग 35 वर्ष पूर्व तिलापिया गलती से जयसमंद झील में प्रवेश कर गई थी और वहाँ अपनी तेज़ प्रजनन क्षमता तथा अभिभावकीय देखभाल के कारण शीघ्र ही मत्स्य उत्पादन में हावी हो गई। प्रजनन के लिए यह झील की तलहटी में घोंसले बनाती है, जिससे जल मटमैला होता है और तलछट में फंसे पोषक तत्व पानी में घुलकर पोषक तत्व संपन्नता अथवा सुपोषण की प्रक्रिया को तेज़ करते हैं। पहले के शोधों में यह स्पष्ट हो चुका है कि उदयपुर की झीलें पहले से ही विभिन्न स्तरों पर सुपोषण से प्रभावित हैं।
हाल के पिछले वर्षों में यह मछली उदयसागर झील की व्यावसायिक पकड़ में भी प्रचुर मात्रा में दिखाई देने लगी है। संभवतः यह झील में मानसून में ओवरफ्लो के समय रिवर्स माइग्रेशन द्वारा उदयपुर झील प्रणाली में प्रवेश कर गई।
डॉ. शर्मा ने बताया कि दशकों के अनुसंधान से यह सिद्ध होता है कि उदयपुर झीलें इस अफ्रीकी नाइल बेसिन की मूल निवासी मछली के लिए अनुकूल आवास प्रदान करती हैं। यह मछली सर्वाहारी है, जिसका मुख्य आहार फाइटोप्लांकटन एवं जलीय खरपतवार है, किंतु यह देशी मछलियों के अंडों और बच्चों को भी खा जाती है।
शोधकर्ताओं के अनुसार अधिकांश देशी व्यावसायिक मछलियाँ वर्षा ऋतु में साल में केवल एक बार प्रजनन करती हैं, जबकि तिलापिया वर्ष में कम से कम 5 बार स्थिर जल में प्रजनन करती है। इसके बच्चे जन्म के 2-3 माह के भीतर ही परिपक्व हो जाते हैं। यह मछली एक बार बड़े जलाशय में स्थापित हो जाए तो तेज़ी से बढ़ती है, क्योंकि एक मछली आकार के अनुसार 250 से 900 अंडे तक दे सकती है।
जब यह झील या तालाब में अत्यधिक संख्या में फैल जाती है, तब भोजन और स्थान के लिए आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण इसमें बौनापन उत्पन्न होता है और औसतन 150 ग्राम से कम वजन की छोटी मछलियाँ पाई जाती हैं।
तिलापिया का झील पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव यह हो सकता है कि पानी में ऑक्सीजन कम, अमोनिया व कार्बन डाइऑक्साइड अधिक, और जल की मलीनता बढ़ जाए। इसके अतिरिक्त, इसकी अत्यधिक जनसंख्या बड़ी मात्रा में अपशिष्ट उत्पन्न करती है, जो यूट्रिफिकेशन को और बढ़ाती है तथा नीली-हरी शैवाल की अधिकता से पानी की गुणवत्ता और गिर जाती है।
डॉ. शर्मा ने सुझाव दिया कि सवळ,लाची, सिंगाड़ा जैसी स्थानीय शिकारी कैटफिश को झील से नहीं हटाना चाहिए, क्योंकि ये तिलापिया की प्राकृतिक नियंत्रण में मदद कर सकती हैं। इसके साथ ही, नियंत्रित चुनिंदा मत्स्यन (Selective Fishing) द्वारा टिलापिया की संख्या घटाना और स्थानीय कार्प मछलियों के 100 मिमी आकार के फिंगरलिंग्स का संचयन एक प्रभावी उपाय हो सकता है। ऐसा प्रयास केरल की मलम्पुझा झील में सफलतापूर्वक किया गया है।