GMCH STORIES

“ईश्वर सृष्टि की रचना व संचालन क्यों व किसके लिए करता है?”

( Read 76975 Times)

03 Sep 21
Share |
Print This Page
“ईश्वर सृष्टि की रचना व संचालन क्यों व किसके लिए करता है?”

 मनुष्य, आस्तिक हो या नास्तिक, बचपन से ही उसके मन में सृष्टि व इसके विशाल भव्य स्वरूप को देखकर अनेक प्रश्न व शंकायें होती हैं। एक प्रश्न यह होता है कि इस सृष्टि का रचयिता कौन है और उसने किस उद्देश्य से इसकी रचना की है? इसका उत्तर या तो मिलता नहीं है और यदि मिलता भी है तो प्रायः यह होता है कि ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है अथवा यह अपने आप बनी है। सृष्टि को बनाने वाला वह ईश्वर कौन है, कैसा है, कहां है, वह क्या करता है, आदि प्रश्नों का सत्य व यथार्थ उत्तर हमें अपने घर के बड़ो व मनीषियों से भी मिलता नहीं है। हमारे अनेक मतों के धर्माचार्य व उनकी पुस्तकें भी इस विषय पर यथार्थ रूप में प्रकाश नहीं डालती हैं। इन सभी प्रश्नों का समाधान न होने से मनुष्य के भीतर ही यह शंकायें व प्रश्न विलीन होकर खो जाते हैं। संसार में लाखों व करोड़ों में से कोई एक जिज्ञासु ऐसा भी होता है कि जो इन प्रश्नों की उपेक्षा नहीं करता और इनके हल ढूंढने में ही अपना जीवन लगा देता है। ऐसे ही एक महापुरुष का नाम था ऋषि दयानन्द सरस्वती। ऋषि दयानन्द को अपनी आयु के चैदहवें वर्ष में शिवरात्रि के दिन शिव की पूजा व उपासना करते हुए शिव मन्दिर में स्थित शिव की पिण्डी वा मूर्ति के सच्चे शिव होने में शंका हुई थी। उन्होंने अपने पिता व धर्म के आचार्यों से अपनी शंकाओं के उत्तर जानने का प्रयास किया था परन्तु उनको किसी से सत्य व यथार्थ बृद्धिसंगत व विवेकपूर्ण उत्तर नहीं मिले। इस कारण अध्ययन करते हुए उन्हें अपने माता-पिता के गृह व परिवारजनों को छोड़कर सच्चे ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने सहित मृत्यु रूपी क्लेश पर विजय पाने जैसे अनेक रहस्यमय प्रश्नों की खोज में जाना पड़ा था। 

    सन् 1836 से सन् 1863 तक वह अपनी सभी शंकाओं के समाधान तथा विद्या प्राप्ति में लगे रहे। इस अवधि में उनको न केवल अपने प्रश्नों के उत्तर मिले अपितु वह योग विद्या में निष्णात भी हुए। वह ईश्वर साक्षात्कार व प्रत्यक्ष करने की ध्यान व समाधि की प्रक्रिया के अभ्यासी भी बन गये। उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान से हम ईश्वर व सृष्टि से जुड़े सभी प्रश्नों के समाधान जानते हैं। हमारे ज्ञान का आधार ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थ हैं। ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों में जो विद्या व ज्ञान है उसका आधार ईश्वरीय ज्ञान वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों के वेदानुकूल कथन, मान्यतायें व सिद्धान्त हैं जिन्हें महाभारत युद्ध के बाद लोगों ने विस्मृत कर दिया था। महाभारत के बाद के काल में अवैदिक, अज्ञान व अन्धविश्वासों से युक्त मूर्तिपूजा, अवतारवाद की कल्पना, मृतक श्राद्ध व फलित ज्योतिष आदि की कृत्रिम मिथ्या मान्यताओं तथा विधि विधानों ने समाज में स्थान बना लिया था जो आज भी बना हुआ है। ऋषि दयानन्द ने इन्हीं अवैदिक विधानों व परम्पराओं को मनुष्य जाति की अवनति सहित देश की परतन्त्रता एवं अन्य दुःखों का मुख्य कारण बताया है जो कि उचित ही है। 

