पं. शिवपूजन सिंह कुशवाहा और उनका साहित्य
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22 Jan 17
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।महर्षि दयानन्द और उनके अनुयायियों की पहली पीढ़ी के बाद जिन विद्वानों ने अपने विद्वतापूर्ण साहित्य से वैदिक साहित्य को समृद्ध किया है, ऐसे कुछ प्रमुख नामों में एक नाम पं. शिवपूजनसिंह कुशवाहा जी का भी है। 20 वर्ष पूर्व दिवंगत एक मित्र श्री धर्मपाल आर्य से हम यदा कदा आर्यसमाज के इस समर्पित विद्वान व उनके लेखन से सम्बन्धित चर्चा सुना करते थे। कुछ माह पूर्व देहरादून स्थित वैदिक साधन आश्रम तपोवन के अर्धवार्षिक उत्सव में दिल्ली निवासी एक सज्जन अपनी समाज की बन्द आलमारियों से कुछ पुस्तकें यहां लाये और उसे एक चबूतरे पर बिखेर दिया। हमने देखा कि लोग वहां से अपनी अपनी पसन्द की पुस्तकें उठा रहे हैं। अधिंकाश पुस्तकें लोग ले जा चुके थे। हमने भी तीन-चार पुस्तकें पसन्द कीं और वहां लोगों से उनके मूल्य के भुगतान के बारे में पूछा तो एक सज्जन ने बताया कि यह बिना मूल्य दे रहे हैं। उनके समाज में यह साहित्य वर्षों से आलमारियों में बन्द पड़ा था जिसका वहां के अधिकारियों और सदस्यों को कोई उपयोग सूझ नहीं रहा था। अतः वहां के एक सक्रिय सदस्य वा पदाधिकारी तपोवन की यात्रा में कुछ पुस्तकें ले आये जिससे इच्छुक लोग इनका लाभ उठा सकें। आज हम सोचते हैं कि यदि हम उस स्थान पर कुछ देर पहले पहुंच गये होते तो अनेक दुर्लभ पुस्तकें हमें मिल सकती थीं। हमें वहां से जो पुस्तकें मिली उनमें से एक पं. शिवपूजनसिंह कुशवाहा जी की ‘‘क्या वेदों में मांस भक्षण का विधान है?‘‘ पुस्तक है। अन्य दो पुस्तकें स्वामी वेदानन्द (दयानन्द) तीर्थ जी के जीवन चरित की दो लघु पुस्तकें हैं जो एक श्रृखंला में प्रकाशित हुईं थीं। ‘क्या वेदों में मांस भक्षण का विधान है?’ पुस्तक 70 पूष्ठों में है जिसका प्रकाशन दयानन्द संस्थान, नई दिल्ली से हुआ है। पुस्तक पर प्रकाशन वर्ष अंकित नहीं है। इस पुस्तक में विद्वान लेखक श्री कुशवाहा जी ने कुख्यात मासिक पत्रिका सरिता, दिल्ली के फरवरी (द्वितीय) 1973 ई. के अंक में प्रकाशित श्री सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात’ के लेख ‘‘रक्त सने पृष्ठ” का उत्तर प्रकाशित किया है। आर्य विद्वान ने इस पुस्तक में सरिता पत्रिका के सम्पादक को चुनौती दी है कि यदि उनकी लेखनी में शक्ति है तो वह उनकी पुस्तक का प्रत्युत्तर प्रकाशित करें? पुस्तक का मूल्य 80 पैसे है। इनसे अनुमान होता है कि यह पुस्तक सन् 1973 या उसके आसपास लिखी व प्रकाशित की गई होगी। आज हमें अमेरिका में निवास कर रहे एक आर्यबन्धु श्री रंजीत चन्दावले जी का फोन आया जिसमें आपने मराठी में उपलब्ध ऋषि साहित्य के अपने अध्ययन का परिचय दिया और पं. शिवपूजन सिंह कुशवाहा जी की पुस्तक ‘‘ऋग्वेद के दशम मण्डल पर पाश्चात्य विद्वानों का कुठाराघात” तथा ‘‘अथर्ववेद की प्राचीनता” के उल्लेख सहित एक भ्रान्ति निवारण नामक लेख का उल्लेख कर कहा कि उनके एक मित्र को अनुसंधान कार्य में उपयोग के लिए इस सामग्री की आवश्यकता है। हमने उन्हें सूचित किया कि हम मित्रों से जानकारी लेकर उन्हें इस बारे में सूचित करेंगे।
