ईश्वर एक अनादि, अनन्त, नित्य, अजर, अमर तथा अविनाशी सत्ता है। उस ईश्वर ने जीवों को उनके कर्मानुसार कर्म फल देने के लिये ही इस ब्रह्माण्ड की रचना की है। जीवों के कर्मानुसार ही उसने सभी जीवों को नाना प्रकार की प्राणी योनियों में जन्म दिया है। अनादि काल से वह ऐसा करता आ रहा है और अनन्त काल तक ऐसा करता रहेगा। अनादि काल से हम अपने कर्मानुसार जन्म लेते आ रहे हैं और अनन्त काल तक हमारे कर्मों के अनुरूप हमारा जन्म होता रहेगा। ईश्वर सत्य है और न्यायकारी भी है। वह कभी कोई ऐसा कार्य नहीं करता जो सत्य न होकर असत्य हो। न्याय से भी वह कभी डिगता व दूर नहीं होता है। यही कारण है कि वह दुष्कर्मियों को भी उनके कर्मों के उचित फल व दण्ड देता है और इसके साथ धार्मिक भक्तों को जो ईश्वर अध्ययन अध्यापन व भक्ति में अपना अधिकांश समय व्यतीत करते हैं, उनके कर्मों के भी यथायोग्य कर्मफल, सुख-दुःख व दण्ड आदि देता है। वह कर्म फल देते हुए सज्जन व दुष्टों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करता है। एक प्रसिद्ध आप्त वचन है ‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं’। इसका अर्थ है कि जीवात्मा को अपने किये हुए शुभ व अशुभ कर्मों के सुख व दुःख रूपी फल अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। वैदिक धर्म, जिसका प्रचार आर्यसमाज करता है, इससे इतर संसार में जितने मत-मतान्तर हैं, वह प्रायः मानते व प्रचार करते हैं कि उनके मत में जाने पर उन मतों के आचार्यों की सिफारिश से ईश्वर द्वारा अन्य मतों के मनुष्यों के असत् व पाप कर्मों के फल क्षमा कर लिये जाते हैं। वेद प्रमाण, वैदिक साहित्य, तर्क एवं युक्ति के आधार पर यह सिद्धान्त पूर्णतया गलत व असत्य है। ईश्वर ऐसा कभी नहीं कर सकता। यदि करेगा तो उसी क्षण से वह न्यायाधीश नहीं रहेगा। ईश्वर न्यायाधीश तभी तक है जब तक की वह किसी प्रकार का पक्षपात किये बिना न्याय करे अर्थात् सभी मनुष्यों वा जीवों को उनके शुभ व अशुभ कर्मों के यथोचित, न कम न अधिक, सुख व दुःखरूपी फल दे। ऐसा ही ईश्वर करता आ रहा है और हमेशा वह ऐसा ही करेगा।
संसार में हम देखते हैं कि सभी मतों के लोग रूग्ण होते हैं और अपना उपचार योग्य वैद्यों व चिकित्सकों से कराते हैं। रोगों का कारण अधिकांशतः हमारे अशुभ कर्म ही हुआ करते हैं। यदि किसी मत में जाने से व उस पर आस्था रखने से उस मत के अनुयायियों के पाप क्षमा कर लिये जाते हैं, तो ऐ धर्मान्तरित व्यक्तियों को उसके बाद के जीवन में कभी किसी भी प्रकार का दुःख नहीं होना चाहिये। व्यवहार में ऐसा कहीं भी देखने को नहीं मिलता। संसार का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भर पड़ा है कि सभी मतों के महापुरुषों व आचार्यों को अनेक प्रकार के रोग एवं बड़े-बड़े दुःखों से गुजरना पड़ा है। अतः पाप क्षमा होने का सिद्धान्त सर्वथा मिथ्या है। विचार करने पर ज्ञात होता है कि मत-मतान्तरों के आचार्य लोगों को भ्रमित कर अपने मत की संख्या बढ़ाने के लिये यह छल व प्रपंच करते हैं। आज विज्ञान के युग में भी ऐसा किया जाता है। यह आश्चर्य की बात है कि सरकार व कानून ऐसे छलपूर्वक किये जाने वाले कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते। इसके लिये कानून यदि नहीं है, तो सरकार को बनाना चाहिये कि कोई भी मनुष्य व आचार्य ऐसा प्रचार नहीं कर सकता कि उनके मत को मानने पर किसी व्यक्ति के पाप क्षमा कर दिये जायेंगे। पाप कर्मों के फलों की क्षमा का सिद्धान्त अनुचित व असत्य मान्यताओं पर आधारित है। इसके आधार पर अतीत में लोगों से छल किया गया है। आधुनिक काल में यह छल बन्द होना चाहिये।
