ऋतू सोढीपिछले कुछ दिनों से #मीटू कैंपेन ने देश में सदियों से चली परंपरा को बदल कर रख दिया है। इसके तहत देश की महिलाओं ने आगे आकर अपने साथ हो रहे यौन उत्पीड़न और छेड़छाड़ के विरोध में अपने बयान भी दिए हैं और बिना डरे अपनी बात कहने की हिम्मत भी दिखाई है। #मीटू कैंपेन द्वारा पूरे देश ही नहीं बल्कि विश्व की महिलाओं ने अपने साथ समय समय पर हुए यौन अत्याचारों की मार्मिक कहानियां सबसे साझा की हैं। #मीटू कैंपेन देश की महिलाओं की सही मायनों में आजादी का प्रतीक बन गया है।
कई पुरुष सहकर्मी व पारिवारिक सदस्य महिलाओं की चुप्पी का फायदा उठाकर महिलाओं से आपत्तिजनक व्यवहार और अभद्र भाषा में बात करते हुए देखे जाते हैं। लेकिन पकड़े जाने पर वह आसानी से इसे मजाक का रूप दे देते हैं ताकि उन पर कोई इल्जाम न लग सके। ऑफिसों तथा घरों में इस तरह की वारदातें आम हो गई हैं। सभी महिलाओं को कभी न कभी इस तरह की छेड़खानी का सामना करना पड़ा है। पारिवारिक मित्र हों या आपके साथ काम करने वाले, भाषा की सीमा तय नहीं की जा सकती है व इसे साबित करना बहुत ही मुश्किल है। कोई भी पुरुष अकेले में ही आपत्तिजनक बात कहता है। कभी भी सार्वजनिक स्थल पर महिला से इस प्रकार की बात करने की हिम्मत पुरुष अक्सर नहीं करते हैं। अकेले में हुई छेड़छाड़ का सबूत दे पाना किसी भी महिला के लिए बहुत मुश्किल होता है। इसी प्रकार सार्वजनिक स्थलों पर, बस या ट्रेनों में अक्सर पुरुष महिलाओं को गलत तरीके से छूते हैं या अभद्र टिप्पणियां करते हैं और उस समय साथ चलने वाले बहुत से लोग इसे अनदेखा कर देते हैं ताकि ऐसी कोई भी वारदात लड़ाई झगड़े का रूप ना ले ले।
बरसों से हम अपनी बहनों बेटियों को यह सिखाते आ रहे हैं यदि कोई भी छेड़छाड़ करें तो मुंह बंद करके वहां से चले जाओ। आज शायद वो स्थिति विस्फोटक रूप में हमारे सामने आ गई है जब 5 साल की बच्चियां ही नहीं बल्कि एक एक महीने की बच्चियों तक को अपराधी छोड़ नहीं रहे हैं।
बुजुर्ग स्त्री हो या छोटी बच्ची, औरत को सिर्फ एक सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह इस्तेमाल करना पुरुषों की आदत बन चुकी है। चाहे महिला सहकर्मी कितनी भी पढ़ी लिखी व इंटेलीजेंट हो उसकी बुद्धि की तरफ ध्यान किसी भी पुरुष का नहीं जाता है बल्कि अक्सर उसके शरीर को ही तोला मोला जाता है। वह किस से बात करती है, कब हंसती है, कब बोलती है, उसकी हर चीज पर टिप्पणी करना, उसको बदनाम करना पुरुषों को आम बात लगती है। यह सब कानूनी दायरे में आता है। यहां तक कि वर्कप्लेस 2013 के अनुसार किसी भी महिला को घूर कर देखना भी अपराध है। लेकिन समस्या तब आती है जब उसी महिला से इस चीज के लिए सबूत मांगे जाते हैं। कई बार कारण यह भी हो सकता है कि कुछ महिलाएं इन कानूनों का दुरुपयोग कर पुरुषों पर झूठे आरोप लगाती हैं जिसकी वजह से सच बोलने वाली महिला को भी लोग उसी दृष्टि से देखते हैं। मैंने मनोविज्ञान विषय लेकर पढ़ाई भी की है और अक्सर देखा है कि पुरुष वर्ग बहुत ही चालाकी से इस प्रकार की किसी भी घटना को अंजाम देते हैं। वे चाहे कितने भी पढ़े लिखे हों या किसी भी पोस्ट पर हों, महिलाओं से छेड़छाड़ करने को वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। कोई भी शिकायत करने