GMCH STORIES

“जीवात्मा का जन्म-मरण उसके कर्मों व ईश्वर के अधीन है”

( Read 18022 Times)

09 Sep 20
Share |
Print This Page
“जीवात्मा का जन्म-मरण उसके कर्मों व ईश्वर के अधीन है”

हम मनुष्य शरीरधारी होने के कारण मनुष्य कहलाते हैं। हमारे भीतर जो जीवात्मा है वह सब प्राणियों में एक समान है। प्राणियों में भेद जीवात्माओं के पूर्वजन्मों के कर्मों के भेद के कारण होता है। हमें जो जन्म मिलता है वह हमारे पूर्वजन्म के कर्मों के आधार पर परमात्मा से मिलता है। यदि हमने पूर्वजन्म में शुभ कर्म अधिक और अशुभ कर्म कम किये होते हैं तो उसी के अनुसार हमें सुख व दुःखों से युक्त मनुष्य जन्म मिलता है। पुण्य कर्म अधिक होने पर सुख भी उसी मात्रा में प्राप्त होते हैं और यदि पुण्य कर्म कम मात्रा में होते हैं तो सुख भी उसी अनुपात में कम हो जाते हैं। यदि हम चाहते हैं कि हमें हमने भविष्य के उत्तर काल तथा परजन्मों में दुःख न हों अथवा न्यून हों तो हमें अधर्म, पाप व अशुभ कर्मों का सेवन नहीं करना चाहिये। एक कहावत है कि ‘जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे।’ यह सिद्धान्त हमारे सुख व दुःख तथा जन्मों पर प्रभाव डालता है। कर्म फल सिद्धान्त पर आधारित एक प्रसिद्ध श्लोक के शब्द हैं ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं’। इसका अर्थ है कि मनुष्य को अपने किये हुए शुभ व अशुभ कर्मों के फल अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। संसार में भी हम देखते हैं कि जो मनुष्य शुभ कर्म करते हैं उनका सम्मान होता व उन्हें यश मिलता है तथा निन्दित कर्म करने वालों को अपमान का दुःख झेलना पड़ता है और राजव्यवस्था से भी उन्हें दण्ड प्राप्त होता है।

                हमारा जन्म इस लिये हुआ है कि हम अपने पूर्वजन्मों के उन कर्मों का फल भोग सकें जिनका फल हम पूर्वजन्म व जन्मों में फल भोग से पूर्व मृत्यु के आ जाने से नहीं भोग सके थे। कर्मों व जन्म-मरण का क्रम अनादि काल से चला आ रहा है। ईश्वर, जीव व सृष्टि का कारण प्रकृति अनादि सत्तायें हैं। इस कारण अनादि काल से ही प्रकृति से सृष्टि की रचना, सृष्टि व प्राणियों का पालन परमात्मा करते आ रहे हैं। सृष्टि रचना व पालन का प्रयोजन जीवों के कर्म व उनके फलों की व्यवस्था करना होता है जो परमात्मा अनादि काल से अद्यावधि करता आ रहा है और भविष्य में अनन्त काल तक इसी प्रकार करता रहेगा। इस कर्म फल व्यवस्था सहित ईश्वर, जीव व प्रकृति विषयक सिद्धान्तों का ज्ञान ईश्वरीय ज्ञान वेद से होता है जो वह सृष्टि की आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न आदि ऋषियों को प्रदान करता है। यह वेद ज्ञान ही मनुष्यों को सद्कर्मों में युक्त होने की प्रेरणा करता है और बताता है कि सद्कर्मों के सेवन से मनुष्य कल्याण को प्राप्त होता है। सद्ज्ञान व सद्कर्मों से ही मनुष्यों को जन्म व मरण से मुक्ति मिलती है। मुक्ति में मनुष्य ईश्वर के सान्निध्य में रहकर आनन्दस्वरूप परमात्मा के आनन्द को भोगता है। जीवात्मा मुक्ति में इस अखिल ब्रह्माण्ड का भ्रमण कर इसे देखता तथा अन्य मुक्त जीवों से मिलता व उनसे वार्तालाप करता है। मुक्त जीवात्मा को किंचित किसी प्रकार का दुःख नहीं होता। इसका कारण यह है कि मनुष्य को दुःख शरीर के आश्रय से मिलते हैं। मुक्त अवस्था में शरीर छूट जाने व जन्म व मरण के न होने से जीवात्मा को सुख व दुःख नहीं होता। वह ईश्वर के आनन्द को उसका सान्निध्य व संगति को प्राप्त कर भोगता है और परमात्मा मुक्त आत्माओं को सुखों की उत्तम अवस्था ‘आनन्द’ प्रदान करते हैं।

