GMCH STORIES

“श्राद्ध और तर्पण - ज्ञानपूर्वक किया गया कर्म ही फल दायक होता है अन्य नहीं”

( Read 6641 Times)

02 Oct 18
Share |
Print This Page
“श्राद्ध और तर्पण - ज्ञानपूर्वक किया गया कर्म ही फल दायक होता है अन्य नहीं” आजकल देश में श्राद्ध एवं तर्पण का पक्ष चल रहा है। श्राद्ध के बारे में मान्यता है कि भाद्रपद महीने के कृष्ण पक्ष में मृतक माता-पिता, दादी-दादा व परदादी-परदादा का का श्राद्ध करने से वह तृप्त होते हैं। इसके लिये पण्डितों व ब्राह्मणों को भोजन कराने सहित यज्ञ-हवन व दान-पुण्य का महत्व माना जाता है। देश के अधिकांश व सभी हिन्दू इस श्राद्ध कर्म को करते हैं और मानते हैं कि इससे उनके मृतक माता-पिता आदि तृप्त अर्थात् एक वर्ष तक भूख से निवृत्त हो जाते हैं। क्या यह बात वैदिक सिद्धान्तों से सत्य व पुष्ट है, इस पर कोई विचार नहीं करता। श्राद्ध व अन्धविश्वासों से जिनको लाभ हो रहा है वह तो क्यों विचार करेंगे परन्तु जिन्हें इस काम पर धन व समय का व्यय करना होता है, वह भी इस पर विचार नहीं करते। यह भी कह सकते हैं कि उनके पास इसके लिये न तो समय है और न ही विवेक बुद्धि। हमारे पण्डित बन्धु भी श्राद्ध को तर्क की कसौटी पर सिद्ध नहीं करते। मृतक श्राद्ध को तर्क बुद्धि से सिद्ध किया भी नहीं जा सकता। अतः हमारा देश इस कर्म को करके किसी लाभ को तो प्राप्त नहीं हो रहा है अपितु अपनी व समाज की हानि ही कर रहा है। कैसे हानि कर रहा है, इस पर विचार करते हैं।

सनातनी पौराणिक जगत् में 18 पुराणों को ईश्वरीय ज्ञान वेदों से भी अधिक महत्व प्राप्त है। महाभारत काल व उसके बाद बुद्धकाल तक के वर्षों में इनका अस्तित्व नहीं था। संसार में सबसे अधिक पुराने ग्रन्थ वेद हैं उसके बाद चार ब्राह्मण ग्रन्थ एवं मनुस्मृति सहित उपनिषदों एवं दर्शन ग्रन्थों की रचना हुई। महाभारत काल तक पूरे विश्व में वैदिक धर्म पताका फहराती थी। न पौराणिक मत थे, न बौद्ध व जैन मत तथा न ईसाई व इस्तालम मत अस्तित्व में आये थे। पुराणों की रचना महाभारत के बहुत बाद बुद्धकाल के बाद होना आरम्भ हुई और कुछ पुराणों के श्लोकों से तो ऐसा विदित होता है कि अंग्रेजों के भारत में आने तक पुराणों की रचना होती रही। अतः पुराणों की बातें इनके रचनाकाल के आधार पर सनातन नहीं हो सकती। वेद ही पुरातन, अनादि, नित्य व सनातन ज्ञान के पुस्तक हैं जिनका आविर्भाव ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में किया था। सृष्टि के आरम्भ से हमारे सभी ऋषि मुनि वेद को ही सब सत्य विद्याओं की पुस्तक मानते चले आये हैं। वैदिक परम्परायें एवं वेद ज्ञान ही सनातन है। अन्य कोई ग्रन्थ सनातन नहीं है। वेद का पढ़ना, उसका पालन तथा प्रचार करना ही मनुष्य का धर्म है। वेदों में जीवित माता-पिता की श्रद्धापूर्वक सेवा सुश्रुषा करने का विधान है, वहीं मृतक माता-आदि पितरों का श्राद्ध करना, पण्डितों के माध्यम से उन्हें भोजन कराने का किंचित भी विधान नहीं है। महाभारत काल के बाद देश में घोर अविद्यान्धकार छा गया था। वेदों का पठन पाठन बन्द हो गया था। वेदों के प्रचार का तो प्रश्न ही नहीं था। कुछ सीमित परिवार ही वेदों को कण्ठस्थ करते थे परन्तु वह भी वेदों के अर्थ नहीं जानते थे। वेदों को कण्ठस्थ करने से यह लाभ अवश्य हुआ कि वेद सुरक्षित रह सके। यह भी परम्परा रही है कि वेद विरुद्ध कर्मों को करना पाप व मिथ्या कर्म हैं। मृतक श्राद्ध क्यों अकरणीय है, इसके कुछ कारण निम्न हैं:

1- जीवात्मा के परमात्मा से व्याप्य-व्यापक तथा पिता-पुत्र आदि के अनेक सम्बन्ध हैं परन्तु असंख्य व अनन्त जीवात्माओं का आपस में माता-पिता, बन्धु, सखा आदि किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है। यह सम्बन्ध हर जन्म में बदलते रहते हैं। आज मेरा जो पिता है अगले जन्म में वह मेरा पुत्र भी हो सकता है। इसी प्रकार से अन्य सभी सम्बन्धों की स्थिति है।

2- परमात्मा जीवात्मा का सम्बन्ध माता-पिता से जोड़ता है। यह सम्बन्ध जीवात्मा के पिता व माता के शरीर व गर्भ में आने से आरम्भ होता है। जन्म होने पर अन्य सम्बन्ध भी बनते है जैसे की भाई, बहिन, दादी, दादा, मौसी, मामा, ताऊ, चाचा, बुआ, फूफा, आचार्य-शिष्य आदि। यह सम्बन्ध जन्म के साथ बनते हैं। जन्म से पूर्व जन्म लेने वाली जीवात्मा के यह सम्बन्ध नहीं होते।

3- जीवात्मा के सभी सम्बन्ध अपने परिवार व सम्बन्धियों से मृत्यु होने पर समाप्त हो जाते हैं। जीवात्मा जिन माता-पिता व दादी-दादा आदि की सन्तान था, उनकी मृत्यु होने पर मृतकों की जीवात्माओं से वह सम्बन्ध समाप्त हो जाता है। मृत्यु होने पर मृतक जीवात्मा के अपने माता-पिता, पत्नी पुत्र व पुत्रियों से सभी प्रकार के सम्बन्ध भी टूट जाते हैं। मृत्यु के बाद मृतक शरीर का दाह संस्कार करना ही सन्तानों व परिवारजनों का एकमात्र कर्तव्य होता है। अन्य कोई सम्बन्ध नहीं होते।

4- मृत्यु के बाद हमारे माता-पिता, दादा-दादी तथा परदादा-परदादी अपने कर्मों के अनुसार ईश्वर की व्यवस्था से पुनर्जन्म को प्राप्त हो जाते हैं। जन्म से पूर्व जीवात्मा माता के गर्भ में माता के भोजन से ही अपने शरीर के लिये आवश्यक भोजन ग्रहण करता है और जन्म लेने के बाद कुछ समय तक माता व गोदुग्ध का पान करता है तथा उसके बाद वह अन्न, फल, दुग्ध आदि का सेवन भोजन के रूप में करता है।

5- भोजन की आवश्यकता हमारे शरीर को होती है। अन्न, फल, दुग्ध आदि पदार्थों व भोजन की आत्मा को आवश्यकता नहीं होती। आत्मा का भोजन तो सद्ज्ञान व सद्कर्म है। मनुष्य को ज्ञान वेद और वेदानुकूल ग्रन्थों को पढ़ने से प्राप्त होता है और उस ज्ञान के अनुरूप कर्म करके आत्मा सन्तुष्ट व उन्नति को प्राप्त होता है।

6- जब मृतक को भोजन व अन्य किसी पदार्थ की आवश्यकता ही नहीं है तो फिर हम श्राद्ध के माध्यम से जो अनावश्यक कर्म करते हैं, उससे हम अपने समय व धन की हानि ही करते हैं। साथ ही ऐसा करके अपनी बुद्धि का सदुपयोग न कर उसका दुरुपयोग ही करते हैं। हम समझते हैं कि ईश्वर की व्यवस्था से मृतक श्राद्ध कर्म का कुछ दण्ड हमें कर्म फल सिद्धान्त के अनुसार मिल सकता है।

7- हम इस जन्म में जब से पैदा हुए हैं, तब से व उसके बाद कभी हमें हमारे पूर्वजन्म की सन्तानों व परिवारजनों से श्राद्ध के दिनों में भोजन प्राप्त नहीं हुआ। हमें आवश्यकता ही नहीं थी। हमने श्राद्ध के दिनों में पूर्व दिनों की तरह भरपूर व भर-पेट भोजन किया। वह हमारा स्वोपार्जित था न की पूर्वजन्म के सम्बन्धियों द्वारा भिजवाया हुआ था। यदि हमें हमारे पूर्व जन्म के परिवार के पुत्र, पौत्र व प्रपौत्र भोजन भेजते और वह हमें प्राप्त होता तो हमारा कर्तव्य था कि हम उनको धन्यवाद तो करते। इससे श्राद्ध विषयक परिपाटी व जो कर्मकाण्ड किया जाता है वह सब काल्पनिक एवं मिथ्या सिद्ध होता है।

