जीवन के समुच्चयों की खोज......
ताल,बेताल और विक्रम की आश्चर्यजनक मनोरंजक कहानियों बीते दिनों की बात हो गई। यह उपन्यास फिर से इनकी कहानियों की याद ताजा करता है। उपन्यास के कथानक और उसके भावों को ताल, बेताल और विक्रम के किरदारों में खूबसूरती और रोचकता से शब्दों की मणिमाला में पिरोया गया है। उपन्यास की सफलता की कसौटी यही है कि पाठक प्रारंभिक दो पृष्ठ पढ़ ले तो छोड़ने का मन नहीं होता, वह बांध जाता है , जुड़ जाता है। बेताल बना बिका नाएक अपने साथ बीते
समस्त घटना क्रम को स्वयं विक्रम बने लेखक को ठीक उसी तरह सुनाता है, वह पुरानी कहानियों में कहता था। ओडिशा में तालेचर के एक अचर्चित दलित सेनानी बिका के बलिदान को प्रकाश में ला कर आमजन तक पहुंचाना ही उपन्यास का महत्ती उद्देश्य है। ऐतिहासिक तथ्यों के संकलन में उपन्यासकार का परिश्रम स्वत: बोलता है।
शहीद बिका नाएक की आत्म बने बेताल ने कहानी सुनाने से पहले विक्रम को अपनी मनो व्यथा के बारे में बताना शुरू किया, "देश की आज़ादी के बाद मैंने जो-जो सपने देखे थे, वे सब चूर-चूर हो गए। मुझे लगा था कि पूरा भारत ही मेरा परिवार है। महात्मा गांधी अस्पृश्यता को दूर करना चाहते थे तो भीमराव अंबेडकर हमें जाति हीनता से मुक्ति दिलाकर संवैधानिक पदों पर देखना चाहते थे। मगर न तो महात्मा गांधी का सपना साकार हुआ और न ही भीमराव अंबेडकर का। आज तक दलित जाति के होने के कारण मेरी शहादत को वह सम्मान नहीं मिल पाया, जिसका मैं हकदार था। न मेरे गांव वालों ने मुझे सम्मान दिलवाने के लिए कोई खास कदम उठाया और न ही देश की आज़ादी के बाद से आज तक की सरकारों ने कोई ध्यान दिया। यद्यपि आज भी मेरी पीढ़ी मेरी शहादत पर गर्व अनुभव करती है, मगर दूसरे शहीदों की तरह मुझे उचित सम्मान नहीं मिलने से दुखी होकर उन्होंने महिमा धर्म अपना लिया । यही वह धर्म है, जिसमें जातिवाद का दंश नहीं झेलना पड़ता। यह कहकर वेताल चुप हो गया, मगर उसके चेहरे से लग रहा था कि वह कुछ और कहना
चाहता था। ( पृष्ठ 23 )
राजस्थान में सिरोही के रहने वाले और ओडिशा के तालेचर को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले दिनेश कुमार माली का उपन्यास ' शहीद बिका नाएक की खोज ' एक ऐसा उपन्यास है जिसमें कथानक का प्रस्तुतीकरण कभी सर्वाधिक लोकप्रिय रही ताल-बेताल कहानी को लेकर बुना गया है। शहीद बिका नाएक जो दलित वर्ग से था उसकी शहादत को यथोचित सम्मान नहीं मिलने और लोक को छोड़ कर जाने के बाद परलोक में भी स्थान नहीं मिलने से बरगद के पेड़ की खोल में मुक्ति मिलने तक आत्म के रूप में रहने लगता है। दीर्घ समय तक बरगद का पेड़ भी साथ नहीं दे पाता है और ताल के पेड़ पर लटक जाता है। वह किसी विक्रम का इंतजार करता हैं जिसे अपनी कहानी सुना सके। उपन्यास के कथानक में लेखक ही विक्रांत है जिसे बेताल अपने जीवन की पूरी कहानी सुनता है। बेताल कहता है तुम मेरी कहानी सुनो और उसे दुनिया के सामने लाओ।
उपन्यास में इस उपन्यास में नव कृष्णा चौधुरी, मालती चौधुरी, पवित्र मोहन प्रधान, फ्रीड़ा दास, गड़जात ओड़िशा के गांधी नाम से विख्यात सारंगधर दास के अतिरिक्त लब्ध प्रतिष्ठित जैसे साहित्यकारों राधामोहन गडनायक, सच्चिदानंद राउतराय और अनेक राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय नेताओं ठक्कर बापा, मिस अगाया हैरिसन आदि के अभूतपूर्व योगदान को उल्लेखित किया है।
बेताल के माध्यम से वर्ण भेद के शिकार बिका नाएक, समाज में दलितों की स्थिति और दक्षिणी अफ्रीका में रंग भेद के शिकार महात्मा गांधी की व्यथा को बखूबी उभरा गया है। गांधी जी कहा था है कि आज आप मुझे रंग भेद की नीति के कारण रेल के डिब्बे से प्लेटफॉर्म पर बाहर फेंक रहे हो, एक दिन मैं आपको हिंदुस्तान से बाहर फेंक दूंगा। ( पृष्ठ 25 )
