GMCH STORIES

“वैदिक वर्ण व्यवस्था एवं जन्मना जातिवाद व्यवस्था पर विचार”

( Read 11058 Times)

16 Oct 18
Share |
Print This Page
“वैदिक वर्ण व्यवस्था एवं जन्मना जातिवाद व्यवस्था पर विचार” हिन्दुओं में जन्मना जातिवाद की व्यवस्था प्रचलित है। अन्य समुदायों सहित मत, पन्थो, मजहब आदि में ऐसी व इससे कुछ कुछ मिलती जुलती व्यवस्थायें प्रचलित हैं। कहीं यह जन्मना है तो कहीं मनुष्य-मनुष्य में भेद करनेवाली व्यवस्था आर्थिक आधार पर भी है। हिन्दुओं में जन्मना जातिवाद की व्यवस्था महाभारत काल के बाद वैदिक वर्णव्यवस्था का विकृत स्वरूप है। इसका कारण अविद्या व उससे उत्पन्न कुछ लोगों का स्वार्थ व समाज पर वर्चस्व स्थापित करने की भावना प्रतीत होता है। यह व्यवस्था उचित नहीं है। ऋषि दयानन्द ने इस व्यवस्था को मरण व्यवस्था कहा है। परमात्मा ने मनुष्य-मनुष्य को समान बनाया है। उनमें यदि रंग रूप का अन्तर है तो वह भौगोलिक कारणों सहित माता-पिता के अपने शरीरों, उनके भोजन व दिनचर्या की पृथक-पृथक स्थितियों सहित उनके ज्ञान में अन्तर, उसके कारण अनेक प्रकार के उचित व अनुचित कार्यों एवं कर्तव्यों का ज्ञान न होना आदि कारण है। वास्तविकता यह है कि जीवात्मायें अपने पूर्व जन्म के प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य व अन्य योनियों में जन्म लेती हैं। जो आत्मायें जन्म लेती हैं उनका अधिकार है कि उन्हें सद्ज्ञान मिले और वह अपनी योग्यतानुसार उसे प्राप्त कर देश व समाज के उत्थान में अपना-अपना योगदान दें। किसी भी मनुष्य को यदि उसकी प्रतिभा व क्षमता के अनुसार विद्या प्राप्ति के अवसर नहीं मिलते तो यह उस देश व समाज तथा वहां के शिक्षित व ज्ञानी लोगों का दोष कहा जा सकता है। जन्मना जाति व्यवस्था ईश्वरकृत न होकर मनुष्य कृत है जिसका तत्काल बन्द होना धर्म व संस्कृति की रक्षा सहित देश की एकता व अखण्डता के लिये भी आवश्यक है। इस जन्मना जाति व्यवस्था से वैदिक सनातन धर्म कमजोर हुआ है और आज हम देश व विश्व में जो नाना प्रकार के विधर्मी देखते हैं उसका कारण भी किसी न किसी रूप में सत्य वैदिक धर्म का विश्व में उचित रीति से प्रचार न होना है।



वेद और मनुस्मृति के अध्ययन से वर्ण व्यवस्था का स्वरूप समझ में आता है। यदि हम मनुष्य के शरीर पर दृष्टि डालें तो हम इसे चार रूपों में समझ सकते हैं। एक भाग शिर का है, दूसरा बाहुओं का, तीसरा उदर तथा चौथा चरणों का मान सकते हैं। दो चरणों पर ही हमारा शरीर निर्भर है। पैरों का अपना महत्व है। इसके बिना हम मनुष्य शरीर की कल्पना नहीं कर सकते। परन्तु ऐसा नहीं है कि अन्य तीन का महत्व न हो। हमारे पैर हमें ज्ञान प्राप्ति में सहायक हैं परन्तु हमारी आत्मा अर्थात् हमें ज्ञान अपने शिर व उसमें स्थित ज्ञानेन्द्रियों मुख्यतः आंख, कान, मुंह या वाणी तथा नासिका के द्वारा होता है। इस कारण से हमारे इन ज्ञानेन्द्रियों से युक्त शरीर का महत्व हमारे चरणों से अधिक है। ब्राह्मण की उपमा शिर से दी जाती है। शिर ज्ञान का केन्द्र होता है। समाज में जो ज्ञानी लोग व ज्ञान के ग्राहक व प्रचारक हों उन्हें ही ब्राह्मण कहा जाता है। सब लोग स्वीकार करेंगे कि ज्ञान की दृष्टि से शिर पैरों की तुलना अधिक महत्वपूर्ण हैं परन्तु यह भी सत्य है कि यदि किसी मनुष्य के पैर नहीं होंगे तो उसका शिर भी भली प्रकार से ज्ञान अर्जित व प्रचारित नहीं कर पायेगा।



