
डॉ. प्रभात कुमार सिंघल - लेखक एवं पत्र्कार ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह आज विश्व विख्यात है। आरंभ में यहां ख्वाजा साहब का केवल एक कच्चा मजार था। अजमेर के लोक समाज में ऐसी मान्यता है कि उस समय आसपास कुछ बडे मंदिर व हिन्दू भवन थे जिन्हें पहले एबक और बाद में इल्तुतमश ने नष्ट कर दिया। ख्वाजा की मजार पन्द्रवीं (1469 ई.) सदी के पूर्वार्द्ध तक तक गुमनाम थी किन्तु 1455 ई. में यहां माण्डू के सुल्तान महमूद खिलजी ने 85 फीट ऊॅचा बुलन्द दरवाजा बनावाया, फिर उसके पुत्र् गियासुद्दीन खिलजी ने गुम्बद बनवाया। सन्दलखाना व मस्जिद का निर्माण भी उसी समय हुआ बताया जता है। बादशाह अकबर ने यहां एक विशाल मस्जिद बनवाई, लंगरखाना बनवाया और बडी देग भेंट की, छोटी जहांगीर ने नजर की जो ताम्बे की थी। शाहजहां ने जमा मस्जिद बनवाई और जहांआरा ने बेगमी दालान का निर्माण कराया। सन् 1915 में हैदराबाद के निजाम उस्मान अली खां ने निजाम गेट बनवाया। बडी व छोटी देग में क्रमशः 120 मन व 80 मन चावल पकने की क्षमता है। बडी देग का घेरा 13 फीट व गहराई 10 फीट है तथा चार सूत मोटी लोहे की चद्दरों से इसे बनाया गया थां। सन् 1567 व 1612 तक लगातार प्रति वर्ष उर्स के दौरान यह देग शाही खर्च से पकवाई गई थी। इस दरगाह का जो वर्तमान रूप है वह विगत 500 वर्ष के दौरान होते रहे निर्माण कार्य का परिणाम है।

यहां चादर चढाने की भी अनूठी प्रथा है जो ईरान, इराक व अरब देशों में भी नहीं है। अपने खादिम के जरिये जायरीन अपनी हैसियत के अनुसार मजार शरीफ पर चादर चढाते हैं। कीमती चादरें दरगाह के तोशाखाना में रख दी जाती है। यहंा बादशाह औरंगजेब के हाथ से लिखी गई कुरान सुरक्षित है। बेगमी दालान से पूरब दिशा में भि८ती का मजार है। यह मकबरा उसी बादशाह भि८ती की है जिसने चौसा के युद्ध के दौरान नदी में डूब रहे हुमायूं की जान बचाई थी। दरगाह के पिछवाडे झालरा है। अकबर बादशाह के समय तारागढ पहाडी के उत्तरी भार और दरगाह के बीच दो बांध बनाकर झालरे का निर्माण किया गया था, जिसकी मरम्मत कर्नल डिक्सन के समय (1843-57) कराई गयी थी। शाहजहां द्वारा लाख चालीस हजार रूपये खर्च करके यहाँ 1638 ई. मे जामा मस्जिद बनवाई गई थी। मस्जिद की जाली दार दीवार पर नुकीले ग्यारह मेहराब हैं। इस मस्जिद के भीतर इमामशाह में स्वर्णाक्षरों से कलमें उत्र्कीण हैं। यह सम्पूर्ण दरगाह संगमरमर से निर्मित और खूबसूरत है। प्रतिवर्ष रजब की एक से छह तारीख तक यहां ख्वाजा साहब का सालना उर्स मनाया जाता है। विशाल दरगाह में पंाच छोटे दरवाजे हैं, दो पूरब में व तीन पशिम में है। इसका मुख्यद्वार निजाम गेट उत्तर में है। दरगाह सूफी चेतना का शल्प धाम है। यहां हिन्दू जायरीन अधिक आते हैं। वि८व की और भारत की अनेक नामी हस्तियां यहां की जियारत कर चुकी हैं।
दरगाह शरीफ में दशर्नीय