                सभी जीवों का लक्ष्य जन्म व मरण से छूटना व मुक्ति को प्राप्त होना होता है। सभी मनुष्यों को ज्ञान प्राप्ति के लिये वेदों का अध्ययन करना आवश्यक व अनिवार्य है। यदि मनुष्य वेदाध्ययन नहीं करेंगे तो वह सद्ज्ञान व सद्कर्मों को प्राप्त नहीं हो सकते और न ही अपने परजन्म को उन्नत करने सहित जीवनमुक्ति की अवस्था व मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। वेद एवं वैदिक साहित्य सत्य ज्ञान के ग्रन्थ हैं। इनका अध्ययन करने से मनुष्य की आत्मा की अविद्या दूर हो जाती है और आत्मा में सद्ज्ञान वा विद्या का प्रकाश हो जाता है जिससे उसे कर्तव्य व अकर्तव्यों का बोध हो जाता है। वर्तमान समय में लोग वेदाध्ययन न कर अर्थ वा धन कमाने वाली विद्या को प्राप्त कर जीवन भर भौतिक सुखों में ही बिताने का प्रयत्न करते हैं। मत-मतान्तरों में योगाभ्यास, ध्यान व समाधि का ज्ञान न होने के कारण वह ईश्वरोपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र, परमार्थ के कार्यों आदि से वंचित रह जाते हैं जिसका परिणाम उनके पाप-पुण्य कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म का होना निश्चित होता है जो कि मनुष्य सहित पशु, पक्षियों व कीट व पतंग आदि सहस्रों प्राणियों में से किसी एक योनि में होना सम्भव होता है। जब तक मनुष्य अपने जन्म में पूर्व व बाद के किये अशुभ व अधर्म के कर्मों का भोग नहीं कर लेता तब तक वह मनुष्य सहित इतर निम्न प्राणी योनियों में भटकता हुआ दुःख पाता रहता है। कर्म का भोग कर लेने पर जब उसके पाप पुण्य समान व पुण्य अधिक बच जाते हैं तो जीवात्मा का पुनः मनुष्य योनि में जन्म होता है। मनुष्य योनि ही दुःख निवृत्ति वा मोक्ष का द्वार होता है। यदि मनुष्य वेदाध्ययन कर पुण्य कर्मों का संचय कर लेता है तो वह श्रेष्ठ व उत्तम कर्मों को करके भविष्य में भी मनुष्य जन्म का अधिकारी होता है। योगाभ्यास द्वारा ध्यान व समाधि का सेवन करने वाले उपासकों को ईश्वर का साक्षात्कार होने पर जीवन मुक्ति की अवस्था प्राप्त होती है। ईश्वर साक्षात्कार और जीवनमुक्ति एक ही जन्म में प्राप्त न होकर इसमें साधक के पुरुषार्थ के अनुसार समय लगता है। समाधि अवस्था मिलने पर ही ईश्वर का साक्षात्कार साधक जीवात्मा को होता है जिससे उसकी मुक्ति होने पर वह जन्म व मरण के बन्धनों से छूट कर ब्रह्म वा ब्रह्म लोक में निवास करता है। ब्रह्म वा ईश्वर सर्वव्यापक है अतः जीव भी सर्वव्यापक ब्रह्म में सर्वत्र विचरण करता है। यही जीवात्मा का परम पद होता है। इसकी प्राप्ति के लिये ही सब मनुष्यों को प्रयत्न करने चाहियें। इसी कारण से परमात्मा ने यह संसार रचा है और वह सब जीवों को समान रूप से उनकी कर्मों की अवस्था के अनुसार अवसर देता रहता है।

                पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद देश में वेद ज्ञान विलुप्त होता गया। वेद ज्ञान के विलुप्त होने पर संसार में अविद्या फैल गई जिससे उन्हें वेद के विधानों व कर्तव्यों का ठीक ठीक ज्ञान न रहा। अविद्या का निरन्तर विस्तार होता गया और ऋषि दयानन्द के जन्म के समय भी देश देशान्तर में अविद्या विद्यमान थी। ऋषि दयानन्द कुशाग्र बुद्धि लेकर उत्पन्न हुए थे। उन्होंने प्रचलित धार्मिक मान्यताओं की सत्यता की परीक्षा की थी। उनको बोध हुआ था कि मूर्तिपूजा ईश्वर के सत्यस्वरूप की यथार्थ व वेदविहित उपासना नहीं है। उनका समाधान न होने पर वह गृहत्याग कर देश के विभिन्न भागों में धर्मपालन में विरत विद्वानों व योगियों की शरण में गये थे और उनसे अपनी शंकाआंे का समाधान करने का निवेदन किया था। वह ईश्वर व संसार विषयक सत्य रहस्यों को जानने के अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहे। इस प्रयत्न में वह सच्चे योगी बने और बाद में मथुरा में दण्डी स्वामी प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द सरस्वती जी की तीन वर्ष की शिक्षा व अध्ययन से वह वेदांगों व वेदों के पण्डित बने। योग व वेद विद्या से वह ईश्वर व उसके सत्य ज्ञान वेदों को प्राप्त हुए थे। अपने गुरु की प्रेरणा से व अपनी विवेक शक्ति से उन्होंने अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि हेतु वेद प्रचार को अपने जीवन का मिशन बनाया था। इस मार्ग पर बढ़ते हुए उन्होंने ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप सहित वेदों के यथार्थस्वरूप व सत्य वेदार्थों का प्रचार किया। उन्होंने काशी के पण्डितों से 16 नवम्बर, सन् 1869 को शास्त्रार्थ कर मूर्तिपूजा को वेद विरुद्ध सिद्ध किया था जिसे करने से कोई पुण्य नहीं होता। मूर्तिपूजा को उन्होंने ईश्वर की प्राप्ति में साधक नहीं अपितु बाधक बताया। देश व समाज की भलाई के लिये उन्होंने वेदों का प्रचार किया, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, वेदभाष्य, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थ लेखन व प्रचार के कार्य किये। विधर्मियों से शास्त्रार्थ किये। सभी मनुष्यों को मत-मतान्तरों की अविद्या से परिचित कराया और वेद में सब प्रकार का सत्य ज्ञान होने तथा मनुष्य की सभी शंकाओं का समाधान प्राप्त होने का भी प्रचार व प्रकाश किया।

                सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में ऋषि दयानन्द ने मनुष्य के जन्म का कारण उसके पूर्वजन्मों के कर्मों को माना है व उसका प्रकाश किया है। यह सिद्धान्त वेदसम्मत होने सहित ऋषियों का सिद्धान्त है। विद्या को प्राप्त होकर व उसके अनुरूप सद्कर्मों को करके ही हम दुःखों व जन्म-मृत्यु के बन्धनों से मुक्त हो सकते हैं। मोक्ष प्राप्ति भी वेद विद्या व उसके आचरण से ही होती है। इन विषयों पर ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में भी विस्तार से युक्तियुक्त प्रकाश डाला है। सभी मनुष्यों को मनुष्य जन्म की सफलता व जीवन के अनेक रहस्यों से परिचित होने के लिये वेदों की कुंजी रूप सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। इसका अध्ययन कर वह अविद्या से मुक्त होकर वेद से जुड़ेंगे और सत्कर्मों व वेदाध्ययन को करते हुए अपने बन्धनों को दूर कर मुक्ति मार्ग के पथिक बनकर जन्म-जन्मान्तर में उसे प्राप्त कर जीवात्मा के वास्तविक धाम मोक्ष धाम को प्राप्त हो सकते हैं। हमें यह पता होना चाहिये कि हमारा जन्म व मरण ईश्वर के अधीन है जिसका आधार धर्म व अधर्म का सेवन व पाप-पुण्य कर्म होते हैं। इसी के आधार पर परमात्मा हमारा जन्म निश्चित कर उसे जन्म प्रदान करते हंै और पाप पुण्यों के आधार पर ही हमें जन्म जन्मान्तर में सुख व दुःख प्राप्त होते हैं। ईश्वर व वेद की शरण में जाकर ईश्वरोपासना व सद्कमों को करके ही हम मुक्ति को प्राप्त हो सकते हैं। ऐसा हमें वेदाध्ययन एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर विदित होता है। जीवन को सत्य से परिचित कराने के लिये हम ऋषि दयानन्द रचित ‘‘सत्यार्थप्रकाश” का अध्ययन करने का निवेदन करते हैं। इससे जीवन में अनेकानेक लाभ होंगे। आप ईश्वर के सच्चे स्वरूप से भी आसानी से जुड़ जायेंगे। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories :
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like