अब हाथों के महत्व पर विचार करते हैं। हाथों में शक्ति भी है और आत्मा में जो ज्ञान होता है उसका क्रियान्वय हाथ ही करते हैं। हाथ से हम पुस्तक पकड़ते हैं। हाथ से लिखते हैं। हाथों से खेती का काम करने, भोजन पकाने, उसे खाने, अपराधियों को सजा देने अथवा न्याय करने आदि अनेकों कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान है। सभी मानेंगे कि हाथ का महत्व भी शिर से कुछ कम तथा पैरों से कुछ अधिक है। हाथों की उपमा क्षत्रिय से दी जाती है। समाज के जिन मनुष्यों के भीतर ज्ञान हो और साथ ही शारीरिक बल, अन्याय का विरोध तथा न्याय के प्रति सच्ची भावना हो, जो साहसी व निर्भीक हों तथा हाथों से देश व समाज रक्षा व सामाजिक व्यवस्था का संचालन कर सकें उनकी संज्ञा क्षत्रिय है। ऐसे क्षत्रिय जन देश व समाज की रक्षा करते हुए लोगों के साथ न्याय करतें हैं। इन गुणों के कारण उन्हें क्षत्रिय की उपमा दी जाती है। इसी प्रकार से उदर में हमारा अन्न से बना भोजन रहता है। हमारे देश व समाज को अन्न, फल, शाक-सब्जी तथा दुग्ध आदि पदार्थों की आवश्यकता होती है जो इन पदार्थों का उत्पादन करें और व्यापार आदि करके अर्थ व पूंजी को एकत्रित कर इनकी रक्षा करते हैं जिससे आवश्यकता पड़ने पर देशवासियों सहित समाज व देश की रक्षा में काम आये, ऐसे कार्यों के करने वालों को वैश्य कहा जाता है तथा वैश्यों की उपमा उदर से दी जाती है। अन्न उत्पादन तथा व्यापार करना भी ज्ञान व प्रवृत्ति के कारण सम्भव होता है। जिस प्रकार उदर का स्थान पैरों से अधिक महत्वपूर्ण है उसी प्रकार समाज में वैश्य का स्थान पैरों से कुछ अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। इस प्रकार समाज व देश का भी एक शरीर बनता है जिसमंी ज्ञानी, अन्याय से रक्षा व न्याय करना, कृषि व वाणिज्य आदि कार्य करना तथा इन तीनों कार्य करने वालों को अपने ज्ञान की कुछ न्यूनता तथा शारीरिक बल से उनकी सेवा आदि के द्वारा सहयोग करने वालों को शूद्र कहा जाता है। शूद्र को न्यून ज्ञान व शारीरिक बल रखने वाला श्रमिक भी कह सकते हैं।



शरीर में जिस प्रकार से यह चारों भाग भलीभांति समन्वय से रह रहे हैं इसी प्रकार से समाज में भी चार प्रकार के योग्य पुरुष व स्त्रियों की आवश्यकता होती है। कोई छोटा-बड़ा, ऊंचा-नीचा, अगड़ा-पिछड़ा नहीं होता। मध्यकाल में अज्ञानी व कुछ मूर्ख लोगों ने जन्मना व्यवस्था आरम्भ की, ऐसा अनुमान होता है। ऋषि दयानन्द ने इस जन्मना व्यवस्था को अनुचित माना और समाज के चारों वर्णों या मनुष्यमात्र को विद्याध्ययन सहित अपनी योग्यतानुसार समाज के किसी भी कार्य को करने का अधिकार दिया है। आज के समय में जन्मना जाति व्यवस्था पूर्णतयः अप्रासंगिक हो गई है। इसका प्रचलन व व्यवहार बन्द होना चाहिये। अज्ञानतावश मनुष्य इसे आज भी ढो रहे हैं। यह उचित नहीं है। इसके देश व मनुष्य जाति पर बुरे प्रभाव हो रहे हैं। आज वैदिक धर्मियों की जो दुर्दशा हुई व हो रही है उसमें जहां अन्य कारण हैं, वहीं जन्मना जातिवाद व सामाजिक व्यवस्था गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित न होकर कुछ कुछ जन्मना सामाजिक व्यवस्था होना है।



