स्वामी दर्शनानन्द जी का नाम सुनते ही गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर की स्मृति मन में उभरती है। आपने इस महाविद्यालय की सन् 1907 में स्थापना कर इसके माध्यम से उच्चकोटि के विद्वान एवं प्रचारक आर्यसमाज को दिये। गुरुकुल कांगड़ी के समान एक बहुत बड़े परिसर में इस गुरुकुल की स्थापना होकर संचालन हुआ व अब भी हो रहा है। पं. प्रकाशवीर शास्त्री इसी महाविद्यालय से शिक्षित थे और आर्यसमाज के प्रमुख रत्नों में से एक महत्वपूर्ण रत्न थे। स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती जी का जन्म पंजाब प्रान्त के लुधियाना नगर के जगरांव कस्बे में माघ कृष्णा 10 संवत् 1918 विक्रमी को पं. रामप्रताप शर्मा जी के यहां हुआ था। पिता वाणिज्य व्यवसाय करते थे। सन्यास से पूर्व आपका नाम पं. कृपा राम था। वाणिज्य व्यवसाय में कृपाराम जी की रूचि नहीं थी। अतः आप विद्या प्राप्ति के लिये काशी आ गये। काशी में आपने संस्कृत का अध्ययन किया। आपने संस्कृत के छात्रों की सुविधा के लिये एक ‘तिमिरनाशक प्रेस’ की स्थापना कर अनेक संस्कृत ग्रन्थों का प्रकाशन किया और उन्हें छात्रों को उपलब्ध कराया। काशी में प्रवास के दिनों में आपने आर्यसमाज के सम्पर्क में आकर वैदिक सिद्धान्तों को स्वीकार किया था। सन् 1901 में आपने शान्त-स्वामी अनुभवानन्द जी से संन्यास की दीक्षा ली और पं. कृपाराम के स्थान पर स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती नाम धारण किया। स्वामी जी ने ईसाई, मुसलमान, पौराणिक एवं जैन आचार्यों से अनेक शास्त्रार्थ किये। आप वर्षों तक प्रतिदिन एक टै्रक्ट लिखा करते थे। वर्तमान में आपके कुछ टै्रक्टों का एक संकलन ‘दर्शनानन्द ग्रंथ संग्रह’ के नाम से मिलता है। आपने अनेक पत्र भी निकाले। ईश्वर की व्यवस्था में आपका अटूट विश्वास था। एक बार गुरुकुल में भोजन सामग्री उपलब्ध नहीं थी। भोजन का समय हो गया। ईश्वर के सहारे स्वामी जी ने बालकों को भोजन के लिये पंक्तिबद्ध बैठने और भोजन का मन्त्र उच्चारण कराने की प्रेरणा की। इसका पालन किया गया। तभी वहां कुछ लोग बड़ी मात्रा में भोजन लेकर आ पहुंचे। उन्होंने बताया कि उनके यहां एक बारात ने आना था परन्तु किसी कारण वह न आई। उन्होंने भोजन परोसने की अनुमति मांगी जो उन्हें दे दी गई। बच्चों ने भर पेट भोजन किया। यह एक प्रकार का चमत्कार था जिसकी किसी को कल्पना तक नहीं थी।
स्वामी दर्शनानन्द जी ने बड़ी संख्या में ग्रन्थों का प्रणयन किया। इस संक्षिप्त लेख में उनका उल्लेख करना सम्भव नहीं है। बच्चों के लिये आपने एक कथा पच्चीसी लिखी है। यह छोटे व बड़े सभी लोगों के लिये पढ़ने योग्य है। आपने सिकन्दराबाद में सन् 1898, बदायूं में सन् 1903, बिरालसी (जिला मुज्जफरनगर) में सन् 1905, ज्वालापुर में सन् 1907 तथा रावलपिण्डी आदि अनेक स्थानों पर गुरुकुलों की स्थापनायें कीं। स्वामी जी का निधन हाथरस में 11 मई सन् 1913 में हुआ था। स्वामी जी ने चार दर्शनों, 6 उपनिषदों सहित मनुस्मृति व गीता पर भी भाष्य व टीका ग्रन्थ लिखे हैं। आपके उज्जवल चरित्र से प्रभावित होकर ही आर्यसमाज आगे बढ़ा है। आप अपने समय के आर्यसमाज के बहुत बड़े स्तम्भ थे। आपकी पावन स्मृति को सादर नमन।
जिन महनीय व्यक्तियों का परिचय हमने इस लेख में दिया है उन्हीं के पुरुषार्थ से आर्यसमाज अपने आरम्भ काल में फला व फूला है। आर्यसमाज के काम को बढ़ाने में ऋषि दयानन्द सहित उपर्युक्त महापुरुषों का उल्लेखनीय योगदान है। इसके बाद अनेकानेक विद्वान व महापुरुष आर्यसमाज के आन्दोलन से जुड़ते रहे और वेद प्रचार, आर्यसमाजों की स्थापना तथा ग्रन्थ लेखन आदि के माध्यम से अपनी सेवायें देते रहे। स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी तो वैदिक धर्म प्रचार और आर्यसमाज स्थापना यज्ञ की एक प्रकार से प्रमुख प्रेरणा शक्ति थे। इन सभी महापुरुषों ने आर्यसमाज को अपने रक्त से सींचा है। हमारा कर्तव्य हैं कि हम इनके जीवनों से प्रेरणा लें और आर्यसमाज का सघन प्रचार कर धर्म एवं देश की रक्षा में सहायक हों। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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