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सद्धर्म प्रचारक वैदिक विद्वान महाशय चिरंजीलाल ‘प्रेम’

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26 May 16
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।महर्षि दयानन्द की जीवन ज्योति ने देश में अनेक नये जीवन दीपों को प्रज्जवलित किया था जिसका परिणाम धार्मिक और सामाजिक क्रान्ति सहित देश की परतन्त्रता के निवारण के रूप में सामने आया। अन्य अनेक कार्य भी महर्षि दयानन्द द्वारा वेदों के ज्ञान के प्रचार से देश में सम्पन्न हुए जिससे वैदिक धर्म संसार का एक श्रेष्ठतम धर्म बना और साथ ही देशवासियों के जीवन में उल्लेखनीय उन्नति हुई। महाशय चिरंजीलाल जी ‘प्रेम’ भी एक ऐसा ही नाम है जिन्होंने महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की ज्योति से प्रदीप्त होकर समाज व देश की उल्लेखनीय सेवा की। देश व जाति के इस नायक से देश की नई पीढ़ी सर्वथा अनभिज्ञ है। अतः आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने इस विभूति का जीवन चरित लिख कर इन्हें पुनर्जीवित व अमर कर दिया है। प्रा. जिज्ञासु जी रचित उनकी पुस्तक का उपयोग कर हमने महाशय चिरंजीलाल ‘प्रेम’ का श्राद्ध करने का प्रयत्न किया है। इससे पूर्व कि हम महाशय जी के कार्यों का परिचय दें, महाशय जी के जन्म व परिवार से परिचित हो लेते हैं।

महाशय चिरंजीलाल ‘प्रेम’ जी को महर्षि दयानन्द के गुरु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती की जन्म भूमि ‘करतारपुर’ में जन्म लेने का गौरव प्राप्त है। यह करतारपुर स्थान अमृतसर नगर के पास है। आपका जन्म सन् 1880 में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री शंकरदास था जो रेलवे विभाग में स्टेशन मास्टर थे। महाशय जी की प्रारम्भिक शिक्षा अपने जन्म स्थान पर ही सम्पन्न हुई। महाशय जी जब विद्यार्थी थे तब आप इस्लाम से प्रभावित हुए परन्तु हनुमान जी के समान महर्षि दयानन्द के प्रमुख भक्त पं. लेखराम के धर्म प्रचार के सम्पर्क में आकर आप सनातन वैदिक धर्म का त्याग करने से बच गये। पं. लेखराम जी सन् 1895 में करतारपुर पधारे थे। पं. लेख राम जी को महाशय चिरंजीलाल के अध्यापक श्री हरिराम जी ने करतारपुर में वैदिक धर्म प्रचारार्थ बुलाया था। गुरुजी की आज्ञानुसार सभी विद्यार्थी अतिथि पं. लेखराम जी का स्वागत कर उन्हें लेने के लिए रेलवे स्टेशन पर पहुंचे थे। महाशय चिरंजीलाल जी ने लिखा है कि जब पण्डित जी पधारे तो हमने देखा कि उनकी पगड़ी का अधिक भाग खुलकर उनके गले में पड़ा हुआ था और एक अल्प भाग ही सिर को सुशोभित कर रहा था। जब महाशय जी करतारपुर के आर्यसमाज के उत्सव से वापिस चलने लगे तो वहां मूर्ख और दुष्ट लोगों ने महाशय जी पर मिट्टी, धूल और ईंट-पत्थर बरसाना आरम्भ कर दिया। बाबू शंकरदास जी ने पं. लेखराम जी को कहा कि आप अपने वस्त्रों पर से मिट्टी तो झाड़ लें। पण्डित जी ने उन्हें उत्तर दिया कि बाबू जी! स्टेशन पर पहुंच कर इकट्ठी ही मिट्टी झाड़ेंगे, अभी क्या पता मार्ग में कितनी और पड़ेगी। पण्डित लेखराम जी के विचारों के श्रवण और इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी बालक चिरंजीलाल जी पर वैदिक धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा जिसने उनके जीवन को नई दिशा दी।