बेताल के माध्यम से तालेचर में प्रजामण्डल की गतिविधियां विस्तार से बताते हुए बेताल कहता है कि मुझे घटना-स्थल पर मरा हुआ देखकर मेरे गाँव वाले मदद मांगने के लिए पास वाले गांवों से सानत्रिविड़ा से बड़त्रिविड़ा पहुँचे। देखते-देखते हमारे और आस-पास वाले दूसरे गांवों से सौ से ज्यादा आदमी इकट्ठा हो गए। उनमें से फिरंगी प्रधान, कुलमणि प्रधान, नृसिंह चरण प्रधान, चंडाल सेठी और नालू शामल अपनी-अपनी बैलगाड़ी लेकर तुरंत वहां आ गए। मेरी लाश और दूसरे घायलों को उन बैलगाड़ियों में लादकर अंगुल की ओर प्रस्थान किया, जहां घायलों को भर्ती करवा लिया गया और 22 सितंबर 1938 को मेरी लाश को पवित्र बाबू, गिरिजा भूषण दत्त, एम.एल.ए, अंगुल और प्रजामंडल के नेताओं ने मेरे परिजनों और गांव वालों की उपस्थिति में लिंगरा जोड़ी गांव के पास से गुजरती हुई लिंगरा नदी के किनारे लकड़ियाँ इकट्ठी कर चिता बनाकर मेरी लाश को धधकती आग के हवाले कर दिया गया। देखते-देखते मैं राख के ढेर में तब्दील हो चुका था और मरते समय मेरा मन सिगंडा नदी के किनारे लगे विशाल बरगद के पेड़ की तरफ था, इसलिए मेरी आत्मा उस बरगद के पेड़ के खोखल में जाकर अटक गई, जिसके नीचे मेरी मौत हुई थी। उसके बाद की कहानी तो आपको मालूम ही हैं। आपकी आत्मा के सुवास से अहसास हुआ कि आप अच्छे इंसान हो, जो मुझे मुक्ति दिला सकते हो और मेरी अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हो। ( पृष्ठ 57, 58 )
विक्रम बेताल के मिलन के चार दिन हो गए थे l निर्धारित समय पर पेड़ पर लटका बेताल विक्रम का इंतजार कर रहा था। विक्रम ने आने पर कल छोड़ी अपूर्ण गाथा को याद दिलाते हुए कहा कि आपके शहीद होने के दौरान बचे हुए घायल लाइनेक्स क्या हुआ ? क्या वे जीवित रहे या परलोक सिधार गए ? बेताल आगे की घटनाएं सुनाते - सुनाते बीच में कई बार भावुक हो कर रोने लगता है और विक्रम उसे बार - बार हिम्मत बंधाता है। विक्रम अपना स्मार्टफोन निकालकर वेताल के बारे में गूगल पर आँकड़े- संग्रह करने में लगा हुआ था। इंटरनेट, यू ट्यूब, इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्विटर के अलावा मंत्रालयों के अभिलेखागारों को भी खंगालने में वह पीछे नहीं था। वह कहने लगा, "मैंने इंटरनेट अर्काइव पर देखा है कि भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय एवं भारत की ऐतिहासिक शोध परिषद द्वारा प्रकाशित 'डिक्शनरी ऑफ मार्टयर्स : इंडियाज फ्रीडम स्ट्रगल 1857-1947 के भाग-4 के पृष्ठ 71 पर अंकित है, जिसमें आपको प्रजामंडल का सक्रिय कार्यकर्ता दर्शाया गया है-जिसकी तालचेर राज्य में समांतर पंचायती राज की स्थापना हेतु जनता को सचेतन करने के दौरान गोली कांड में मृत्यु हो गई। यही नहीं, एक वेबसाइट में आपको सिंगड़ा नदी का नाविक बताया है, जिसने अंग्रेजों की सेना को नदी के उस पार ले जाने से इंकार कर दिया था। इस वजह से अंग्रेज सैनिक ने आपको गोली मारी थी। ( पृष्ठ 80 )
बेताल, बिक्रम को सारंगधर दास और फ्रीडा के प्रसंग एवं प्रजामण्डल में उनकी भूमिका पर भी विस्तार से जानकारी देता हैं । ( पृष्ठ 82 - 88 ) बेताल बना बिका जी अपने गुरु पवित्र मोहन प्रधान की कथा विक्रम को उनके गांव पोईपाल ले जा कर सुनता है। ( पृष्ठ 90 से 123)
उपन्यास का समापन उपन्यासकार की इन बातों से होता है, मगर जाते-जाते अछूत शहीद बिका का वेताल अपनी कालजयी गाथा में उलझे कई प्रश्न हमारे लिए अनुत्तरित छोड़ गया। विक्रम को लगा जैसे वह कोई भयंकर सपना देख रहा हो। और जैसे ही उसका सपना टूटा। उसे लगा कि हमारे देश में कई ऐसे शहीद बिका होंगे, जिनके बारे में हमारी वर्तमान पीढ़ी को जानकारी नहीं होगी। वे अपने निम्न जाति के काले पर्वत के बोझ तले दब कर हमेशा-हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में खो गए होंगे। आज जरूरत है उन काले पर्वतों को उखाड़ फेंकने की, ताकि उनका सही इतिहास हमारी पीढ़ी के सामने आ सके। विक्रम तो क्या उसके जैसे सैकड़ों-हजारों साहित्यकार मिलकर भी इस उपन्यास को पूरा नहीं कर पाएंगे।
यह उपन्यास अधूरा ही रहेगा, सदियों-सदियों तक।
टूटे मटके में पानी भरने की तरह यह कभी भरा नहीं जाएगा। अधूरा ही रहेगा। अधूरा उपन्यास। अछूत बिका नाएक की खोज कभी पूरी नहीं हो सकती है।
कभी पूरी नहीं हो सकती है!