हमने आज पं. शिवपूजनसिह कुशवाहा जी के जीवन परिचय व उनके ग्रन्थों के विषय में पर्याप्त समय तक विचार किया। हमें उनसे संबंधित कुछ जानकारी आर्य विद्वान डा. भवानीलाल भारतीय जी के ग्रन्थ ‘आर्य लेखक कोष’ में प्राप्त हुई। हमारे पास उपलब्ध वैदिक साहित्य पर भी हमने अपनी दृष्टि डाली पर इसके अतिरिक्त हमें अन्यत्र कोई जानकारी नहीं मिली। हमारे एक 86 वर्षीय स्थानीय आर्य मित्र श्री ईश्वर दयालु आर्य ने सम्पर्क करने पर बताया कि उन्होंने पं. जी की ‘‘नीर क्षीर विवेक” पुस्तक पढ़ी है। यह पुस्तक उन्होंने किसी से लेकर पढ़ी होगी परन्तु अब उनके पास नहीं है। हम आर्यजगत के विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित साहित्य पर भी दृष्टि डालते रहते हैं। हमारी जानकारी के अनुसार पंडित जी की कोई भी पुस्तक अब किसी प्रकाशक वा पुस्तक विक्रेता से उपलब्ध नहीं है। यह ज्ञातव्य है कि पंडित जी ने अनेक महत्ववपूर्ण ग्रन्थों प्रणयन अपने जीवन में किया और सम्भवतः सभी ग्रन्थ प्रकाशित भी हुए थे। अब किसी एक ग्रन्थ का भी उपलब्ध न होना व इनकी पीडीएफ या डीजीटल प्रति का उपलब्ध न होना हमें अप्रिय व निराशाजनक लगा। हमारे आर्यनेताओं और प्रकाशकों को इस पर ध्यान देना चाहिये, ऐसा हम अनुभव करते हैं।
डा. भारतीय जी की पुस्तक आर्य लेखक कोष में पंडित जी पर उपलब्ध जानकारी हम पाठको के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। उनके अनुसार लेखनी के धनी, सिद्धान्तमर्मज्ञ तथा प्रतिपक्ष का खण्डन करने में तत्पर श्री शिवपूजनसिंह कुशवाहा का जन्म 1 जून 1924 को बिहार प्रान्त के सारण जिलान्तर्गत गौरा ग्राम में हुआ था। इनकी व्यवस्थित पढ़ाई मिडिल कक्षा तक ही हुई। कालान्तर में आपने प्राइवेट विद्यार्थी के रूप में मैट्रिक से लेकर एम.ए. (संस्कृत) तक की परीक्षायें उत्तीर्ण कीं। हिन्दी विद्यापीठ देवधर (बिहार) की साहित्यालंकार तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन की विशारद परीक्षाएं भी आपने उतीर्ण कीं। 1983 में आपने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से साहित्य-शास्त्री की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। 1941 से 1944 तक कुशवाहा जी विरक्त अवस्था में रहे। 1 नवम्बर, 1944 को वे प्रसिद्ध दानवीर श्री धनीराम भल्ला के सम्पर्क में आये तथा उनके कार्यालय में 8 वर्ष तक कार्य किया। पुनः कानपुर की प्रसिद्ध जूतों की कम्पनी फलैक्स के कार्यालय में लिपिक के पद पर कार्य किया। श्री कुशवाहा ने अपने लेखकीय जीवन में आर्यसमाज एवं वैदिक धर्म के सिद्धान्तों पर सैकड़ों लेख लिखे तथा प्रतिपक्षियों के आक्षेपात्मक विचारों का सप्रमाण उत्तर दिया। कुशवाहा जी ने अपने कानपुर निवास काल में दयानन्द शोध संस्थान की स्थापना की थी जिसके अन्तर्गत रुद्र-ग्रन्थमाला के अन्तर्गत उनके कई ग्रन्थ छपे। जयदेव ब्रदर्स, बड़ोदा ने भी उनके कई ग्रन्थ प्रकाशित किये। आचार्य कुशवाहा जी ने गुरुकुल गौतमनगर में रहते हुए वहां के ब्रह्मचारियों को अध्यापन भी कराया।
आचार्य शिवपूजनसिंह कुशवाहा जी ने बड़ी संख्या में छोटे बड़े ग्रन्थ लिखे हैं। उनके लिखे व प्रकाशित ग्रन्थ हैं, 1- ऋग्वेद के दशम मण्डल पर पाश्चात्य विद्वानों का कुठाराघात (2007 विक्रमी), 2- सामवेद का स्वरूप (2012 वि.), 3- अथर्ववेद की प्राचीनता (2006 वि.), 4- महर्षि दयानन्द कृत वेदभाष्यानुशीलन (2007 वि.), 5-गायत्री माहात्मय (2014 वि.), 6- वैदिक शासन पद्धति (2010 वि.), 7- क्या वेदों में मांसाहार का विधान है?, 8- नीर क्षीर विवेक (2018 वि.), 9- वैदिक सिद्धान्त मार्तण्ड (2020 वि.), 10- आर्यसमाज में मूर्तिपूजाध्वान्त निवारण (2007 वि.), 11- शिवलिंगपूजा पर्यालोचन (1960), 12- अष्टादश पुराण परिशीलन (1961 ई.), 13- नारद पुराण का आलोचनात्मक अध्ययन (2028 वि.), 14- मार्कण्डेय पुराण : एक समीक्षा (2029 वि.), 15- वामनावतार की कल्पना (2007 वि.), 16- सत्यार्थप्रकाश भाष्य (तृतीय समुल्लास) (1955 ई.), 17- महर्षि दयानन्द की दृष्टि में ‘यज्ञ’ (2010 वि.), 18- आर्यसमाज के द्वितीय नियम की व्याख्या (2006 