महाशय चिरंजीलाल प्रेम लाला लाजपतराय जी के पत्र ‘दैनिक वन्देमातरम्’ तथा महाशय कृष्ण जी के दैनिक ‘प्रताप’ पत्रों के सहायक सम्पादक रहे। जब आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब ने पं. लेखराम जी की स्मृति में ‘आर्य मुसाफिर’ नामक मासिक उर्दू पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया तो इसका आद्य सम्पादक महाशय ‘प्रेम’ जी को ही बनाया गया। यह ‘आर्य मुसाफिर’ पत्र का पुनर्प्रकाशन था। यह पत्र अपने समय का प्रमुख व सर्वश्रेष्ठ पत्र था जिसके आप सम्पादक थे। आर्यसमाज के उर्दू जानने वाले विद्वानों के लेख तो इस पत्र में प्रकाशित होते ही थे, पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति, पं. भीमसेन जी विद्यालंकार तथा पं. बुद्धदेव विद्यालंकार आदि जैसे उर्दू न जानने वाले विद्वानों के लेख भी इसमें उर्दू रूपान्तर के साथ प्रकाशित होते थे। महाशय जी अनेक भाषाओं के विद्वान थे जिनमें अंग्रेजी, उर्दू, फारसी, अरबी व हिन्दी आदि सम्मिलित हैं। आपका उच्चारण बहुत शुद्ध था। देश विदेश के लेखकों व विद्वानों के साहित्य का आपका अध्ययन व स्वाध्याय भी गहन व गम्भीर था। आपके लेखों व व्याख्यानों में देशी व विदेशी लेखकों व विद्वानों के अनेक उद्धरण होते थे। इसका कारण यह था कि महाशय जी ने सभी महत्वपूर्ण प्रमाणों को अपनी तीव्र स्मरण शक्ति के कारण कण्ठस्थ किया हुआ था। अतः आपके लेखों व व्याख्यानों में कोई भी बात अप्रमाणिक व निराधार नहीं होती थी।

महाशय जी के स्वर व बोलचाल में मिठास थी। बोलते समय आप मन्द मन्द मुस्काते भी रहते थे जिससे श्रोताओं पर आपका कहीं अधिक प्रभाव होता था। व्याख्यान देते समय प्रसंगानुसार आप अपनी आंखें कभी बन्द कर लेते थे और कभी खोल लेते थे। व्याख्यान में अधिक रोचक प्रसंगों व चुटकलों आदि का प्रयोग करना अच्छा नहीं मानते थे परन्तु अपवाद स्वरूप ऐसा हो जाया करता था। अकबर का दाढ़ी खरीदने का प्रसंग आप प्रायः सुनाया करते थे जो काफी लम्बा हो जाया करता था। वर्णन शैली प्रभावशाली होने के कारण श्रोता उबते नहीं थे। आपने मुसलमानों के सभी पन्थ व सम्प्रदायों के मौलवियों से अनेक विषयों पर शास्त्रार्थ किये। मिर्जाई व ईसाई विद्वानों से भी आपने अनेक शास्त्रार्थ किये। क्लासवाला, जिला स्यालकोट के एक शास्त्रार्थ में एक मुस्लिम विद्वान मध्यस्थ थे। शास्त्रार्थ की समाप्ती पर उसका फैसला उन्होंने महाशय चिरंजीलाल ‘प्रेम’ के पक्ष में ही दिया था। आप वार्तालाप व व्याख्यान में चुटकियां लेकर अपनी बातें कहा करते थे जिससे अपने व बेगाने भी मुग्ध हो जाया करते थे। यह भी ध्यातव्य है कि आपने सीमा प्रान्त, सिन्ध, पंजाब, राजस्थान व दिल्ली के साथ केरल तक में जाकर प्रचार किया था। महाशय जी ने ‘मरने के बाद’, कविताओं का संग्रह ‘ऋषि दयानन्द के अहसानात्’ व ‘सूर्ख आंधी’ आदि कई पुस्तकें लिखी हैं। श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आपकी पुस्तक ‘मरने के बाद’ को हिन्दी में अनुदित कर प्रकाशित किया है। आपने एक सर्वधर्म सम्मेलन में ‘वैदिक धर्म में स्त्रियों का स्थान’ विषयक एक व्याख्यान दिया था जो पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ था। आपकी अंग्रेजी में लिखी एक पुस्तक है ’Do Something Be Something’। इसका उर्दू में अनुवाद ‘कुछ करके दिखा कुछ बनके दिखा’ नाम से प्रकाशित हुआ था। महाशय जी अत्यन्त विनोदी स्वभाव के थे। शास्त्रार्थ करते हुए आप कभी उत्तेजित दिखाई नहीं दिए। बतातें हैं कि आप अपनी फुलझड़ियों से विपक्षी वक्ता की कटुता का प्रभाव नष्ट कर देते थे। आपने आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी को उनके बचपन में बताया था कि एक सम्पादक, अध्यापक व मिशनरी को प्रत्येक विषय के बारे में कुछ-कुछ और कुछ विषयों के बारे में सब बातों का ज्ञान होना चाहिए। आर्य समाज के विद्वान और महर्षि दयानन्द के प्रमुख भक्त इस देव पुरुष महाशय चिरंजीलाल ‘प्रेम’ का माह जुलाई, सन् 1957 में निधन हुआ। हमारा दुर्भाग्य है कि आज हमारे पास उनकी कोटि के विद्वान नहीं है। हमारा यह भी दुर्भाग्य है कि हम उनकी सभी पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद करा व उन्हें प्रकाशित कर सुरक्षित न रख सके।