परमात्मा पाप कर्मों सहित पुण्य कर्मों के फल इस लिये देता है कि पाप करने वाले पाप कर्मों से डरें और अपना सुधार कर दुःखों से दूर होकर सत्य व शुभ कर्मों को करके सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करें और श्रेष्ठ व उत्तम योनियों में जन्म लेकर अपनी उन्नति करते हुए मोक्षगामी बने। यही कारण है कि सृष्टि के आरम्भ से न केवल हमारे ऋषि, मुनि, योगी, विचारक व चिन्तक सत्य धर्म वेद की शिक्षाओं का पालन करते थे अपितु सामान्य जनता भी उनके उपदेशों को सुनकर सत्यपथ का अनुगमन करती थी। आज भी वैदिक धर्मी आर्य प्रतिदिन प्रातः सायं ईश्वर की वैदिक मान्यताओं के अनुसार उपासना करते हैं, यज्ञ हवन करते हैं और माता-पिता-आचार्यों-वृद्धों एवं रोगियों की सेवा करते हुए दान-पुण्य एवं परोपकार के कर्म करते हैं। ऐसा करना ही मनुष्यत्व है। धर्म किसी मत का नाम नहीं है अपितु ईश्वर द्वारा वेदों में निर्धारित स्व व पर हित के कार्यों को करना अर्थात् कर्तव्य पालन करने का नाम धर्म है। धर्म की परिभाषा ही यह है कि मनुष्य को श्रेष्ठ गुणों, कर्मों व स्वभाव को धारण करना है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो वह धार्मिक न होकर अधार्मिक होता है। धर्म का सम्बन्ध आचरण व व्यवहार से है। सत्याचरण ही धर्म और असत्य का आचरण ही अधर्म है। हम धार्मिक तभी होते हैं जब हम वायु, जल व पर्यावरण को शुद्ध रखते हुए ईश्वर के बनाये हुए सभी प्राणियों की रक्षा करते हैं और त्याग व तपस्या का जीवन बिताते हैं। धार्मिक मनुष्य सदैव शुद्ध भोजन करते हैं जिसमें हिंसा से प्राप्त किसी प्रकार का मांस व अभक्ष्य पदार्थ नहीं होता। महाभारत काल तक हमारे देश में पशु हत्या नहीं होती थी जैसी कि आजकल लोगों के मांस खाने के लिये पशु वध-शालाओं में प्रतिदिन की जाती है। यह अत्यन्त अमानवीय एवं अधार्मिक कार्य है। सभी मतों के आचार्यों को वेदाध्ययन कर इस समस्या को मूलरूप में जानकर स्वयं भी मांसाहार का त्याग करना चाहिये और अपने सभी अनुयायियों से भी कराना चाहिये। ऐसा करने से संसार में सुखों की वृद्धि होने की पूरी सम्भावना है।
ईश्वर एवं जीवात्मा दोनों चेतन सत्तायें हैं। चेतन में ज्ञान व कर्म करने की क्षमता होती है। ईश्वर सर्वव्यापक होने से सर्वज्ञ है। जीवात्मा एकदेशी, ससीम एवं इच्छा, द्वेष आदि गुणों के कारण अल्पज्ञ चेतन सत्ता है। ईश्वर सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान होने के कारण ही इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति करता है। जीवात्मा अल्पज्ञ है एवं कर्म करने की अल्प-क्षमता से युक्त है। अतः मनुष्य योनि में जीवात्मा को ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर उसे जानना और उसकी उपासना करते हुए शुभ कर्मों को करना होता है। जीवों के कल्याण के लिये ही ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में