1. मजारे मुबारक व दरबार शरीफ का निर्माण सुल्तान महमूद खिलजी ने 859 हिजरी में कराया। अकबर बादशाह ने सीपी का कटहरा बनवाया और बाद में शहंशाह शाहजहां ने कटहर को चांदी से मंडवा दिया। गुम्बद के ऊपर सेाने का कलश रामपुर के नवाब सालवली खान ने पेश किया।
2. जन्नती दरवाजा ख्वाजा साहब के हुजरे (कमरे) में आने-जाने का द्वार था। इस द्वार का यह नाम बाबा फरदुद्दीन गंज शकर ने अपनी अकीदत से रखा था। यह जन्नती दरवाजा ईद व बकरा ईद के अवसर पर एक-एक दिन के लिए खुलता है। ऐसे ही ख्वाजा साहब के उर्स के दौरान एक से छः तारीख तक खुला रहता है। जायरीन इस दरवाजे के सात चक्कर लगाते हैं।
3. बुलन्द दरवाजा सुल्तान महमूद खिलजी ने 1445 ई. में बनवाया। यह जमीन से 75 फीट ऊँचा है।
4. बडी देग 1567 ई. में बादशाह अकबर ने भेंट की और उनके पुत्र् जहांगीर ने 1613 ई. में छोटी देग नजर की।
5. सुल्तान महमूद खिलजी ने ही मस्जिद संदल खाने का निर्माण करवाया। मजार शरीफ पर पेश करने के लिए संदल यहीं घोटा जाता था।
6. लाटियों वाला दालान दरगाह में वह जगह है जहां अकबर ने जहांगीर के मन्नती बाल कटवाये थे।
7. 1570 ई. अकबर ने विशाल अकबरी मस्जिद का निर्माण करवाया।
8. लंगरखाना वाली जगह पर स्वयं बादशाह अकबर ने फकीरों की पंक्ति में खडे रहकर मिट्टी के बर्तन में लंगर कबूल किया था।
9. शाहजहां ने यहां सफेद संगमरमर से बेहद खूबसूरत शाहजहांनी मस्जिद का निर्माण कराया। इसी शहंशाह ने 1047 हिजरी में शाहजहांनी गेट बनवाया जहां आजकल नौबतखाना है।
10. मजार शरीफ के पूर्वी दरवाजे से लगा हुआ बेगमी दालान है। इसका निर्माण शहजादी जहांआरा ने 1053 हिजरी में करवाया था। इसके सामने वाले सेहन को आहाता-ए-नूर कहा जाता हैं।
11. अर्काट के नवाब ने 1793 ई. ने अर्कट का दालान बनवाया जो कि मजार शरीफ के दक्षिण है।
12. महफिल खाने का निर्माण हैदराबाद के नवाब बशीरूद्दौला ने 1891 ई. में करवाया था।
13. औलिया मस्जिद का निर्माण 1358 हिजरी में कटिहार के रईस चौधरी मोहम्मद बक्ष ने करवाया था। यही पर ख्वाजा साहब ने अजमेर में पहले दिन नमाज पढी थी।
14. 1911 ई. में इंग्लैण्ड की क्वीन मैरी ने यहां मजार शरीफ पर हाजरी दी और एक हौज का निर्माण करवाया जिसे क्वीन मैरी होज कहते हैं।
15. यहां भि८ती का मजार भी है जिसने अकबर के पिता हुमायूं को चौसा युद्ध के बाद नदी में डूबने से बचाया था।
16. निजाम गेट का निर्माण बीसवीं सदी के आरंभ में हैदराबाद के तत्कालीन निजाम ने कराया था।
सालना उर्स
सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का दरगाह शरीफ में सलाना उर्स मुस्लिम कलेण्डर के रज्जब माह की पहली से छः तारीख तक मनाया जाता है। इस उर्स के दौरान दरगाह शरीफ में अनेक रस्में पूरी की जाती है ः-
1. झण्डोराहण की रस्म
मुस्लिम कलेण्डर के महिने जमादुल सानील की पच्चीस तारीख को उर्स की प्रथम रस्म के रूप में बुलंद दरवाजे पर झण्डा “चढाया” (फहराया) जाता है। बीसवीं सदी के आरंभ में पेशावर (पाकिस्तान) के एक सूफी सत्तार शाह ने झण्डा चढाने की रस्म आरंभ की थी। अब इस रस्म का प्रबंध भीलवाडा के लाला भाई परिवार (सत्तार शाह के मुरीद) द्वारा किया जाता है।