‘आर्य मुसाफिर’ मासिक लाहौर के 1932 के अंकों में आपने स्वराज्य कौन दिलायगा विषयक कुछ सम्पादकीय टिप्पणियां की थी। उन्होंने लिखा था कि श्री पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति, आर्योपदेशक ने गुरुकुल कांगड़ी के उत्सव पर सर्वथा उचित ही कहा था कि यदि भारतवर्ष को सच्चा स्वराज्य मिल सकता है तो केवल आर्यसमाज के द्वारा ही मिल सकता है। इस पर सनातन धर्मी पत्र ‘जागृत’ आग में जलभुन रहा है और लिखता है कि ‘पण्डित जी अपने आपको और अपने साथियों को प्रसन्न करने के लिए चाहे कुछ भी कहें परन्तु घटनायें उनके वक्तव्य का प्रतिवाद कर रही हैं।’ महाशय जी इसके आगे लिखते हैं कि ठीक है यदि भारत को स्वराज्य दिला सकेगा तो ‘जागृत’ का सनातन धर्म ही दिला सकेगा क्योंकि यही तो धर्म है जो भारतीयों को उन्नति के गुर बताता रहता है कि बाल विवाह करो, दलितों को मन्दिरों में प्रविष्ट न होने दो, बिछड़ों को गले न लगाओ, पत्थरों, वृक्षों, जल व अग्नि की पूजा करो, ब्राह्मणों को पूजो, भले ही वे बूट ही क्यों न पालिश करते हों और मंगल व शनिश्चर ग्रहों के फेर में पड़े हुए भारत की नौका को ठीक मंझधार में डुबो कर ईश्वर के गुण गाओं और फिर उच्च स्वर से कहो-बोलो सनातन धर्म की जय। यहां हम अपनी ओर से इतना कहना चाहते हैं कि परिणाम सदैव कार्य व क्रिया के अनुरूप होता है। देश को स्वतन्त्रता यदि मिल सकती थी तो वह समाज व देश के सुधार सहित बलिदानों से ही मिल सकती थी, अविद्या व अन्धविश्वासों से तो कदापि नहीं।

