‘वेद मन्त्रोच्चार से मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा होना सिद्ध नहीं होता’
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04 Dec 16
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।हममें 28 नवम्बर 2016 को ‘मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा और मूर्तिपूजा’ पर एक लेख लिख कर फेस बुक पर प्रस्तुत किया था। इस पर आर्य विद्वान श्री कृष्ण कान्त वैदिक ने प्रतिक्रिया के रूप में अपना एक विस्तृत लेख प्रस्तुत किया जिसमें पुराणों के विरोधाभासों को उजागर किया गया है। उनके लेख पर सम्माननीय विद्वान श्री रवीन्द्र कुमार मिश्र जी ने महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए लिखा कि ‘‘मनमोहन आर्य जी का लेख तो मैंने नहीं पढ़ा परन्तु आपने मूर्ति प्रतिष्ठा से संबंधित वेद मंत्र जानना चाहा है। वह मंत्र इस प्रकार हैः- ‘ओम् असुनीते पुनरस्मासुचक्षुः पुनः प्राणमिह नो धेहि भोगम्। ज्योक् पश्येम सूर्यमुच्चचरन्तम, अनुमते न मृडया नः स्वस्ति।।’ (ऋग्वेद 8-1-23) अर्थात् ‘हे असुनीते ! यहाँ हमारे इन देवों में फिर ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय प्राण और भोग को स्थापित कर, हम प्रतिदिन ऊपर चढ़ते हुए सूय्र्य को चिरकाल तक देखें, इन मूर्तियों में ये सब सदा बना रहे। हे अनुमते हमें सुखी कर, हमारा कल्याण हो।’
ऋग्वेद के मन्त्र 10-59-6 ‘असुनीते पुनरस्मासु चक्षुः पुनः प्राणमिह नो धेहि भोगम्। ज्योक् पश्येम सूर्यमुच्चरन्तमनुमते मृडया नः स्वस्ति।।’ को पौराणिक मूर्तिपूजक लोगों द्वारा जड़ मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा कराने का मन्त्र बताया जाता है। इस मन्त्र के अर्थ के अनुसार इसका किसी मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा किये जाने से सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। वैदिक विद्वान एवं वेदभाष्यकार स्वामी ब्रह्ममुनि परिवाज्रक विद्यामार्तण्ड ने इस मन्त्र का यथार्थ भाष्य किया गया है। भाष्य है ‘(असुनीते) हे प्राणों को प्राप्त कराने वाले परमात्मन् ! (पुनः-इह-अस्मासु चक्षुः-प्राणं भोगं नः-धेहि) तू इस जीवन में-इस पुनर्जन्म में हमारे निमित्त पुनः नेत्र पुनः प्राण और भोग पदार्थ को धारण करा (सूर्यम्-उच्चरन्तं ज्योक् पश्येम) उदय होते हुए सूर्य को चिरकाल तक देखें (अनुमते नः स्वस्ति मृडय) हे आज्ञापक परमेश्वर ! हमारे लिए कल्याण, जैसे हो ऐसे, सुखी कर।।’ इस मन्त्र का भावार्थ करते हुए विद्वान भाष्यकार ने लिखा है कि ‘पुनर्जन्म में प्राण, नेत्र, आदि अंग पूर्वजन्म के समान परमात्मा देता है। वह हमारे जीवन को सुखी बनाने के लिए सब साधन भोग पदार्थ देता है। उसका हमें कृतज्ञ होना चाहिए तथा उसकी उपासना करनी चाहिए।’ मध्यकालीन भाष्यकार आचार्य सायण ने भी इस मन्त्र को पुनर्जन्म को सिद्ध करने वाला मन्त्र ही स्वीकार किया है न कि मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा वा स्थापना कराने वाला मन्त्र। आचार्य सायण का भाष्य है ‘असुनीते, हमें फिर नेत्र दो। फिर हमारे प्राण को हमारे पास उपस्थित करो। हमें भोग करने दो। हम चिरकाल तक सूर्योदय देख सकें। अनुमति, जिससे हमारा विनाश न हो, इस प्रकार हमें सुखी करों।’ इस प्रकार वैदिक विद्वान ब्रह्ममुनि जी और चतुर्वेदभाष्कार सायण में कोई अधिक भेद नहीं है। प्राण प्रतिष्ठा का तो कहीं दूर तक भी प्रसंग नहीं है।