2. ख्वाजा के नाम की गद्दियां
इस माह की 29 तारीख को प्रातः काल नमाज के बाद अहातानूरी में महाराज परिवार व अन्य खादिमों द्वारा ख्वाजा के नाम की नौ दिवसीय गद्दियां लगाई जाती है। यहां नौ दिन तक जायरीनों के लिए प्रार्थनाएं हुआ करती हैं।
3. मजार का गुसल
पहली रज्जब से छः रज्जब तक रोज रात में मजार शरीफ को केवडे व गुलाब के जल धोया जाता है। पहले चरण में दरगाह के खादिमों द्वार यह रस्म पूरी की जाती है। जिस पानी से मजार शरीफ को गुसल कराया जाता है, उसे खादिमगण बोतलों में भरकर रख लेते हैं। इसे जायरीन प्रसाद के तौर पर ले जाते हैं।
4. महफिले कव्वाली
दरगाह दीवान की सदारत में छः दिन, रात ग्यारह बजे से प्रातः चार बजे, तक महफिलखाना में आध्यात्मिक कव्वालियां होती हैं। भारत के मशहूर कव्वाल यहां सूफी संतो ंके भजन गाते हैं। इनके प्रभाव से कई बार उपस्थित सूफी सन्त रक्स (सूफियों का आध्यात्मिक नृत्य) करने लगते हैं।
5. छठी का कुल
रज्जब की छठी तारीख ख्वाजा साहब के वफात (स्वर्गवास)का दिन है। इस अवसर पर सुबह से ही जायरीन दरगाह में यथा स्थान बैठने लगते हैं और हजरत ख्वाजा गरीब नवाज के नाम की माला फेरते हैं। दोपहर डेढ बजे तोप दागकर तथा शहनाई बजाकर उर्स समाप्ती की घोषणा की जाती है। जायरीन आपस में गले मिलकर उर्स में शामिल होने के लिए मुबारकबाद देते हैं।
6. आखिरी गुसल का कुल
रज्जब की नौ तारीख के दिन आखिरी गुसल होता है। इस दिन अधिकतर जायरीन दरगाह शरीफ के फशर् की धुलाई करते हैं। भिश्ती पानी डालते रहते हैं और उसमें भीगते हुए दरगाह शरीफ को धो पौंछकर साफ करते हैं। (इसे जायरीन अपना सौभाग्य मानते हैं) मुगल बादशाह की बेटी जहांआरा ने मजार शरीफ की चौखट अपने सिर के बालों से पौंछी थी।
7. जन्नती दरवाजा
उर्स के दौरान छहों दिन जन्नती दरवाजा खुला रहता है। इस दरवाजे में हो कर गुजरना परम सौभाग्य माना जाता है।
दरगाह शरीफ के बाहर की जियारत
1. ख्वाजा साहब के बडे पुत्र् सैयद ख्वाजा फखरूद्दीन चिश्ती की मजार अजमेर से साठ किलोमीटर दूर सरवाड में है। इनके उर्स शरीफ के मौके पर ख्वाजा साहब की दरगाह से चांद और फूल मजार शरीफ पर चढाने के लिए भेजे जाते हैं।
2. ख्वाजा साहब के पोते हजरत फखरूद्दीन के पुत्र् हिसामुद्दीन जिगर सोख्ता का मजार अजमेर से साठ किलोमीटर दूर सांभर शरीफ में हैं।
3. आनासागर के पास वाली पहाडी पर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का चिल्ला है।
4. ख्वाजा साहब के जानशीन कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी देहलवी का चिल्ला भी आनासागर के किनारे पहाडी पर एक गुफा में है। इसी पहाडी पर सालर गाजी का भी चिल्ला है।
5. दरगाह शरीफ की पूर्वी दिशा में एक ऊँची पहाडी पर शेख बदीरुद्दीन जिन्दाशाह मदार की चिल्ला है।
6. दरगाह शरीफ के दक्षिणी तरफ वाली पहाडी पर एक बुजुर्ग साण्डेशाह बाबा का मजार है। आप बगदाद शरीफ हुजूर गौस पाक के मजारे पाक की एक ईंट साथ लाये थे जो आफ साथ दफन है। इस वजह से बडे पीर साहेब का चिल्ला कहलाता है।