वेद का अर्थ ज्ञान होता है, वर्ण का अर्थ चुनाव करना तथा व्यवस्था का अर्थ कार्य प्रणाली कह सकते हैं। वैदिक वर्ण व्यवस्था में मनुष्य को चुनाव करने का अधिकार प्राप्त है। कोई ब्राह्मण बनना चाहे तो उसे गुरुकुल में शास्त्रों का अध्ययन करना होगा, उसमें प्रवीणता प्राप्त करनी होगी, अध्ययन-अध्यापन में जीवन व्यतीत करना होगा, यज्ञ करना व कराना होगा तथा दान देना व दान लेना भी होगा। यदि कोई व्यक्ति इन सब कर्तव्यों को करने का पात्र है व कर रहा है तो वह सच्चा ब्राह्मण है। जब हम आज के अपने ब्राह्मण बन्धुओं पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें उनमें यह आवश्यक कर्तव्य दृष्टिगोचर नहीं होते। इसका अर्थ है कि वह कर्मणा ब्राह्मण नहीं है। मनुष्य जन्म से महान नहीं होता अपितु कर्म से महान होता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती, लाल बहादुर शास्त्री, सरदार वल्लभ भाई पटेल, नरेन्द्र मोदी जी जन्म से कुछ भी हों परन्तु कर्मणा यह ब्राह्मण व क्षत्रिय आदि हैं। हमें लगता है कि वेदों की गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था को लागू करना आसान नहीं है। यह वैदिक काल नहीं है। यह आ भी पायेगा या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। आर्यसमाज को वैदिक काल लाने के लिये प्रयत्न करता है व करता रहे यह एक उचित ही है। नयी सामाजिक व्यवस्था में वैदिक काल की सभी अच्छी बातों सहित आज की वैज्ञानिक उपलब्धियों का भी महत्व हो, ऐसा देश व विश्व बनाने के लिये प्रयत्न करना है। व्यवस्था जो भी हो वह शोषण व अन्याय से मुक्त होनी चाहिये। अतः जन्मना जातिवाद को समाप्त करके वर्तमान व्यवस्था व इसके संशोधित स्वरूप को जारी रखा जा सकता है। हम एक निर्धन परिवार में उत्पन्न हुए। पिता अल्प शिक्षित तथा माता अपढ़ थी। धार्मिक ज्ञान की दृष्टि से वह सदाचारी और सत्य पथ के अनुगामी थे। उन्होंने हमें शिक्षा प्रदान की जिससे हम आर्यसमाज से जुड़ कर सरकारी नौकरी में प्रविष्ट हुए और स्वाध्याय आदि से अपनी योग्यता बढ़ाते रहे। हम वर्तमान के चार वर्णों में से क्या हैं, हमें स्वयं पता नहीं। हमारे कुछ मित्र कहते हैं कि आर्यसमाजी सभी ब्राह्मण होते हैं, यह बात कुछ सीमा तक ठीक हो सकती है। आज के समय में जो व्यक्ति अपनी शिक्षा व अनुभव के अनुसार जो काम कर रहा है, उसके अनुसार ही उसे समाज में मान-सम्मान व स्थान मिलता है। धन का आज के समाज में प्रमुख स्थान है। धन सभी मनुष्यों के लिये प्राप्तव्य है। सभी इसके लिये प्रयत्नशील भी हैं। अतः वर्तमान समय में वर्ण, वह जन्मना हो या कर्मणा, प्रायः गौण हैं।



मनुस्मृति के कुछ प्रमाण ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में दिये हैं। मनु के अनुसार उनके काल में व बाद में गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार वर्ण परिवर्तन हुआ करता था। रामायण व महाभारत इतिहास के दो प्राचीन ग्रन्थ हैं। इन कालों में हमारे जो पूर्वज हुए उनमें जन्मना जाति व्यवस्था का कहीं उल्लेख नहीं है और न ही उनके नाम के साथ वर्ण व जाति सूचक शब्द ही देखने को मिलता है। अतः महाभारत काल तक तो भारत में जन्मना जाति व्यवस्था नहीं थी, यही सिद्ध होता है। मध्यकाल भारत में घोर अज्ञान व अविद्या का युग था। इसी युग में सभी अन्धविश्वासों, बुराईयों, कुरीतियों, सामाजिक असमानता व अविद्या का प्रचार हुआ। ऋषि दयानन्द जी के आने से हमें इन गलतियों का ज्ञान हुआ। आर्यसमाज ने समाज में सुधार का प्रशंसनीय कार्य किया है। आर्यसमाज के गुरुकुलों में सभी वर्ण व जातियों के लोग पंडित व विद्वान बने हैं। आर्यसमाज को हम सच्चा पारसमणि कह सकते हैं जो किसी भी वर्ण या जन्मना जाति के मनुष्य को ब्राह्मण बनाता है। हमने वर्ण व्यवस्था की कुछ चर्चा की है। हम इसके लिये अपने सभी मित्रों को सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़ने की प्रेरणा करते हैं। इससे उन्हें वर्ण व्यवस्था का सत्य स्वरूप मिलेगा। सभी हिन्दु कहे जाने वाले मनुष्यों का हित व कल्याण आर्यसमाज द्वारा प्रतिपादित वैदिक विचारधारा को अपनाने में हैं। इसे अपना कर उनके इहलोक व परलोक दोनों सुधर सकते हैं। इस चर्चा को यहीं पर विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001/फोनः09412985121


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Literature News , Chintan
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like