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सिमट कर रह गई है फड़ चित्रण-गायन की लोक परंपरा

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16 Mar 20
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सिमट कर रह गई है फड़ चित्रण-गायन की लोक परंपरा

बात पुरानी है जब में बहुत छोटी थी और मेरे पापा मुझे कोटा में हाड़ौती अंचल से आये लोक कलाकारों से मिलने ले गये थे। उनमें कुछ कलाकार (अब बारां जिले) के ढोलम गांव से आये थे और उन्हें भोपा-भोपी कहते थे। वे कपड़े पर चित्रित देव गाथा को फैला कर उसके दोनों किनारे बांध कर चित्रित दीवार बना लेते थे। भोपा-भोपी दीपक जला कर, धूप बत्ती जलाकर उस चित्र कथा को गा कर सुनाते थे और नृत्य (Dance) भी करते थे।भोपा  गायन करते हुए एक छड़ी से चित्र की और संकेत करता था। मुझे आज भी याद है भोपे ने बताया था कि फड़ कपड़े में लिपटी रहती है एवं दोनों तरफ डंडा या बांस बांध देते हैं और जब उसे खोलते हैं तो पूजा कर गायन के बाद ही बंद करते हैं। जैसे- जैसे समय बीतता गया फड़ गायन  और कलाकार कम होते गये और करीब-करीब गायन परंपरा लुप्त प्रायः हो गई है और केवल कपड़े पर फड़ की मूल भावना देव चित्रण ही कुछ जगह किया जाता हैं। जयपुर के अल्बर्ट संग्रहालय (Albert Museum) में इनकी भोपा-भोपी के फड़ गायन की झांकी देखी जा सकती हैं जो राजस्थान की इस समृद्ध लोक परंपरा से आगन्तुकों को परिचय करती हैं। उदयपुर के लोक कला मंडल संग्रहालय में भी फडों का चित्रण प्रदर्शित किया गया है।

         अब जबकि मैं भीलवाड़ा में रहती हूँ तो जिले के शाहपुरा की इस कला पर लिखते समय बीती बातें मुझे याद आ गई। शाहपुरा से जन्मी फड़ चित्रकला ने विश्व स्तर पर पहचान बनाई है। भीलवाड़ा के फड चित्रकार  पद्मश्री स्व.श्रीलाल जोशी एवं लघु चित्रशैली (Portrait style) में शिल्पगुरु का रास्ट्रीय सम्मान प्राप्त चित्रकार बद्रीलाल सोनी के परिवार इस कला को जीवंत बनाये हुए हैं। करीब सात सौ सालों से लोक मांस में रची बसी फड़ चित्रकला परंपरागत विधा है और ग्राम जीवन में आस्था और श्रद्धा का प्रतीक है। कपड़े पर चटकीले रंगों की छँटा देखते ही बनती है। फड़ कथानक चित्र गीत-संगीत एवं कथा-साहित्य की मुकम्मल संस्कृति है। माना जाता है कि शाहपुरा में यहाँ के छीपा चित्रकारों ने फड़ चित्रण के लिए मेवाड़ शैली के अंतर्गत एक विशिष्ट चित्रण शैली का विकास किया जिसे फड़ चित्र शैली के रूप में जाना जाता है। यहाँ के छीपा चित्रकार अपने को जोशी कहते हैं, जिनकी अनेक पीढ़ियाँ यहाँ बीत गयी हैं। राजस्थान का छीपा समुदाय कपड़ा छपाई का कार्य करता है। जोशी फड़ चित्रकार मानते हैं कि वे छीपा समुदाय से हैं परन्तु उनके पूर्वज कपड़ा छपाई नहीं बल्कि चित्रित जन्मकुण्डलियाँ बनाते थे और दीवारों पर चित्रकारी करते थे। उनके एक समूह ने कालांतर में फड़ चित्रांकन आरम्भ किया।आज जितने भी जोशी फड़ painter परिवार कार्यरत हैं वे सभी एक ही कुटुंब के सदस्य हैं। यह जोशी चित्रकार भीलवाड़ा से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित पुर गाँव के निवासी थे। उस समय इस गाँव को पुरमंडल कहते थे। इनके कुछ कुनबेदार आज भी इस गाँव में रहते हैं, इनकी कुलदेवी का स्थान भी यहीं है। वर्ष में एक बार एवं महत्वपूर्ण अवसरों पर अपनी कुलदेवी की पूजा हेतु यह सभी जोशी परिवार यहाँ आते रहते हैं। जोशी चित्रकार (painter) परिवारों में प्रचलित स्मृतियों के अनुसार पुर गाँव में दो जोशी चित्रकार भाई रहते थे, जब  मुग़ल सम्राट शाहजहाँ के समय में राजा सुजान सिंह द्वारा सन् 1639 ईस्वी में शाहपुरा नगर बसाया गया उस समय, पुर गाँव से पाँचाजी जोशी नामक चित्रकार को शाहपुरा बुला लिया गया, तभी से शाहपुरा में फड़ चित्रकारी आरम्भ हुई। 