8- हिन्दू समाज में श्राद्ध की जो परम्परा है वह केवल श्राद्ध पक्ष के 15 दिनों में से किसी एक या दो दिन ही की जाती है। कोई पूरे पन्द्रह दिन भी कर सकता है। अब यदि हमारा भोजन व अन्य पदार्थ जो हम पण्डित जी को दान करते हैं, वह हमारे पूर्वजों तक पहुंचते हैं तो भोजन तो मनुष्य दिन में कई बार अथवा दो बार तो करता ही है। हम वर्ष के 365 दिनों में से एक दो दिन या 15 दिन भोजन कराते हैं। शेष 350 दिन तो हमारे माता-पिता आदि पूर्वज भूखें रहते होंगे? इसका तर्क व बुद्धि संगत उत्तर हमारे उन पण्डितों को देना चाहिये जो मृतक मनुष्य का श्राद्ध कराने का समर्थन करते हैं।

9- श्राद्ध के दिनों में मनुष्य बहुत से काम नहीं करते। कुछ यात्रायें नहीं करते तो किसी को वाहन खरीदना हो वह वाहन नहीं खरीदता। भोजन के नियम भी हैं जिसका पालन किया जाता है। कुछ मनुष्य सिर के बाल, दाढ़ी व नाखून आदि नहीं काटते व कटवाते। इस प्रकार के सभी नियम निरर्थक सिद्ध होते हैं।

10- मान लीजिये कि कोई व्यक्ति मरने के बाद पशु, पक्षियों आदि किसी योनि में पुनर्जन्म को प्राप्त हुआ। शेर का भोजन मांस है। हाथी यद्यपि शाकाहारी है परन्तु वह खाता बहुत मात्रा में है। हिरण, गाय, भैंस आदि का भोजन घास है तथा पक्षियों का वृक्षों पर बैठकर फल आदि खाना है। अतः श्राद्ध में पण्डित जी को खीर व पूरी खिलाना शेर, गाय, भैंस आदि के किसी काम नहीं आयेगा। इसके लिये तो हमें साथ में घास, मांस आदि पदार्थों को श्राद्ध में सम्मिलित करना होगा।

हम समझते हैं कि कोई बुद्धिमान व समझदार व्यक्ति कभी अपने मृतक परिवारजनों का श्राद्ध नहीं करेगा। फिर श्राद्ध कैसे करें इसका तरीका यह है कि हम अपने जीवित माता-पिता, दादी-दादा, परदादी-परदादा में से जो-जो जीवित हों उनकी पूरी निष्ठा व सिद्दत से सेवा करें। उन्हें समय पर अच्छे से अच्छा भोजन करायें। उन्हें स्वच्छ व अच्छे वस्त्र पहनने के लियें दें, उन्हें अपने साथ रखें और उनकी भावनाओं व सद्इच्छाओं का पूरा ध्यान रखे। यदि वह प्रसन्न, सुखी व सन्तुष्ट रहते हैं और हमारे इन कार्यों की प्रसंशा करते हैं तो यह वास्तविक श्राद्ध होता है। यह श्राद्ध हमें वर्ष के 365 दिन करना होगा। इससे हमें माता-पिता आदि का आशीर्वाद अवश्य मिलेगा। इस प्रकार के श्राद्ध से हमारा यह जीवन तथा परलोक अर्थात् पुनर्जन्म का जीवन सुखी, उन्नत व कल्याण से युक्त होगा। यही शिक्षा हमें वेद, दर्शन, उपनिषद्, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थ देते हैं। हमें इन सत्य ग्रन्थों का ही पालन व व्यवहार करना चाहिये। जीवन में एक दो घण्टे स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये। स्वाध्याय से बुद्धि का ज्ञान बढ़ाने का सबसे उत्तम ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” है। यदि हम इसका एक दो घण्टे प्रतिदिन स्वाध्याय करेंगे तो एक महीने में 30 से 60 घंटे का स्वाध्याय हो जायेगा। यदि हम एक घण्टे में 10 पृष्ठ पढ़ते हैं तो हम एक महीने में 300 से 600 पृष्ठ पढ़ डालेंगे। एक महीने में ही सत्यार्थप्रकाश के प्रथम 11 समुल्लास का अध्ययन तो हर हाल में समाप्त हो जायेगा और हम सभी प्रकार के अन्धविश्वासों व मिथ्या धार्मिक कर्मकाण्डों से बच जायेंगे।

मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र यज्ञ आदि करते हुए सत्यासत्य को जानकर व विचार कर कर्म करना है। हमें सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग में भी सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। यह कार्य सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से सरलता से कर सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से हम श्राद्ध को सार्थक रूप में करेंगे और उसके अन्धविश्वासों से युक्त पक्ष को छोड़कर अपने जीवन को उन्नति के मार्ग पर अग्रसर कर सकेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

Source :
This Article/News is also avaliable in following categories :
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like