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गुरू नानक देव की कथाओं का मनोरम मंचन

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05 Aug 19
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गुरू नानक देव की कथाओं का मनोरम मंचन

उदयपुर , संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र की ओर से रविवार शाम हिसार के कलाकारों ने गुरूनानक देवजी के जीवन पर आधारित नाटक ’’सतनाम वाहे गुरू का मंचन किया जिसमें गुरू नानक देवजी के जीवन दर्शन तथा शिक्षाओं का मंचन मोहक, सुरीले और रोचक अंदाज में किया गया।

भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा गुरू नानक देवजी की ५५० वीं जयन्ती प्रकाश वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। इसके अंतर्गत पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र द्वारा उदयपुर के शिल्पग्राम के दर्पण सभागार में हिसार की संस्था अभिनय रंगमंच के कलाकारों ने मनीष जोशी द्वारा निर्देशित नाटक ’’सतनाम वाहे गुरू‘‘ का मंचन किया। नाटक की प्रस्तुति में में ध्वल सादगी और सुरों का संगम उत्कृष्ट ढंग से किया गया। नाटक की परिकल्पना लोक शैली में की गई जिसमें लोग बैठ कर गुरू नानक देव के जीवन की बातों का वर्णन करते हुए उनका स्मरण करते हैं। प्रस्तुति में संगीत जहां मधुर बन सका वहं गायकों ने शबद को सुरीले अंदाज में प्रस्तुत कर दर्शकों को भक्ति रस से सराबोर कर दिया।

इस नाटक का मंचन किस्सागो* शैली यानि दास्तांगो* शैली में किया गया है । किस्सागो* कथा या किस्सा कहने कि सबसे पुरानी शैली है और शेरो शायरी के माध्यम से और बडे ही अनूठे ढंग से किस्सागो किस्सा सुनाते हैं । कहानी का बडा स्वरूप ऐसा जो अपेक्षाकृत लंबे समय तक चले, जिसके कथानक में क* मोड, चरित्रों के टकराव, भावनाओं के उतार-चढाव, मानसिक उद्वेलन और विचारों का संघर्ष हो, वह किस्सा की कोटि में आता है। इसे बात अथवा बतकही के नाम से भी जाना गया है। किस्सा एकल कथानक प्रधान भी हो सकता है और बहुकथानकों का समुच्चय भी।

कभी-कभी प्रधान कथानक के इर्द-गिर्द विविध भाव-भंगिमाओं से भरपूर क* लघु कहानियां लपेट दी जाती हैं। छोटी-छोटी कहानियों को गुंफित कर बडे कथानक का रूप देने और उन्हें किस्सागो* में ढालने की परंपरा दुनिया के प्रायः सभी देशों में, न केवल मौजूद बल्कि लोकप्रिय भी रही है। उनका स्वरूप भी समय और परिस्थतियों के अनुसार अदलता-बदलता रहता था। किस्सागो अपनी योग्यता और कल्पनाशक्ति के दम पर उन्हें और अधिक रोचक तथा स्मरणीय बनाने के लिए आवश्यकतानुसार फेरबदल करता रहता था । बंधे-बंधाए शब्दों में कहें तो किस्सागो* कल्पना के रसात्मक कहन की कला है। जिससे हम सभी का वास्ता पडता रहता है। मां की लोरी के साथ-साथ...जब बालक शब्दों का अर्थ पहचानना शुरू करता है, शायद तभी से। किस्सागो* को लेकर बचपन से शुरू हुआ सम्मोहन ताजिदगी कम नहीं होता। इसमें कल्पना का माधुर्य भरा होता है। ऐसा लालित्य समाहित होता जिसमें आखर बोलने लगते हैं। शब्दों को जुबान मिल जाती है। अर्थ स्वयं मुखर हो उठते हैं। काल्पनिक होने के बावजूद उसका वर्णन इतना प्रामाणिक, रसमय और जीवंत होता है कि श्रोता उसके प्रवाह में बहे चले जाते हैं। लेखन के सन्दर्भ में यह एक विशिष्ट शैली है। जिसमेंकथाकार अपने पाठक के साथ संबोधन की स्थिति में होता है। लिखने के बजाए वह कहानी को कहता है। कथ्य में किस्सागो की रचनात्मकता भी शामिल हो जाती है जिससे रचना में नाद सौंदर्य स्वाभाविक रूप से उतर आता है और उसकी ग्राह्यता बढ जाती है। परिणामतः पाठक-श्रोता को अपेक्षाकृत अधिक आनंद और तृप्ति का अनुभव होता है। लोकपरंपरा में मान्य किस्सागो* ही शास्त्रीयभाषा आख्यान बन जाती है। सतनाम वाहेगुरु में नानक जी के जन्म से लेकर उनकी शिक्षा और अंत में समाधि में लीन होने तक के वर्णन हैं । नाटक में संगीत पक्ष काफी मजबूत है । नानक जी कि यात्राओं का जक्र बडी बखूबी से किया गया है। प्रस्तुति में अतुल लंगाया, मधुर भाटिया, विशाल, अनूप बिश्नोई तेजिन्दर चन्नीस गिल व प्रदीप ने अभिनय किया। संगीत निपुन कपूर का था व प्रकाश व्यवस्था चिराग कालरा की।


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