विषय थोड़ा अटपटा जरूर है किन्तु यथार्थ और सत्य के इर्द-गिर्द ही केन्दि्रत है और सांसारिकों एवं संसार का वह नग्न सत्य है जो हर कोई सुनना, जानना एवं समझना चाहता है किन्तु खुद से नहीं बल्कि औरों से।
कोई भी इंसान जन्म से सनकी, उन्मादी और खुराफाती नहीं होता। भगवान ने सभी को समस्त प्रकार की क्षमताओं और सामथ्र्य भर कर भेजा है। लेकिन बाद में जाकर इंसान अपने कर्मों, संग रहने वाले लोगों और परिवेशीय प्रभावों और अभावों की वजह से अपनी मौलिकता खो देता है और अपने मूल स्वभाव तथा परंपरागत इंसानी आदतों को खो दिया करता है।
कई बार मनुष्य न चाहते हुए भी अपने स्वार्थों और ऎषणाओं की वजह से सिद्धान्तहीन और अव्यवहारिक हो जाता है।
मनुष्य मात्र के लिए मानसिक और शारीरिक तृप्ति का आनंद सर्वोपरि है और इसी परम उद्देश्य और चरम लक्ष्य को सामने रखकर इंसान अपनी पूरी जिन्दगी को जीना चाहता है।
दुनिया में बहुत से विषय ऎसे हैं जो पसंद सभी को आते हैं लेकिन इनकी सार्वजनिक चर्चा या इन पर विचार मंथन करना कोई नहीं चाहता। शर्म और लज्जा में हम इतने अधिक डूबे हुए हैं कि सत्य और सनातन शाश्वत बिन्दुओं से दूर भागना चाहते हैं।
हम सभी अपनी छवि को ऊपर से साफ-सुथरी, सकारात्मक, शुभ्र और आदर्श भरी रखना चाहते हैं और इसके लिए सभी तरह के प्रयासोें में कहीं कोई कमी नहीं रखते। पुरुषार्थ चतुष्टय में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष शामिल हैं और इन चारों ही में बराबर का संतुलन हो, तभी पुरुषार्थ की पूर्णता है।
इनमें से हम किसी एक-दो को न्यूनाधिक या महत्वहीन कर लें तो यह मान कर चलें कि हम अपने जीवन लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएंगे। इसी तरह मानसिक और शारीरिक आनंद के बीच भी बराबरी का संतुलन जरूरी होता है।
मानसिक अर्थात दिमागी आपाधापी और निरन्तर सोच-विचार, उद्विग्नता, आवेग-संवेग के दौर में हर इंसान दिन-रात इतना अधिक पचा रहता है कि उसे अपने बारे में विचार या चिन्तन-मनन की फुरसत ही नहीं मिल पाती।
इस कमी को दूर करने के लिए शैथिल्य की जरूरत होती है और यह केवल शारीरिक सुख और तृप्ति ही दे पाते हैं। दूसरी ओर जो लोग खूब सारा शारीरिक श्रम किया करते हैं उन लोगों को दिमागी तृप्ति की जरूरत पड़ती है।
योग मार्ग की दृष्टि से देखें तो मूलाधार चक्र से लेकर सहस्रार चक्र तक सभी चक्रों में ऊर्जा और प्रवाह का संतुलन बने रहने पर सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहता है किन्तु शक्ति तत्व अधिक बढ़ जाने पर शिव तत्व उसका संतुलन करता है और शिव तत्व बढ़ जाने पर शक्ति तत्व के सहारे संतुलन बिठाया जा सकता है।
ब्रह्मचारियों, योगमार्गियों, ज्ञानियों और उच्च स्तर को प्राप्त व्यक्तियों के लिए शक्ति और ऊर्जा का संतुलन, इनका रूपान्तरण तथा ऊध्र्वरेता होने की स्थिति को प्राप्त करना सहज और सरल हो सकता है किन्तु सामान्य लोगों के लिए यह अत्यन्त असहज और कठिन है।
जिन तत्वों से स्त्री और पुरुष का निर्माण हुआ है वे सब आधे-अधूरे माने जाते हैं और उभयपक्षों के सम्पर्क और पारस्परिक दैहिक समागम से सभी प्रकार के पंच तत्वों, ऊर्जाओं, शक्तियों और दिव्य तत्वों का एक-दूसरे में पुनर्भरण और संतुलन जरूरी होता है और इसके लिए सामीप्य, समत्व और सम-भोग की नितान्त आवश्यकता है।
यही कारण है कि अविवाहितों में विवाह को लेकर छटपटाहट हमेशा बनी रहती है और जब तक वैवाहिक बंधनों में नहीं बंध जाते, तब तक हमेशा किसी न किसी बड़े अभाव का बोध बना रहता है। विवाह एक प्रकार से मर्यादित जीवन जीते हुए पारस्परिक उच्चावस्था को पाने का माध्यम है।
लेकिन जो लोग विवाहित हैं उन्हें भी यह बोध होना चाहिए कि वे अपने आप में आधे-अधूरे हैं। इनमें से एक शिव तत्व है और दूसरा शक्ति तत्व। इनका मिलन ही पूर्णता और ईश्वरीय आनंद की सृष्टि करता है। इसका स्थूल रूप मैथुनी सृष्टि और दैहिक भोग है जिसमें बार-बार उस आनंद को पाने की कामना होती है और बिन्दु क्षरण का क्रम बना रहता है।
