आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। इस दिन गुरु चरणों की पूजा का विधान प्रतिपादित है अर्थात् गुरुओं के बताएँ रास्ते पर चलना। क्यूँकि गुरु कभी भी किसी को भी गलत राह पर चलने की शिक्षा - दीक्षा नहीं देता है।
गुरु पूर्णिमा के साथ ही चातुर्मास का भी शुभारम्भ हो जाता है। प्रत्येक धर्म गुरु अपने अपने तौर तरीकों से चातुर्मास की स्थापना कर जन कल्याणकारी उपदेशों के माध्यम से श्रद्धालुओं को अपना जीवन सात्विक व सदाचार युक्त करने का संदेश देते हैं। जैन परंपरा के साधुओं का चातुर्मास भी आज के दिन ही शुरू होता है, वहीं परिव्राजक संन्यासियों का चार्तुमास व्रत भी इसी पूर्णिमा से आरंभ होता है। साधु - संत चार माह तक एक ही स्थान पर रहते हैं। इन चार महिनों में वे अध्ययन, अध्यापन करते हैं। इस दिन का महत्व इसलिए भी है कि समाज के सारे लोग नया काम गुरु का आशीर्वाद लेकर आज के ही दिन शुरू करते हैं।
भारतीय संस्कृति में गुरुओं को बहुत महत्वपूर्ण सन दिया गया है। इसलिए तो कबीर ने कहा है कि गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागू पांय, बलिहारी गुरु आपणी कोद दियो मिलाय। आज के दौर में हमें पुराने गुरुओं की जरूरत महसूस हो रही है।
भौतिकतावाद के प्रभाव के कारण आज गुरुओं की प्रतिष्ठा में कमी आई, अच्छे गुरुओं को अभाव हुआ है। सोशलिस्ट नेटवर्किंग पर आज अलग अलग विचारों के गुरु आपको मिल जाएंगे पर वो स्वंभू गुरु आपको सही दिशा राह नहीं दे सकते है। आज के तथाकथित गुरु आर्थिक लाभ के लिए शिक्षा प्रदान कर रहे इसलिए उनका महत्व घटा है। वो गुरु न रहकर टीचर हो गए हैं। पैसा लेकर मार्ग दिखलाने वाला गुरु नहीं हो सकता है। गुरु वह है, जो मोक्ष का मार्ग दिखाता है, आत्मा को परमात्मा से एकाकार करवाता है। आज गुरुओं की कमी की एक प्रमुख वजह पाश्चात्य शिक्षा का अंधानुकरण और शिक्षा में नैतिकता का खत्म हो जाना है। पाश्चात्य शिक्षा के पीछे भागने के कारण न तो शिक्षकों में गुरुतर भाव विकसित हुआ और न ही छात्रों में गुरु के प्रति सम्मान। दोबारा गुरु की प्रतिष्ठा स्थापित हो, इसके लिए हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में बदलाव करना होगा। हमें जापान के शिक्षकों से सीखना चाहिए, जहां राजनेता उस बात का अनुकरण करते हैं, जो शिक्षक कहते हैं। जबकि दूसरी ओर भारत में शिक्षक उस बात का अनुकरण करते हैं, जो राजनेता कहते हैं। गुरुओं को अपने आपको इतना मांजना होगा कि जापान की स्थिति भारत में होने लग जाए। हमें दोबारा गुरुकुल यानी आवासीय शिक्षा व्यवस्था की ओर लौटना होगा। अच्छे गुरुओं को ढूंढकर नए गुरु तैयार करने होंगे। वे गुरु ऐसे हों, जो सरकार से वेतनवृद्धि के लिए कार्य का बहिष्कार न करें, सड़कों पर हड़ताल न करें बल्कि वे बहिष्कार और हड़ताल शिक्षा में गुणवत्ता बढ़ाने के लिए कार्य करें। आज के शिक्षकों को गुरु बनने के लिए नैतिक बनना होगा। उन्हें इस बात पर विचार करना होगा कि जो गुरुकुल नाम की संस्था पहले इतनी सम्माननीय थी, आज उसका महत्व कम क्यों हो गया है? इसके लिए सरकार और शिक्षक दोनों को काम करने की जरूरत है। ऐसा तभी संभव हो सकता है जब शिक्षा-व्यवस्था को धार्मिकता से जोड़ा जाए और शिक्षकों को दोबारा से सम्मान दिया जाए।