वि.), 19- भारतीय इतिहास और वेद (2007 वि.), 20- वैदिक काल में तोप और बन्दूक, 21- पाश्चात्यों की दृष्टि में वेद ईश्वरीय ज्ञान (2011 वि.), 22- वैदिक देवता रहस्य, 23- ‘वैदिक एज’ पर समीक्षात्मक दृष्टि (1958 ई.), 24- उपनिषदों की उत्कृष्टता (2010 वि.), 25- भारतीय इतिहास की रूपरेखा पर एक समीक्षात्मक दृष्टि, 26- बाइबिल में चर्चित बर्बरता तथा अश्लीलता का दिग्दर्शन (2011 वि.), 27- ईसाई दम्भ का प्रत्युत्तर (2011 वि.), 28- आर्य दयानन्द सरस्वती और मसीही मत का पर्यालोचन, 29- पाश्चात्यों की दृष्टि में इस्लामीमत प्रवर्तक (2012 वि.), 30- इस्लाम के स्वर्ग और नरक पर महर्षि दयानन्द की आलोचना का प्रभाव (1963), 31- आर्यों का आदि जन्म स्थान निर्णय (1969 ई.), 32- महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज को समझने में पौराणिकों का भ्रम (1960 ई.), 33- क्या वेद में मृतक श्राद्ध है?, 34- श्री सत्य साईं बाबा का कच्चा चिट्ठा (1977 ई.), 35- कुशवाहा क्षत्रियोत्पत्ति मीमांसा, 36- राठौर कुलोत्पत्ति मीमांसा, 37- जादू-विद्या रहस्य, 38- शतपथ ब्राह्मण का भ्रष्ट भाष्य (1979 ई), 39- इन्द्र अहल्या उपाख्यान का वास्तविक स्वरूप और महर्षि दयानन्द (1983 ई.), 40- आचार्य महीधर और स्वामी दयानन्द के यजुर्वेद माध्यन्दिन भाष्य का तुलनात्मक अध्ययन का आलोचनात्मक अध्ययन, 41- गायत्री मीमांसा (1987 ई.), 42- सती दाह : एक लोमहर्षक प्रथा? (1987 ई.), 43- हनुमान का वास्तविक रूप (1986), 44- मनोवैज्ञानिक जादू विद्या के चमत्कार (1990 ई.), 45- पद्मपुराण का आलोचनात्मक अध्ययन (1990) आदि।
दिनांक 21 जनवरी 2017 की सायं को हमारी गुरुकुल पौंधा के आचार्य डा. धनंजय जी से इस विषय में बातचीत हुई। उनके पास श्री शिवपूजनसिंह कुशवाहा जी की अनेक पुस्तकें हैं। आपने बताया कि जीवन के अन्तिम समय में आप गुरुकुल गौतमनगर दिल्ली में रहते थे। वहीं उनकी मृत्यु हुई। आपके अनुसार कुशवाहा जी का अपने परिवार के प्रति राग नहीं था इसलिए वह उन्हें मृत्यु की सूचना देना भी नहीं चाहते थे। हमारा अनुमान है कि इस आर्य विद्वान की मृत्यु सन् 2000 व उसके बाद कभी हुई है। गुरुकुल गौतम नगर, दिल्ली के संचालक आचार्य स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी आजकल मारीशस यात्रा पर हैं। उनके भारत आकर गुरुकुल पौंधा देहरादून आने वा अन्यत्र कहीं भेंट होने पर हमें उनसे कुशवाहा जी के परिवार व जीवन विषयक कुछ अन्य महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है। मृत्यु का वर्ष व तिथि तथा रोग आदि के बारे में तो जानकारी मिलेगी ही। हम उस जानकारी से अपने मित्रों व पाठकों को यथासमय अवगत करायेंगे।
आज हमें प्रयास करने पर भी श्री शिवपूजनसिंह कुशवाहा जी का कोई चित्र नहीं मिल सका। किसी भी ग्रन्थ में उनका चित्र उपलब्ध न होना भी दुःखद है। उनकी मृत्यु के बाद व उससे पूर्व किसी आर्य लेखक ने उनके जीवन का जीवन वृतान्त संग्रहित कर प्रकाशित नहीं किया है। उनके जीवन काल में उनके जीवन की प्रमुख घटनाये तो उनसे पूछीं ही जा सकती थीं। अन्त में हम आर्यसमाज के कर्णधारों से विनती करेंगे कि पं. शिवपूजनसिंह जी के संक्षिप्त जीवन परिचय सहित उनके ग्रन्थों की एक ग्रन्थमाला प्रकाशित करा दें जिससे वर्तमान एवं भावी सन्ततियां लाभान्वित हो सकें। यदि प्रकाशन सम्भव न हो तो उनकी पुस्तकों को डिजीटल कर उसे नैट के माध्यम से देश व संसार को उपलब्ध करा दें, यह एक पुण्य कर्म होगा। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शंम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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