7. हैप्पी वैली का एक गुफा में गरीब नवाज की बेटी बीबी हाफीज जमाल साहेगा का चिल्ला है।
8. तारागढ पहाडी पर हजरत मीरा सैयद हुसैन का मजार है एवं, यहां भी एक विशाल दरगाह बनी हुई है जो दर्शनीय है।
दरगाह में ऐसे लुटती है देग
दरगाह शरीफ में बुलन्द दरवाजे के पशिम में बडी देग व पूरब दिशा में छोटी देग देशर्नीय है। उर्स के दौरान या दोनों देगें प्रतिदिन पकवाई जाती ह व पारम्परिक तरीके से देग लूटी जाती है। बडी देग में 120 मन चावल पकाने के लिए “अन्दरकोटी” लोग आते हैं। देग पर से कपडा हटा दिया जाता है और देग से गर्म भाप के बादल उठते हैं। किसमें इतनी हिम्मत जो इतनी गर्म भाप को भेदकर देग में से चावल निकाले ? लेकिन तभी आठ-दस लोग शरीर पर रूई रेगजीन लपेटे, पांवों पर पैड बांधे, हाथों पर मोटे दस्ताने चढाये और सिर-मुंह को भली-भांति ढके हुए देग की तरफ झपटते हैं। दशर्कों में जिन्होंने पहले कभी यह नजारा नहीं देखा है, एक भयाक्रांत की लहर फैल जाती है। किन्तु अन्दरकोटियों की यह टोली देग में कूद जाती है। दशर्क को लगता है कि जैसे वे सब भाप में डूब गये हैं किन्तु उनके अभ्यस्त हाथ मजबूत देग का लंगर बाल्टियों में भर-भर कर बाहर खडे अपने साथियों को देते हैं और लगातार 10-15 मिनट में ही सारी देग खाली हो जाती है। जरा कल्पना कीजिए एक सौ बीस मन लंगर इतना गरम की अपना हाथ लगाये तो हाथ जल जायें। देग लूटने वालों का यह पु८तैनी काम है।
देग लुटवाने की प्रथा मुस्लिम समाज में बहुत आस्थापूर्ण है। जब कभी भी किसी समृद्ध व्यक्ति की कोई मुराद पूरी हो जाती है तो वह बडी अथवा छोटी देग तकसीम कराता है।
चादर चढान की अनूठी प्रथा
दरगाह में मजार पर चादर चढाने की अनूठी प्रथा पूरी दुनिया में विलक्षण है। पूरे वि८व में और कहीं भी सूफी संतों के मजार पर जायरीनों द्वारा चादर नहीं चढाई जाती है। अजमेर शरीफ स्थित दरगाह में मजार पर बयालीस गज की ७वेत मखवाली चादर ढकी हुई है। छः-छः गज के सात टुकडों से बनी इस चादर पर दुनिया भर के जायरीन वर्षों से चादर चढा रहे हैं। सामन्यतः इन चादरों का रंग ७वेत, लाल, हरा होता है। चादर एक रूमाल जितनी छोटी भी होती है। मजार की चादर दिन में दो बार बदली जाती है - प्रातः चार बजे और दिन में तीन बजे। छोटी व अन्य सामान्य चादरों में दरगाह दीवान एवं खादिमों का समान हिस्सा होता है।
दरगाह में चादर किसी न किसी खादिम के जरिये ही चढाई जा सकती है। चादर पर गुलाब के फूल व इत्र् रखे जाते हैं। इत्र्-फूलों से महकती चादर को श्रद्धालु सिर पर रखकर मजार तक ले जाते हैं। चादर चढाने का दृ८य भी अनुपम होता है।
चादर का आध्यात्मिक अर्थ आत्मा है, आत्म शुद्धि है। मजार पर ढकी चादर शुद्ध चेतना का प्रतीक है। जब जायरीन मजार की चादर पर अपनी चादर चढाता है तो उसका प्रतीकार्थ होता है - “या खुदा! हमारे भीतर की मलिनताओं को दूर कर, अपनी पाक नजर से हमको भी पाकीज कर।”
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