श्री रवीन्द्र कुमार मिश्र जी ने वेदमन्त्र व उसका जो अर्थ प्रस्तुत दिया है, वह भी आर्य विद्वानों व सायण के अनुरुप है। अतः इस मन्त्र का प्राण प्रतिष्ठा में किया गया विनियोग उचित प्रतीत नहीं होता। जब प्राण प्रतिष्ठा असम्भव है तो वेदों में उसका मन्त्र मिलना भी असम्भव ही है। पुराणों को धर्म ग्रन्थ की तरह मानने वाले हमारे बन्धु वेद मन्त्रों के अनेक कर्मकाण्डों में ऐसे विनियोग कर देते हैं जिनका वेद मन्त्र के भावों व अर्थो से कोई सम्बन्ध नहीं होता। ऐसे ही यज्ञ में पशु हिंसा करने सम्बन्धी मन्त्र रहे हैं जिनके कारण वैदिक धर्म व संस्कृति का मध्यकाल में अत्यधिक पतन हुआ, मन्दिर व देवालय आदि बने और मूर्तिपूजा का प्रचलन हुआ जिसका परिणाम देश की गुलामी के रूप में सामने आया। सन् 1947 में देश का विभाजन होकर आजादी मिली परन्तु साम्प्रदायिकता की समस्या हल नहीं हुई। देश का विभाजन होकर भी पाकिस्तान के रूप में एक शत्रु राष्ट्र हमें मिला जो तब से अभी तक कभी प्रत्यक्ष तो कभी व अब अप्रत्यक्ष वा छद्म युद्ध करता आ रहा है। आजादी के आन्दोलन के क्रान्ति व अहिंसात्मक अथवा गरम व नरम दोनों दलों के प्रमुख लोग महर्षि दयानन्द के विचारों से प्रभावित थे। क्रान्तिकारियों के गुरु श्यामजी कृष्ण वम्र्मा स्वामी जी के साक्षात् शिष्य थे वहीं महात्मा गांधी गोपाल कृष्ण गोखले के शिष्य थे। श्री गोखले कृष्ण गोखले पूना वासी महादेव गोविन्द रानाडे के शिष्य थे। रानाडे स्वयं को महर्षि दयानन्द का शिष्य मानते थे। पुणे में महर्षि दयानन्द का स्वागत सत्कार, उनके प्रवचनों व शोभा यात्रा की व्यवस्था में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। अतः हम देख रहे हैं कि मूर्तिपूजा से इसके अनुयायी व भक्तों को कोई विशेष लाभ नहीं हो रहा है, देश की गुलामी दूर करने तक में नहीं अन्यथा आन्दोलन की बागडोर उन्हीं के हाथों में होनी चाहिये थी। अज्ञानता के युग मध्यकाल में मूर्तिपूजा की प्रथा बौद्ध व जैन मत का अनुकरण कर प्रचलित हुई। बुत शब्द बुद्ध का ही अपभ्रंस है। बुत ही बाद में मूर्ति के पर्याय के रूप में प्रचलित हुआ, यही अनुमान होता है। महाभारत काल व उससे पूर्व योगेश्वर श्री कृष्ण जी व श्री रामचन्द्र जी की मूर्ति की पूजा का विधान व प्रमाण कहीं देखने में नहीं आता। वेद, दर्शन, उपनिषद व अन्य प्राचीन ग्रन्थों में भी नहीं है। पुराणों में है परन्तु उनका काल तो विगत के 500 से 2000 वर्ष मान सकते हैं जिसके अनेक वर्णनों में अतिश्योक्ति है। अतः श्री कृष्ण जी की मूर्ति की पूजा का प्रचलन मध्यकाल में ही हुआ था जो कि ज्ञान की दृष्टि से अवनत काल था।
वेद एवं वैदिक साहित्य के अनुसार ईश्वर निराकार एवं सर्वव्यापक है। वह चेतन तत्व व पदार्थ है न कि जड़ पदार्थ। सर्वव्यापक और निराकार होने से उसकी निराकार-आकृतिहीन के अनुरूप आकृति व मूर्ति बनाना असम्भव है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम एवं योगेश्वर श्री कृष्ण जी पांच हजार व उससे पूर्व हुए हैं। इनके जो चित्र व मूर्तियां चित्रकारों द्वारा बनाई जाती हैं वह कल्पनाश्रित होती हैं, उनके यथार्थ शारीरिक आकार प्रकार अर्थात् आकृति से चित्र व मूर्ति का कोई सरोकार नहीं है। यदि कोई व्यक्ति हममें से किसी को देख ले और उसका