           कुछ लोग फड़ चित्रों को पटचित्रों से भी जोड़ कर देखते हैं, क्योंकि यह दोनों ही कपड़े की सतह पर चित्रित किये जाते हैं और इनका स्वरुप विवरणात्मक होता है। परन्तु पट, सूती कपड़े की दो सतहों को आपस में चिपका कर बनाया जाता है जबकि फड़ कपड़े की एक सतह से बनाई जाती है। पटचित्र ओडिशा की जगन्नाथ उपासना से सम्बद्ध होते हैं और फड़ चित्र राजस्थान के लोक देवताओं की शौर्य गाथाओं  पर आधारित हैं।  फड़ चित्र किस प्रकार बनना आरम्भ हुए इस सम्बन्ध में अनेक मत प्रचलित हैं। कुछ फड़ चित्रकार मानते हैं कि प्राचीन काल में भोपा गायक राजस्थान में प्रचलित लोकदेवताओं की गाथाएं गा-गाकर सुनाया करते थे। उन्हें लगा की यदि इन कथाओं पर आधारित चित्र बनवाकर गायन के साथ प्रस्तुत किये जाएं तो प्रस्तुति अधिक प्रभावशाली बन जाएगी  और यजमानों से अधिक धन  मिलेगा। अतः उन्होंने  फड़ चित्रकारों के पूर्वजों से इन लोक कथाओं पर आधारित चित्र बनाने का आग्रह किया और इस प्रकार फड़ चित्र बनना आरम्भ हुए।  

 देवनारायण की फड़

देवनारायण, राजस्थान के पूज्यनीय लोक देवता हैं जिन्हें विष्णु का अवतार माना जाता है। ऐतिहासिक रूप से उनके जीवन काल के सम्बन्ध में मतभेद है। कुछ विद्वान उनका जीवन काल विक्रम संवत् 1300 से 1400 के मध्य मानते हैं। फड़ चित्रों की दृष्टि से यह सबसे प्राचीन फड़ है तथा इसकी माप भी सबसे बड़ी  होती है। इसकी लम्बाई  20 हाथ से 25 हाथ  तक होती है। इसमें देवनारायण (बगड़ावत) की कथा का  चित्रांकन किया  जाता है। इस फड़ की प्रस्तुति दो भोपा, जंतर वाद्य बजाते हुए करते हैं। यह भोपे गूजर, राजपूत तथा बलाई जाति के होते हैं। इस फड़ के यजमान गुज्जर समुदाय के लोग होते हैं।

 पाबूजी की फड़

       यह फड़, राजस्थान की सर्वाधिक लोकप्रिय फड़ है। इसकी लंबाई 15 से 20 हाथ तक होती है। इसमें मारवाड़ के कोलू गांव में जन्मे पाबूजी की जीवनगाथा को चित्रित किया जाता है। लक्ष्मण का अवतार माने जाने वाले पाबूजी का जीवन काल विक्रम संवत् 1313 से 1337 का माना जाता है। इन्हें रेबारी अथवा राइका ऊँट पालक समुदाय के लोग पूजते हैं। माना जाता है कि राजस्थान में सर्वप्रथम ऊँट लाने का श्रेय पाबूजी को ही है। इस फड़ की प्रस्तुति भोपा एवं भोपी द्वारा रावणहत्था वाद्य बजाते हुए की जाती है।

 गोगाजी की फड़

       गोगाजी जिन्हें जाहर वीर गोगा भी कहा जाता है राजस्थान के लोकप्रिय लोक देवता हैं, इन्हें  पीर के रूप में पूजा जाता है। इन्हे सर्पों का देव भी कहा जाता है क्योंकि ये सर्प दंश से रक्षा करते हैं। विश्वास किया जाता है कि इनका जन्म गुरु गोरखनाथ के आशिर्वाद से नवीं शताब्दी में हुआ था। इन्हें गायों की सेवा और रक्षा के लिए माना जाता है। राजस्थान एवं गुजरात में रेबारी समुदाय में इनकी बहुत मान्यता है।

