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कलम के सिपाही प्रेमचंद के जन्मदिवस 31 जुलाई पर विशेष

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31 Jul 25
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कलम के सिपाही प्रेमचंद के जन्मदिवस 31 जुलाई पर विशेष

  *वेदव्यास*

साहित्यपुरुष प्रेमचंद को मैं अपना मित्र, अपना विचार और अपना सरोकार मानता हूं। 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी के पास लमही गांव में जन्में प्रेमचंद आज भी मुझे लगातार इसीलिए प्रासंगिक लग रहे हैं कि हमारा भारत आज भी भूखे-नंगे किसानों तथा मजदूरों, गांवों के सेठ और सामंतों तथा सांप्रदायिक भेद-विभेद और दलित-महिला उत्पीड़न की कहानियों में रात-दिन समता, न्याय और सद्भाव की तलाश कर रहा है।

   इधर प्रेमचंद के सृजन का प्रत्येक शब्द मुझसे आज भी यह सवाल पूछता है कि एक ‘कलम के सिपाही‘ के रूप में तुम किसके साथ हो? आज भी भारतीय साहित्य मनीषा में सूर, कबीर और तुलसी की सभी छवियां प्रेमचंद में दिखाई देती है।

   आधुनिक भारत की वैचारिकी में रवीन्द्रनाथ टैगौर, शरतचंद्र, सुब्रह्यम भारती और विवेकानंद की तरह प्रेमचंद को भी घर-घर में, स्कूली पाठ्यक्रमों में तथा देश-विदेश की तीन पीढ़ियों में आकर्षण और प्रेरणा की तरह पढ़ा जाता है।

   प्रेमचंद की ही यह विशेषता है कि वह जाति-धर्म और भाषा तथा क्षेत्रीयता की सीमाएं और संकीर्णताएं लांघकर नए भारत और स्वतंत्र भारत का सपना देखा करते थे। यही कारण है कि प्रेमचंद का साहित्य हमें आज भी एकता और मानवता का बुनियादी सरोकार समझाता है तथा कहता है कि-भारत की हजारों साल पुरानी पहचान और सामाजिक संस्कृति की आधार शक्ति इसके किसान और मजदूर हैं।

   प्रेमचंद की परंपरा कबीर, नानक, नामदेव, मीराबाई और दादूदयाल, रैदास और तुकाराम की सामाजिक चेतना का ही विस्तार है। यदि आप प्रेमचंद का चर्चित उपन्यास ‘गोदान‘ पढ़ेंगे, तो आप जान सकेंगे कि 21वीं शताब्दी में भी हजारों किसान आज आत्महत्या क्यों कर कर रहे हैं तथा भारत का मजदूर आज भी दुनिया का सबसे सस्ता और मेहनती मजदूर क्यों समझा जाता है?

   यदि आप प्रेमचंद का सुपरिचित लेख-‘ महाजनी सभ्यता‘ को पढ़ लेंगे, तो आपको 20वीं शताब्दी में प्रारंभ (1990) दुनिया की नई अर्थव्यवस्था का चेहरा, चाल और चरित्र समझ में आ जाएगा। आप जान सकेंगे कि निजीकरण, उदारीकरण और भू-मंडलीकरण की, गरीबों के देश भारत में, क्या विनाशकारी भूमिका है। जिस तरह एक महाजन गांव के ठाकुर से मिलकर पूरे गांव के किसान-मजदूरों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी कर्ज के कोल्हू में पीसता था, उसी तरह वर्तमान में विकास और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का यह गठबंधन हमें अपने जल, जंगल और जमीन से वंचित कर रहा है। यहां एक लेखक ही आगत और विगत के बीच सामाजिक चेतना का सेतु बनाता है।

   प्रेमचंद कोई भक्तिधारा और रीतिकालीन विचारों के कथाकार नहीं थे, अपितु नए समाज के निर्माण में प्रगतिशील सोच और विचार के अग्रगामी थे। 9 अप्रेल, 1936 को लखनऊ में देश के पहले और सर्वभाषा साहित्य संगठन ‘प्रगतिशील लेखक संघ‘ की स्थापना के उद्बोधन में प्रेमचंद ने साहित्य, समाज और समय के बीच एक लेखक की भूमिका प्रस्तुत करते हुए कहा था कि-साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं, बल्कि उनके मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।‘

   प्रेमचंद का साहित्यक जीवन 1901 में शुरू हुआ था और वह शिक्षा विभाग की नौकरी करते हुए भी अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के खिलाफ सामाजिक निराशा को अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त कर जन जागरण की भूमिका निभाते थे। प्रारंभ में वह उर्दू कहानियां लिखते थे और ‘सोजेवतन‘ कहानी संग्रह इस प्रारंभ का आधार है। हंस, मर्यादा, माधुरी, जागरण जैसी ऐतिहासिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन तो आज भी हिन्दी साहित्य का प्रतिमान है। यदि आप प्रेमचंद की सैंकड़ों कहानियों-निबंधों के बीच गबन, सेवा सदन, रंग भूमि, निर्मला, मंगल सूत्र जैसी कुछ बानगी ही पढ़ लें, तो आप जान सकेंगे कि ‘भारत की खोज, का क्या महत्व है?

   केवल 56 साल की उम्र में ही 8 अक्टूबर, 1936 को प्रेमचंद का देहांत हुआ था तथा ‘कलम के सिपाही‘ नाम से लिखी इनके पुत्र अमृतराय की पुस्तक (आत्मकथा) हमें अवश्य पढ़नी चाहिए, ताकि यह कहा जा सके कि जो धारा के विरुद्ध चलता है, वही इतिहास बनाता है। आज प्रेमचंद की रचनाओं का देश और दुनिया की हर भाषा में अनुवाद हो चुका है तथा भारत के गांवों और समाज को समझने के लिए उनका लेखन नई पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा है।

  उनकी अनेक कहानियों पर फिल्में भी बनी है तथा उनका साहित्य नए भारत में आज भी सामाजिक-आर्थिक न्याय के लिए जन संघर्ष की आधारशिला है। भारतीय साहित्य में प्रेमचंद को आज भी एक वैचारिक अभियान, आंदोलन और मुहिम का नायक समझा जाता है तथा प्रेमचंद की संपूर्ण चेतना लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की पक्षधर है।

   अतः हमें आज फिर से प्रेमचंद के सृजन सरोकारों को जानकर नए भारत के निर्माण की जन संस्कृति को मजबूत बनाना चाहिए, क्योंकि जब तक भारत में शोषण मुक्त समाज नहीं बनेगा, तब तक प्रेमचंद हमारे मन और विचार की दुनिया में जीवित रहेंगे। ऐसे में, आज लेखक और साहित्यकार के सामाजिक और सांस्कृतिक दायित्व, प्रेमचंद को समझे बिना, अधूरे और अपूर्ण हैं।


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