    यह विशाल सृष्टि मनुष्य एवं सभी प्राणियों के जीवन का आधार है। सृष्टि की रचना एवं संचालन एक अपौरूषेय सत्ता के कार्य हैं। अपौरूषेय का अर्थ होता है कि जिस कार्य को मनुष्य नहीं कर सकते तथा जिसे मनुष्य के अतिरिक्त अन्य चेतन सत्ता जो अनादि, नित्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापक आदि गुणों से युक्त है, सम्पन्न करती है। इस सत्ता जो कि ईश्वर की सत्ता है, उसका विस्तृत उल्लेख व परिचय सृष्टि की रचना के आरम्भ में वेदों में ईश्वर द्वारा स्वयं कराया गया है। वेदों के अतिरिक्त भी जब हम वैज्ञानिक रीति से तर्क व वितर्क पूर्वक विचार करते हैं तो हमें ईश्वर का सत्यस्वरूप उपस्थित होता है। वेदों में ईश्वर को सत्य, चेतन और आनन्दस्वरूप बताया गया है। ईश्वर निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वह जीवों को उनके पूर्वजन्मों के कर्मानुसार भिन्न भिन्न योनियों में जन्म देकर उनके पूर्वकर्मों का सुख व दुःखरूपी भोग कराने वाला है। वह सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व प्रलय सहित सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि को करके चार ऋषियों को उत्पन्न करता है और उन्हें एक-एक वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान देता है। वेदज्ञान के मिलने और ऋषियों द्वारा उनके प्रचार से ही इतर सभी मनुष्य ईश्वर, आत्मा, कर्तव्य व अकर्तव्य सहित ईश्वर की उपासना, परोपकार तथा दान आदि के अपने श्रेष्ठ कर्तव्यों से परिचित होते हैं। इस प्रकार से सृष्टि प्रचलन में आती है और मनुष्य ईश्वर प्रदत्त शरीर व इसमें विद्यमान बुद्धि, मस्तिष्क, ज्ञान व कर्मेन्द्रियों के सहयोग से पुरुषार्थ के द्वारा अपने ज्ञान में वृद्धि करते रहते हैं और उनके द्वारा देश व समाज के लोगों के जीवन को सुख व सुविधाओं से युक्त करते रहते हैं। 

    ईश्वर ने सृष्टि क्यों बनाई है, इसके लिये हमें ईश्वर, जीव और प्रकृति की अनादि और नित्य सत्ताओं तथा उनके गुण, कर्म, स्वभाओं सहित इनके द्वारा हो सकने व की जाने वाली सम्भव क्रियाओं को समझना होगा। इस ब्रह्माण्ड में एक ही ईश्वर है। उसके मुख्य गुण, कर्म व स्वभाव वहीं है जो उपर्युक्त पंक्तियों में दिये गये हैं। जीवात्मा ईश्वर से पृथक अस्तित्व, कार्य व व्यवहार की दृष्टि से एक स्वतन्त्र सत्ता है। जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु उनके फल भोगने में ईश्वर के अधीन वा परतन्त्र हैं। जीवात्मा सत्य व चेतन पदार्थ है। यह अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान, आकार रहित, सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, ईश्वर से व्याप्य, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, शस्त्रों से अकाट्य, अग्नि में न जलने वाला, वायु से न सूखने वाला, कर्म-बन्धनों में बंधा हुआ, जन्म-मरण धर्मा, वैदिक मार्ग पर चल कर वा विद्या प्राप्त कर मृत्यु से पार होने वा मोक्ष प्राप्त करने वाली सत्ता है। ब्रह्माण्ड में जीवों की संख्या अनन्त हैं। इन्हीं जीवों के पूर्वजन्म के कर्मों का सुख व दुःखरूपी फल देने के लिये ईश्वर प्रकृति नामक पदार्थ व सत्ता से जो कि अत्यन्त सूक्ष्म है, इस सृष्टि को बना़़़ते हंै। 

    प्रकृति सत्व, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक सत्ता है। प्रलय अवस्था में यह पूरे ब्रह्माण्ड में फैली हुई होती है। ईश्वर प्रकृति के सूक्ष्म कणों में भी व्यापक रहता है। वह अपनी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता से इस इस प्रकृति में विकार उत्पन्न कर इसे महत्तत्व आदि अनेक पदार्थों में परिवर्तित करते हंै। ऋषि दयानन्द ने सांख्यसूत्रों के आधार पर सत्यार्थप्रकाश में मूल प्रकृति की सत्ता में सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ होने पर होने वाली विकृतियों वा रचनाओं का सारगर्भित वर्णन किया है। वह लिखते हैं कि (सत्व) शुद्ध (रजः) मध्य (तमः) जाड्य अर्थात् जड़ता, यह तीन वस्तु मिलकर इनका जो एक संघात है उस का नाम प्रकृति है। इस से महत्तत्व बुद्धि, उस से अहंकार, उससे पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये चैबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर है। इन में से प्रकृति साम्यवस्था में अविकारिणी और महत्तत्व अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य और इन्द्रियां मन तथा स्थूल भूतों का कारण है। पुरुष अर्थात् परमात्मा न प्रकृति का उपादान कारण है और न वह प्रकृति और उसके किसी विकार का कार्य है। इस प्रक्रिया से ईश्वर ने सत्व, रजः व तमः गुणों वाली त्रि़गुणात्मक प्रकृति से इस सृष्टि व इसके सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह व उपग्रहादि नाना लोकों का निर्माण किया है। यह भी जानने योग्य है कि बिना किसी सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, चेतन सत्ता के इस सृष्टि की रचना व निर्माण नहीं हो सकता। यदि हो भी जाये, जो कि असम्भव है, तो फिर इसका संचालन ईश्वर के समान चेतन सत्ता के बिना नहीं हो सकता। प्रलय के लिए भी ईश्वर की सत्ता का होना व उसे स्वीकार करना आवश्यक है अन्यथा प्रलय के बाद सृष्टि रचना का कार्य होना सम्भव नहीं होगा। अतः सृष्टि की उत्पत्ति प्रक्रिया का सम्पादन सांख्य दर्शन व ऋषि दयानन्द द्वारा किये गये उसके सूत्रों के अनुवाद व क्रम के अनुरूप ही होता है जो कि वेदों के सर्वथा अनुकूल है। 