महाशय चिरंजीलाल ‘प्रेम’ जी ने उर्दू, फारसी व अंग्रेजी में उच्च कोटि की काव्य रचनायें की है। प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने उनकी रचनाओं की खोज कर उनके संक्षिप्त जीवन चरित्र को पुस्तक ‘‘प्रेम-तरंग” में दिया है। हम इस लेख विराम देते हुए पाठकों की जानकारी के लिए महाशय जी लिखित एक प्रसिद्ध भजन दे रहे हैं जो देशोद्धारक स्वामी श्रद्धानन्द जी का प्रिय भजन था। भजन में आये कठिन उर्दू शब्दों के हिन्दी अर्थ भजन के अन्त में प्रस्तुत कर दिए हैं। भजन का शीर्षक है ‘मुझे धर्म वेद से हे पिता सदा इस तरह का प्यार दे। कि न मोडूं मुख कभी इससे मैं कोई चाहे सर भी उतार दे।’ पूरा भजन इस प्रकार है।

मुझे धर्म वेद से हे पिता सदा इस तरह का प्यार दे1।
कि न मोडूं मुख कभी इससे मैं कोई चाहे सर भी उतार दे।

वोह कलेजा राम को जो दिया, वोह जिगर जो बुद्ध को अता किया।
वोह उदार दिल दयानन्द सा घड़ी भर मुझे भी उधार दे।।

न हो दुश्मनों से मुझे गिला, करूं मैं बदी की जगह भला।
मेरे मुख से निकले सदा दुआ, कोई चाहे कष्ट हजार दे।।

नहीं मुझको खाहशे मर्तबा, न मालोजर की हवस2 मुझे।
मेरी उमर खिदमते खल्क में मेरे ईश्वर तू गुजार दे।।

न किसी का मर्तबा देखकर, जले दिल में नारे हसद3 कभी।
जहां पर रहूं रहूं मस्त मैं, मुझे ऐसा सबरो करार4 दे।।

मुझे प्राणी मात्र के वास्ते, करो सोजे दिल5 वोह अता6 पिता।
जलूं इनके गम में मैं इस तरह, कि न खाक तक भी गुबार7 दे।।

मेरी ऐसी जिन्दगी हो बसर कि हूं सुर्खरू तेरे सामने।
न कहीं मुझे मेरा आतमा ही, यह शर्म लैलो निहार8 दे।।

लगे जख्म दिल पै अगर किसी के तो मेरे दिल में तड़प उठे।
मुझे ऐसा दे दिल दर्दरस, मुझे ऐसा सीना फिगार दे।।

है ‘प्रेम’ की यही कामना, यही एक उसकी है चाहना।
कि वोह चन्द रोजा हयात को, तेरी याद में ही गुजार दे।।

कठिन शब्दों के अर्थः 1 पुराने समय में ‘प्रेम’ जी की यह रचना सभी आर्यसमाजों में गाई जाती थी। जिन दिनों हरिद्वार के निकट गंगा पार गुरुकुल कांगड़ी होता था तब रात्रि समय में पहरा देते समय स्वामी श्रद्धानन्द जी झूम झूम कर इसे गाया करते थे। 2 हवस=लालसा, 3 हसद=द्वेषाग्नि 4 करार=सन्तोष व धीरज, 5 सोजे दिल=तड़पन, 6 अता=प्रदान, 7 गुबार=धुल के गणों से उठता धुंआं सा, 8 निहार=दिन रैन, 9 फिगार दे=घायल, 10 हयात=स्वल्प जीवन।

महाशय जी की सभी रचनायें उर्दू में होने के कारण आज की हिन्दी पठित युवा पीढ़ी को इन्हें पूरी तरह से समझना सम्भव नहीं है परन्तु यह अपने समय में उर्दू जानने वाले हर व्यक्ति की जुबान पर उपलब्ध रहतीं थीं। इस लेख को प्रस्तुत करने का हमारा उद्देश्य महाशय चिरंजीलाल जी ‘प्रेम’ के व्यक्तित्व व कृतित्व का संक्षिप्त रूप में प्रकाश करना है। हम अपने प्रयोजन में सफल हुए या नहीं, इसका निर्णय पाठकों के हाथ में है। इस लेख को हमने प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की पुस्तक ‘प्रेम-तरंग’ के आधार पर लिखा है। एतदर्थ हम उनका हृदय से आभार एवं धन्यवाद व्यक्त करते हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य
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