कभी पूरी नहीं हो सकती है!! ( पृष्ठ 156 )
उपन्यास की भूमिका में प्रोफेसर सेवाराम त्रिपाठी लिखते हैं कि लेखक ने जिस प्रकार ऐतिहासिक जानकारी एकत्र करते हुए शोध परक उपन्यास लिखा है- वह सराहनीय है और सभी को उत्साहित भी करता है। चमक-दमक भरे वर्तमान परिवेश में बड़े और प्रतिष्ठित नायकों के बीच स्थानीय और छोटे नायक अक्सर वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान नहीं बना पाते हैं, यही इस उपन्यास का मूल भाव है। लेखक ने अपने इतिहासकार मित्र के सहयोग से स्थानीय नायकों और कथाओं पर भरपूर शोधकर यह रचना प्रस्तुत की है, क्योंकि इस समय इतिहास को ही खारिज किया जा रहा है इसके लिए लेखक को कोटिशः बधाई ।
ओडिशा में अंगुल के प्रख्यात ओड़िया साहित्यकार, एवं समालोचक प्रोफेसर शांतनु पहले फ्लैप पर लिखते हैं कि बहुमुखी प्रतिभाशाली प्रसिद्ध साहित्यकार दिनेश कुमार माली के अद्यतन उपन्यास 'शहीद बिका की खोज' में तालचेर प्रजामंडल आंदोलन के प्रथम शहीद बिका के जीवन-संघर्षों, उसकी शहादत और तत्कालीन सामाजिक विद्रूपताओं विसंगतियों को लिपिबद्ध करने के बहाने ब्रिटिश उपनिवेशवाद और तत्कालीन राजाओं द्वारा प्रजा पर किए जा रहे दुर्दात अत्याचार और शोषण के विरुद्ध तालचेर गडजात में उठी आवाज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में बखूबी उजागर किया है। इसे परतंत्र भारत में ओड़िया जीवन के मार्मिक सामाजिक और राजनैतिक क्रांति के सूत्रपात का आधिकारिक दस्तावेज और दलित विमर्श का प्रतिनिधि उपन्यास माना जा सकता है।
फ्लैप दो पर शुकदेवानंद स्नातकोत्तर कॉलेज, शाहजानपुर, उत्तरप्रदेश के अंग्रेजी के एसोसिएट प्रोफेसरडॉ. शालीन कुमार सिंह लिखते हैं कि शहीद बिका नायक की खोज एक ऐसा उपन्यास है जो अपने अद्वितीय कथ्य और अनूठी शैली के माध्यम से इतिहास, समाज और मानवीय संवेदनाओं के विभिन्न आयामों का अन्वेषण करता है। लेखक ने इस उपन्यास के माध्यम से न केवल तालचेर की ऐतिहासिक और सांस्कृक्तिक पृष्ठभूमि को सजीव किया है। उपन्यास का कथानक, 1893 से 2024 तक के इतिहास को समेटे हुए, भारतीय समाज के दलित और शोषित वर्गों के संघर्ष को प्रतिबिंबित करता है। लेखक ने मार्मिकता के साथ इस बात को रेखांकित किया है कि स्वतंत्रता आंदोलन में निचले वर्ग के लोगों ने किस प्रकार त्याग और बलिदान किया, लेकिन आज भी उनके साथ न्याय नहीं हुआ है। यह एक संवेदनशील लेखक के हृदय की गहराइयों से उपजा हुआ एक ऐसा प्रयास है, जो हमारे राष्ट्रीय इतिहास और समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारियों को जागृत करता है।
अपनी बात में उपन्यासकार लिखते हैं कि