वेद ज्ञान दिया था और वेद अध्ययन-अध्यापन व प्रचार की परम्परा आरम्भ हुई थी। मनुष्य योनि की सभी जीवात्माओं का कर्तव्य है कि वह वेदाध्ययन एवं ऋषियों के वेदानुकूल ग्रन्थों के अध्ययन से अपने ज्ञान को बढ़ायें एवं सद्कर्मों को करके जीवात्मा के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करें। अल्पज्ञता, अल्पसामर्थ्य एवं राग व द्वेष आदि के कारण मनुष्य सत्कर्मों को करते हुए असद् कर्म भी कर बैठता है। इसी कारण, शुभकर्मों की वृद्धि एवं पाप कर्मों के क्षय के लिए, ईश्वर का कर्म फल विधान है। जिस प्रकार हम अपने शुभ कर्मों के लिये अच्छे फलों की कामना करते हैं, उसी प्रकार हमसे जो अशुभ कर्म होते हैं उसका दण्ड भी ईश्वर हमें बुरे कर्मों से रोकने और उनका सुधार करने के लिये देता है। यदि ईश्वर अशुभ कर्मों का फल देना बन्द कर दे तो लोग अपने स्वभाव व गुण-कर्मों में सुधार करना ही छोड़ देंगे। ईश्वर सर्वज्ञ एवं न्यायकारी है। वह जीवात्मा का हित चाहता है और बुरे कर्मों का दण्ड देकर जीवात्मा को सुधारने का प्रयत्न करता है। यह ईश्वर का सनातन एवं शाश्वत् कर्म एवं स्वभाव है। अतः सिद्धान्त है कि ईश्वर किसी के पाप कर्मों को कदापि क्षमा नहीं करता है। सभी मतों को इस सिद्धान्त को स्वीकार करना चाहिये।
संसार में ईश्वर एक है। वह अपने सभी काम स्वतन्त्रतापूर्वक करता है। उसमें वह किसी मनुष्य व जीवात्मा की सहायता नहीं लेता। अतः उसके लिये सभी आचार्य व सामान्यजन कर्म-फल सिद्धान्त की दृष्टि से एक समान हैं। वह कर्मों का फल देने में किसी के साथ रियायत व पक्षपात नहीं करता। सभी मतों के अनुयायियों को अपने आचार्यों के इस विषयक मिथ्या प्रचार से बचना चाहिये। उन्हें परमात्मा प्रदत्त अपनी बुद्धि व विवेक सहित अपने ज्ञान व स्वाध्याय के आधार पर निर्णय करना चाहिये। इससे वह इस निर्णय पर पहुंचेंगे कि ईश्वर किसी सज्जन व धार्मिक व्यक्ति को भी उनके अशुभ कर्मों का दण्ड देने में संकोच नहीं करता अर्थात् उनके कर्मों के अनुसार पूरा-पूरा दण्ड देता है। यही कारण है कि हम सभी मतों के आचार्यों को सुख व दुःख से युक्त जीवन व्यतीत करते हुए देखते हैं। क्या कोई ऐसा आचार्य हुआ है जिसको ईश्वर की व्यवस्था से दुःख प्राप्त न हुए हो और वर्तमान में भी क्या कोई आचार्य ईश्वर कर्म-फल व्यवस्था एवं अशुभ कर्मों के दण्ड रोग व कष्टों से बचा हुआ है? ऐसा नहीं है, अतः ईश्वर की व्यवस्था एवं सिद्धान्त संसार के सभी लोगों पर समान रूप से लागू हो रहे हैं। हम यदि दुःखों से बचना चाहते हैं तो हमें पाप व अशुभ कर्मों का सर्वथा त्याग करना होगा और सुख प्राप्ति के लिये सद्कर्मों को करना होगा। यही एक मात्र उपाय दुःखों से बचने का है।
ईश्वर हम सबका माता-पिता, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। हमें उसकी प्रसन्नता अर्थात् उसके वेद निर्दिष्ट कर्मों को जानकर उन्हें ही करना है। इसी से हमें सुख व धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होगी। दुःखों से बचने का इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय वा मार्ग नहीं है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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