 रामदेव की फड़

       कहते हैं कि रामदेव की फड़ का प्रचलन पाबूजी की फड़ के बाद हुआ और यह पहले हाड़ौती क्षेत्र में प्रचलित हुई, वहाँ से यह मेवाड़ और मारवाड़ तक फैल गयी। रामदेव, राजस्थान के एक महत्वपूर्ण लोक देवता हैं जिन्हें विष्णु का अवतार माना जाता है। इनका जीवनकाल सन् 1352 से 1385 तक माना जाता है। इनकी मान्यता यहाँ के मेघवाल समुदाय में बहुत अधिक है। यह फड़ चमार, बलाई, भांभी और ढ़ेड़ जाति के लोग बँचवाते हैं। यह फड़ भोपा-भोपी दोनों मिलकर बाँचते हैं और साथ में रावणहत्था भी बजाते हैं।    

 माताजी की फड़

        इसे भैंसासुर की फड़ भी कहा जाता है। इस फड़ का प्रचलन वागरी समुदाय में है। इस फड़ का वाचन नहीं होता, इसे घर में रखा जाता है। इनके  अतिरिक्त रामदला एवं कृष्णदला की फड़ें भी बनाई जाती हैं। इन दोनों ही फड़ों का प्रचलन अधिक पुराना नहीं हैं।    

         फड़ चित्रों का प्रारूप इस प्रकार निरूपित किया जाता है कि उसे देखकर दर्शक कथा का ठीक से अनुमान नहीं कर सकते। बिना भोपा द्वारा की गई विवेचना के पूर्ण चित्रित कथा को समझना संभव नहीं है। कथानक के चित्रण में इसी बिखराव के कारण भोपा-भोपी को नृत्य अदायगी और भावाभिव्यक्ति का अवसर मिलता है। फड़ चित्रकार मानते हैं कि फड़ के प्रारूप में स्थान विभाजन में घटनाओं के स्थानों को प्राथमिकता दी गयी है। जैसे पाबूजी की फड़ में अजमेर, पुष्कर, कोलूमण्ड, लंका, सोड़ा गाँव आदि स्थानों की एक निश्चित स्थिति होती है और वहाँ घटने वाली घटनाएँ इनके आस-पास चित्रित की जाती हैं। फड़ में इन घटनाओं का स्थान  भोपा आँखें बंद करके भी उन्हें इंगित कर देता है। फड़ में निरूपित चित्रों की प्रस्तुति और प्रतिकृति इस प्रकार संयोजित की जाती है कि सम्पूर्ण फड़  एक रंगमंच का आभास देती है। चित्रों की रेखाएं, आकृतियों की चेष्टाएं, उनका रंग वैशिष्ट्य, उनका बाह्य परिवेश तथा सुसंगत वातावरण सब मिलकर एक नाटकीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं। भोपा-भोपी द्वारा कथा की भावपूर्ण अदायगी और विवेचना दर्शक को समूची घटनाओं का जीवंत आभास करा देती है। परम्परागत रूप से फड़ चित्रण के लिए हाथ से बुना मोटा कपड़ा, जिसे रेज़ा  कहा जाता था, प्रयुक्त किया जाता था। आजकल मिल का बुना पतला सूती कपड़ा, कोसा एवं सिल्क का कपड़ा भी प्रयोग में लाया जाने लगा है। सबसे पहले फड़ का आधार तैयार किया जाता है, इसके लिए कपड़े को वांछित माप में काट लिया जाता है। अब इसे बिछाकर इस पर चावल का माड़ लगाया जाता है। सूखने पर माड़ लगे कपड़े की सतह को चिकने पत्थर से घोंटा जाता है। घुटाई करने से माड़, कपड़े में बैठ जाता है। कपड़ा एकसार और चिकना हो जाता है, उसकी रंग पकड़ने की क्षमता बढ़ जाती है और रंग उसकी सतह पर फैलता नहीं है।आजकल तो रेडीमेड रंगों एवं ब्रशों का प्रयोग भी होने लगा है परन्तु फड़ चित्रकार, परम्परागत रंग स्वयं ही अपने लिए तैयार करते थे। फड़ चित्रों में सात रंगों का प्रयोग किया जाता है। यह रंग प्राकृतिक होते हैं जैसे नारंगी रंग पेवड़ी या सिन्दूर से, पीला रंग हरताल से, हरा रंग जंगाल से, भूरा रंग गेरू या हिरमिच से, लाल रंग हिंगलू से, नीला रंग नील से और काला रंग काजल से बनाया जाता था। रंगों को पक्का करने के लिए उसमें खेजड़ी वृक्ष का गोंद मिलाया जाता था।       

       ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर लोग कोई विशेष मनौती पूर्ण होने पर फड़ बँचवाते हैं। कभी-कभी किसी बड़े अनिष्ट की आशंका से बचने के लिए समूचे गाँव के लोग सामूहिक रूप से मनौती मानते हैं और उसके पूरा होने पर सब मिलकर फड़ बँचवाते हैं। जिस दिन फड़ बँचवानी होती है उस दिन का भोपा को न्यौता दिया जाता है। सगे सम्बन्धियों और पास-पड़ोसियों को न्यौता जाता है, छोटे गाँवों में तो समूचे गाँव को बुला लिया जाता है। फड़ सुनने आने वाला प्रत्येक व्यक्ति आरती तथा अन्य महत्वपूर्ण प्रसंगों पर भोपा को पैसे भेंट देना अपना पवित्र कर्तव्य समझता है। इस पूरे आयोजन के दौरान लोग फड़ में पाबूजी का वास मानते हैं और बीच-बीच में हाथ जोड़कर उनका नमन करते रहते हैं। वर्षा ऋतु के चार महीनों में क्योंकि सभी देवता सो जाते हैं इसलिये इन महीनों में फड़ बँचवाना और बनाना बंद रखा जाता है, श्राद्ध पक्ष में भी फड़ नहीं बाँची जाती। भाद्रपद माह की नवमी-दशमी और चैत्र नवरात्री में फड़ अवश्य ही बँचवाई जाती है।  जहाँ फड़ बँचवानी होती है, वहाँ भोपा उसे दो बाँसों की सहायता से खड़ी कर फैला देता है। इसके बाद वह अगरबत्ती जलाता है, दीप प्रज्वलित करता है, गूगल धूप लगाता है और रावणहत्था बजाते हुए जिस देव की फड़ बाँचनी है उसकी आरती गाता है। इसके बाद देव से प्रार्थना करता है कि वे उसे शक्ति प्रदान करें जिससे वह फड़ को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत कर सके। भोपा अपनी पूरी होशियारी से फड़ बाँचता है, अपने गायन और नृत्य से श्रोताओं को रात भर अपनी ओर खींचे रखता है। वह सुबह होते-होते कथा समाप्त करता है। जब तक फड़ पूरी न बाँच ली जाए तब तक उसे समेटता नहीं  है। फड़ प्रस्तुति के दो प्रमुख अंग हैं—कथा वाचन और कथा गायन-नृत्य। यद्यपि मूल कथानक एक ही होता है पर प्रत्येक भोपा उसे अपने ढंग और निज कंठ के सुरीलेपन से विशिष्ट बना देता है। फड़ गायन में मुख्यतः कहरवा द्रुत लय, कहरवा अति विलम्बित लय, कहरवा-ताल मध्य लय और कहरवा मध्य लय का प्रयोग किया जाता है।

       सामान्यतः फड़ राजस्थानी बोली में ही बाँची जाती है परन्तु इस पर आँचलिकता का भी प्रभाव रहता है।भोपा फड़ वाचन के समय रावणहत्था नामक वाद्य बजाता चलता है। यह सारंगी से मिलता-जुलता एक सरल वाद्य है, जिसे गज द्वारा बजाया जाता है। गज के दोनों सिरों पर घुंघरू बाँधे जाते हैं जो स्वर के साथ ताल देने का कार्य करते हैं। सुरीली आवाज़ के इस सरल वाद्य को भोपा स्वयं ही बना लेते हैं। 

    पिछले दो दशकों में फड़ चित्रों का स्वरुप और फड़ चित्रकार जोशी समाज बहुत बदल गया है। बदलते हुए आर्थिक-सामाजिक परिवेश में फड़ वाचक भोपा तथा परम्परागत फड़ श्रोता समाज भी काफ़ी हद तक प्रभावित हुए हैं। फड़ चित्रकारों के बच्चे शिक्षित होकर अन्य व्यवसाय अपना रहे हैं। फड़ बँचवाने वाले समाज भी सिमट कर रह गए हैं। पारम्परिक फड़ चित्रों की माँग बहुत कम हो गयी है। अब फड़ चित्रकार अपनी फड़ चित्रण को बचाये रखने के लिये  नए सजावटी रूप में बनाये  लगे हैं जो ड्राइंग रूम सजाने के काम आते हैं।


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