पहले मैं इस उपन्यास का शीर्षक 'शहीद बिका का जीव' या 'शहीद बिका का वेताल' रखना चाहता था। परंतु पता नहीं क्यों, ऐसा लगा कि यह शीर्षक उपन्यास के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाएगा। इसलिए शहीद बिका के मुँह से ही हमारे देश के स्वतंत्रता आंदोलन की तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक विप्लवी परिस्थितियों का सामना करने वाले शहीदों के बारे में आधुनिक पीढ़ी को अवगत करवाया जाए। राजस्थान में जन्म लेने के बावजूद तीन दशकों से ओड़िशा मेरी कर्मभूमि होने के नाते मेरा यह परम कर्तव्य बनता है कि मैं अपने देश के प्रजामंडल के प्रथम शहीद की गाथा को विक्रम-वेताल के रूप में हिंदी जगत के सामने लाऊँ, ताकि मेरे संवेदनशील हृदय को कुछ हद तक शांति मिल सके। विगत वर्ष 6. 9.2023 के 86 वें तालचेर प्रजामंडल दिवस पर कणिहा में आयोजित समारोह में मंच पर अतिथि के रूप में उपस्थित होने का अवसर मिला था, उस समय नेताओं के भाषण में प्रजामंडल आंदोलन के बारे में जिक्र था, जिसने मेरे मन में इस संदर्भ में जानने की जिज्ञासा को जन्म दिया।
उपन्यास के कथानक में कसावट है। भाषा शैली अत्यंत सरल और सहज है। लेखन का प्रभाव ऐसा है कि पाठक दो-तीन पन्ने पढ़ ही बंध जाता है और पूरा उपन्यास पढ़ने के लिए बाध्य हो जाता है। बेताल और विक्रम पाठक को बांधे तो रखते ही हैं साथ ही घटना क्रम से भी जोड़े रखते हैं।
लेखक परिचय ;
दिनेश कुमार माली का जन्म 9 नवंबर 1968 को सिरोही राजस्थान में हुआ। आपने बी.ई. आनर्स (माइनिंग) , एम.बी.एम. इंजिनीयरिंग कॉलेज, जोधपुर, पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन एकोलोजी एंड एनवायरनमेंट , एम.बी.ए. (ऑपरेशन) , एम.ए. (हिंदी) , एम.ए. (अंग्रेजी) , फर्सट क्लास सर्टिफिकेट ऑफ कोम्पेटेंसी की शिक्षा प्राप्त की। नेशनल बुक ट्रस्ट, साहित्य अकादमी और राजपाल एंड संस जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशकों से प्रकाशित आपकी कृतिया देश-विदेश में बहुचर्चित रही है। अर्द्ध शताधिक कृतियों में 31 कृतियाँ ओड़िया और अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद और 25 से अधिक मौलिक कृतियाँ हैं, जिसमें यात्रा-संस्मरण आलेख-संग्रह, समीक्षा, साक्षात्कार, आलोचना, उपन्यास आदि शामिल है। पद्म श्री हलधर नाग पर लिखी आपकी रचनाओं पर पांडिचेरी विश्वविद्यालय ने चार बार संगोष्ठियाँ आयोजित की एवं हलधर नाग पर लिखे आलेखों को इग्नू एम.एक्रम में शामिल किया गया है। राजस्थान साहित्य अकादमी से देव राज उपाध्याय आलोचना पुरस्कार, मध्य प्रदेश राष्ट्र भाषा समिति द्वारा भोपाल में राज्यपाल के कर कमलों से स्व. हजारीमल जैन स्मृति वांग्मय पुरस्कार, साहित्य शोध संस्थान, दिल्ली की तरफ से आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी पुरस्कार, फिरोदाबाद में राष्ट्रीय प्रज्ञा संस्थान द्वारा प्रोफेसर सरयू कृष्णमूर्ति', भारतीय अनुवाद परिषद, नई दिल्ली द्वारा प्रोफेसर गार्गी गुप्ता राष्ट्रीय द्विवागीश अनुवादक सम्मान, बीजिंग में आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन 'सृजनगाथा' सम्मान, हलधर नाग की जन्मस्थली बेंस गाँव में अभिमन्यु सम्मान जैसे महत्वपूर्ण सम्मानों के अतिरिक्त जबलपुर, रायपुर, नासिक, रोहतक, चरखा-दादरी, भोपाल, शिमला, मदुरै, लखनऊ, जयपुर, उदयपुर, भुवनेश्वर, कटक, महँगा बड़चना, चंडीखोल, अंगुल, तालचेर की अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित हो चुके हैं।
संपर्क मो.9437059979
-------------