वाली महिला यदि सामने आती भी है तो उसका आर्थिक व मानसिक शोषण इस प्रकार किया जाता है ताकि वह औरत कभी भी सत्य बोल ना सके और टूट जाए। महिलाओं को अधिकतर कार्यालय में शिकायत करने पर हर तरीके से प्रताड़ित किया जाता है। यदि उस महिला ने घर में किसी पुरुष की शिकायत की है तो समाज व परिवार उसी महिला को शक के दायरे से देखता है तथा उसी पर इल्जाम लगा देता है कि तुम ही इस तरीके की हरकतें कर रही होगी तभी उस पुरुष को ऐसा करने का मौका मिला।
कुछ केसेज़ में महिलाओं द्वारा साधी गई चुप्पी ने पुरुषों के हौसलों को बढ़ाया है जबकि कभी-कभी यह भी देखा जाता है कि यदि कोई महिला लगातार शिकायत कर रही हो और यदि तीन चार पुरुषों की शिकायत कर चुकी हो, तो उस पर यह भी इल्जाम लगा दिया जाता है कि आखिर उसी के साथ ऐसा क्यों हो रहा है जबकि अन्य महिलाएं भी तो काम कर ही रही हैं।
यहां मेरा मानना यह है कि जरूरी नहीं है कि वह पुरुष सब के साथ ही इस प्रकार की हरकत कर रहा हो। कभी-कभी पुरुष अपने पर कंट्रोल नहीं रख पाते हैं और किसी महिला के साथ छेड़खानी कर बैठते हैं जबकि कई पुरुषों की आम आदत हो जाती है कि वह हर महिला को ही छेड़छाड़ का पात्र समझ लेते हैं। क्योंकि पूर्व में उन्होंने जिन महिलाओं से छेड़छाड़ की होती है वह महिला अगर चुप रहती है तो वह सभी महिलाओं के साथ ऐसे ही छेड़छाड़ करने को अपनी आदत बना लेते हैं। कुछ जगह यह तय कर पाना बहुत ही मुश्किल होता है कि कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ।
#मीटू कैंपेन सिर्फ महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचारों को समाज के सामने ला रहा है। कई बार हो सकता है कि टीवी पर किसी सीरियल में धार्मिक पात्र का अभिनय करने वाला अभिनेता निजी जिंदगी में शायद उतना अच्छा नहीं हो। परंतु हम अपने दिमाग में उसी पात्र की छवि कैद करके रखते हैं। आजकल तो देखा जा ही रहा है कि जो गुरु बनकर आश्रम चला रहे हैं या अपने आप को समाज के सामने बहुत बड़ा साधु महात्मा प्रस्तुत करते हैं असल में वही धर्म की आड़ लेकर महिलाओं के साथ आपत्तिजनक हरकतें करते हैं। ऐसे में समाज को अपनी धारणा तोड़नी चाहिए कि जो पुरुष बहुत ही सभ्य दिख रहा है उसे यह ना समझ लें कि वो ऐसा कर ही नहीं सकता है।
हर इंसान के दो चेहरे होते हैं और स्पष्ट रूप से वह कभी भी सार्वजनिक स्थल पर ऐसी हरकत नहीं करेंगेजिसे साबित किया जा सके। सिर्फ धारणा के आधार पर यह कह पाना बहुत मुश्किल है कि कौन सा पुरुष ऐसा कर सकता है और कौन सा नहीं। हमें की जाने वाली शिकायत को तथ्यों और महिला की शिकायत के प्रकार को समझकर अच्छी तरह जांच पड़ताल करके ही तय करना चाहिए कि शिकायत सही थी या गलत।
कभी भी मात्र धारणा के आधार पर इस तरीके के केस को सुलझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, नहीं तो कोई भी पुरुष अपनी छवि का फ़ायदा उठाकर बच निकल सकता है और कोई भी महिला कभी गलत आरोप भी लगा सकती है। हमें दोनों ही पहलुओं पर अच्छी तरह सोच-विचार कर ही निर्णय देना चाहिए। निर्णय चाहे कानून की तरफ से हो या समाज की तरफ से, हमेशा बिना मानसिक धारणा बनाए ही अंतिम फैसला दिया जाना ही सही मायनों में ठीक रहता है।
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