इसी संसर्ग को यदि दैवीय भावों से साकार किया जाए तो यह दैहिक न रहकर ब्रह्म रति का स्थान पा लेता है जहाँ स्त्री और पुरुष एक-दूसरे से जुड़ कर भी उस परम सत्ता के सामीप्य का आनंद प्राप्त करते हैं जिससे जुड़ जाने के बाद सुख और आनंद क्षणिक न रहकर शाश्वत और सनातन हो जाते हैं और इनकी प्राप्ति के लिए बार-बार किसी दैहिक प्रयत्न की आवश्यकता नहीं रहती बल्कि संकल्प मात्र से देह की कल्पना भर से दिव्य आनंद प्राप्त हो जाता है।
रति को यदि ईश्वरीय तरंगों से जोड़ दिया जाए तो यह आनंद और तृप्ति हमेशा बनी रहती है और उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली जाती है और अन्त में भाव समाधि का स्वरूप प्राप्त कर लेती है।
अधिकांश विवाहित स्त्री-पुरुषों की जिन्दगी में सब कुछ होते हुए भी भीतर ही भीतर अभावों का दावानल जलता रहता है। धन-वैभव, पद-प्रतिष्ठा, लोकप्रियता आदि सब कुछ होते हुए भी महसूस होता है कि जैसे कोई बहुत बड़ा अभाव है।
बहुत सारे लोगों के बारे में सुना जाता है कि वे एलर्जिक, गुस्सैल, चिड़चिड़े और विध्वंसकारी मानसिकता के हुआ करते हैं। ये स्त्री या पुरुष कोई भी हो सकते हैं। ये लोग दिन-रात नकारात्मक सोच, दूसरों को तंग करने, हैरान-परेशान कर आनंद पाने, बेवजह किसी न किसी को सताने, उल्टी-सीधी झूठी कार्यवाही करने, कुत्तों की तरह भौंकने और साँप-बिच्छुओं की तरह डसने की मनोवृत्ति पाले रहते हैं, जो उनके सामने आता है उसके साथ अभद्र व्यवहार करने, उन्माद और अहंकार में भर कर सामने वाले को खा जाने जैसी हरकतें करने, विध्वंसकारी मानसिकता का परिचय देने आदि में लगे रहते हैं।
लोग इन क्रूर और हिंसक मानसिकता वाले स्त्री-पुरुषों को कुत्ते-कमीने, कमीनी कुतिया, राक्षस, पिशाच, भूत-भूतनी, सुरसा, लंकिनी, पूतना, रावण, महिषासुर आदि उपनामों से संबोधित करते हुए इन्हें बददुआएं देते हुए इनकी अकाल मौत या दुर्घटना में कुत्ते की मौत मरने जैसी बातें करते हैं।
अहंकारों में भरे हुए इन लोगों पर कोई असर नहीं होता क्योंकि वास्तव में ये लोग किसी ऎसी बीमारी से ग्रस्त होते हैं जिसे ये किसी से कह नहीं सकते, भीतर ही भीतर कुण्ठित रहने को विवश होते हैं और इसलिए अपनी नाकामी, नपुंसकता और कायरता का गुस्सा औरों पर निकालते रहते हैं।
इन लोगों की वैयक्तिक और पारिवारिक परिस्थितियों का सर्वांग अध्ययन किया जाए तो सबसे बड़ी बात यही निकल कर सामने आती है कि ये लोग या तो किसी भीतरी बीमारी से ग्रस्त हैं अथवा सेक्स में असन्तुष्ट और अतृप्त हैं।
इस कारण से इन्हें प्यार और सेक्स की कमी बनी रहती है और यह गर्मी इनके दिमाग में चढ़ जाती है इसलिए हर किसी को काटने दौड़ते हैं, भौंकते रहते हैं और अपने जीवन से असन्तुष्ट और हताश-निराश रहा करते हैं।
और अपनी हताशा और कुण्ठाओं को दबाने के लिए ये चाहते हैं कि और लोग भी खुश क्यों रह पाएं। आज के भोगवादी और उन्मुक्त स्वेच्छाचारी युग का यह नग्न सत्य है। जो लोग गुस्सैल, चिड़चिड़े और नकारात्मक मानसिकता वाले हैं उनकी इस दुर्बुद्धि और हिंसक मानसिकता का मूल कारण इन्हें तृप्त और संतुष्ट करने वाले सेक्स की कमी ही है, ऎसा अधिकांश मामलों में देखा जा सकता है।
बहुत बड़े-बड़े ओहदों पर बिराजमान स्त्री और पुरुषों को देखें तो उनमें ऎसे कई सारे चेहरे देखने को मिल जाएंगे जो कि विनम्रता, शालीनता, धीर-गंभीरता और मानवीय संवेदनाओं को त्यागकर खूंखार जानवरों की तरह बरसते रहते हैं।
ये लोग पूरी जिन्दगी ऎसे ही रहा करते हैं। इनसे कोई भलाई का काम नहीं हो सकता। जो खुद असन्तुष्ट है वो किसी और को सन्तुष्ट कर ही नहीं सकता। यह रहस्य जो जान लेता है वह हर किसी के जीवन व्यवहार की थाह पा लेता है।
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