किसी पुस्तक में वर्णन कर दे तो उसके आधार पर जो चित्र व मूर्ति बनाई जायेगी वह हूबहू हम जैसी कदापि नहीं हो सकती। यदि ऐसा है तो कोई भी चित्रकार बिना वास्तविक चित्र के किसी का जो चित्र बनायेगा वह यथार्थ चित्र जैसा ही बनेगा, सर्वथा असम्भव है। अतः श्री राम व श्री कृष्ण जी की यथार्थ मूर्तियां को कोई चित्रकार व मूर्तिकार नहीं बना सकता। यदि कुछ कुछ मिलती जुलती बनाता भी है तो वह ऐतिहासिक महापुरुष श्री राम व श्री कृष्ण जी की तो हो सकती है, ईश्वर की तो कदापि कदापि नहीं। वेदों में ईश्वर अजन्मा, अकायम्, अवर्ण, अस्नाविरम्, शुद्धम्, परिभू:, स्वयंभू आदि कहा गया है। कौन है जो ऐसे ईश्वर की मूर्ति बना सकता है? कोई नहीं।
अब किसी पाषाण व धातु की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा पर विचार करते हैं। प्राण सूक्ष्म शरीर का अंग होते हैं। ईश्वर इन्हें सृष्टि के आरम्भ वा रचनाकाल में प्रत्येक आत्मा के लिए पृथक पृथक बनाता है जो प्रलय काल तक उसी आत्मा के साथ संयुक्त रहते हैं। मृत्यु होने पर भी यह प्राण वा सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ चला जाता है और फिर ईश्वर कर्मानुसार उस जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर सहित नया जन्म व शरीर प्रदान करता है जिसे पुनर्जन्म कहते हैं। परमात्मा के भण्डार में बिना आत्मा के पृथक से प्राण व सूक्ष्म शरीर बनाकर नहीं रखे गये हैं कि जिन्हें हमारे कोई विद्वान व पण्डित आवाह्न करें और वह जड़ प्राण पण्डित जी की बात सुनकर आकर उनके द्वारा निर्दिष्ट मूर्ति में प्रविष्ट हो जाये। अतः प्राण प्रतिष्ठा की यह परिपाटी यथार्थ सत्य न होकर अन्धविश्वास ही है। यदि इसमें ईश्वर के प्राण वस्तुतः प्रविष्ट व प्रतिष्ठित होते तो सोमनाथ, मथुरा, काशी, अयोध्या आदि के मन्दिरों में जो मूर्तियां विधर्मियों ने खण्डित की हैं, वह ईश्वर के सर्वशक्तिमान होने से कदापि न हो सकती। महर्षि दयानन्द जी के जीवन में शिवलिंग पर चूहों की जो घटना घटी थी, वह भी यही प्रमाणित करती है कि पौराणिक रीति से मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा करने पर भी उसमें एक साधारण पाषाण की तुलना में किसी प्रकार की कोई शक्ति उत्पन्न नहीं होती। वह मूर्ति वही होती व रहती है जो प्राण प्रतिष्ठा आदि कर्मकाण्ड से पहले होती है। यहां यह भी विचारणीय है कि ईश्वर सर्वव्यापक होने से जगत के प्रत्येक पदार्थ में सदा सर्वदा विद्यमान है। मूर्तिकार व चित्रकार जो मूर्तियां बनाता है उसमें भी ईश्वर प्रतिष्ठित रहता ही है। अतः उसका बुलाना वा आवाह्न करना नहीं घटता क्योंकि वह तो पहले से ही उपस्थित व विद्यमान है। यदि मूर्ति पूज्य है तो संसार की प्रत्येक वस्तु के अन्दर ईश्वर की विद्यमानता के कारण वह पूजनीय सिद्ध होती है। किसी वस्तुत का उसके गुण व दोषों के आधार पर ग्रहण व परित्याग करना उचित होता है। सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग ही पूजा है। ईश्वरीय ज्ञान वेदों व वेदभक्त ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय कर ईश्वर को जानना, उसके गुणों के अनुसार उसकी स्तुति व अर्चना करना तथा ईश्वर की आज्ञा का पालन ही ईश्वर की पूजा है। इन्हीं शब्दों के साथ हम अपनी बात समाप्त करते हैं। ओ३म् शम्।
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