    सृष्टि की उत्पत्ति अनन्त व अगण्य जीवों के कल्याण तथा उनके पूर्वकल्प एवं पूर्वजन्मों में किये शुभ अशुभ व पाप पुण्य कर्मों सहित सुख-दुःख रूपी फल समस्त जीवों को प्रदान करने के लिये की गई है। यही ईश्वर का सृष्टि बनाने का प्रयोजन है। ईश्वर सृष्टि की रचना वा उत्पत्ति करने में सर्वथा समर्थ हैं, यह भी सृष्टि की रचना का कारण है। इस प्रकार से सृष्टि की रचना किसने, क्यों व किसके लिये की है, इन सभी प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है। यही सृष्टि की रचना, क्या, क्यों व कैसे आदि प्रश्नों के सत्य व यथार्थ उत्तर हैं। हमें नहीं पता कि संसार के किसी बड़े वैज्ञानिक ने कभी इस सृष्टि उत्पत्ति के वर्णन को पढ़ने व समझने का प्रयास किया है और यदि किया है तो उसने इसके पक्ष-विपक्ष में क्या टिप्पणी की है? जो भी हो ऋग्वेद के दसवें मण्डल में सृष्टि की रचना का वर्णन किया गया है। वही वर्णन सृष्टि की रचना का सत्य वर्णन है। इसको स्वीकार कर ही जीवों के जन्म-मरण व मनुष्य जन्म के लक्ष्य ‘मोक्ष’ का भी ज्ञान होता है। 

    सृष्टि की उत्पत्ति कब हुई इसका उत्तर भी वैदिक साहित्य से मिलता है। इस विषय में यह जानना महत्वपूर्ण है कि ईश्वर का एक दिन 4.32 अरब वर्षों का होता है। इतनी ही अवधि की रात्रि होती है जिसे प्रलय काल कहते हैं। पूरी सृष्टि का काल 14 मन्वन्तरों में विभाजित किया गया है। 1 मन्वन्तर में 71 चतुर्युगी होती हैं। इस प्रकार एक कल्प में कुल 994 चतुर्युगी होती हैं। शेष 6 चतुर्युगी का काल 43.20 लाख x 6 = 25.92 करोड़ वर्ष होता है। यह समय सृष्टि की उत्पत्ति में लगने वाला समय है। इस अवधि में सृष्टि बनने के बाद मानव की अमैथुनी सृष्टि व आविर्भाव होता है। सृष्टि के आदि काल से ही अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों वा ऋषियों ने मानव सृष्टि संवत् की गणना आरम्भ कर दी थी। इस समय मानव सृष्टि व वदोत्पत्ति संवत् 1,96,08,53,122 वां वर्ष चल रहा है। इतने वर्ष पूर्व ही हमारी यह सृष्टि वा समस्त ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आये हैं। 4.32-1.96-0.26=2.10 अरब वर्षों बाद इस सृष्टि की प्रलय होनी है। प्रलय तक इस सृष्टि में मनुष्य एवं अन्य प्राणियों के उनके पूर्वजन्मों के शुभाशुभ कर्मों के अनुसार जन्म व मरण होते रहेंगे। इस प्रकार हमें सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता वा निमित्त कारण ईश्वर, सृष्टि के उपादान कारण प्रकृति तथा जिसके लिये सृष्टि बनाई गई उन जीवों का सत्य व यथार्थ उत्तर मिल जाता है। 

    लेख का जो विषय है, उसमें सम्मिलित सभी शंकाओं का समाधान हो गया है। सृष्टि विषयक इन प्रश्नों का समाधान केवल वैदिक धर्म में ही उपलब्ध होता है। वैज्ञानिक भी अभी इस जानकारी को प्राप्त कर इसकी पुष्टि व खण्डन नहीं कर सके हैं। हम ईश्वर, वेद, सभी वेदर्षियों सहित ऋषि दयानन्द के भी आभारी हैं जिन्होंने हमें विलुप्त व विस्मृत इन सभी प्रश्नों व शंकाओं का युक्ति संगत समाधान प्रदान किया है। हम उन्हें सादर नमन करते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः 09412985121 


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories :
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like