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“रामनवमी संसार के एक प्राचीन आदर्श राजा राम से जुड़ा पावन पर्व है”

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15 Apr 19
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“रामनवमी संसार के एक प्राचीन आदर्श राजा राम से जुड़ा पावन पर्व है”

भारत का सौभाग्य है कि इस देश की धरती पर सृष्टि के आरम्भ में सर्वव्यापक ईश्वर से चार ऋषियों को चार वेदों का ज्ञान प्राप्त हुआ था। इन चार वेदों के विषय ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विशिष्ट ज्ञान है। वेद ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं। यह पौरूषेय रचना नहीं अपितु अपौरूषेय रचना है। वेदों के अतिरिक्त संसार के सभी ग्रन्थ मनुष्यों द्वारा रचित पौरूषेय रचनायें हैं। मनुष्य एकदेशी अनादि सूक्ष्म चेतन तत्व होने से अल्पज्ञ है। अल्पज्ञ का अर्थ है मनुष्य का ज्ञान अत्यन्त अल्प होता है। ईश्वर अनादि, अनन्त, सब विकारों से रहित, सुख व दुःख से भी रहित, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान एवं सर्वान्तरर्यामी होने से सर्वज्ञ है। वह सुष्टि के आदिकालीन इतिहास से अब तक की सब वस्तुओं को जानता है तथा उसे इस सृष्टि की रचना, पालन, प्रलय, जीवों के कर्म, उनके फल का विधान आदि सभी प्रकार का सत्य, पूर्ण, यर्थात एवं दोषरहित ज्ञान है। ईश्वर निष्पक्ष एवं न्यायकारी अनादि एवं अविनाशी सत्ता है। उसके न्याय के सम्मुख संसार के सभी न्याय तुच्छ है। मनुष्य अच्छे व बुरे कर्म करके सांसारिक न्याय व दण्ड व्यवस्था से तो बच सकता है परन्तु ईश्वर का विधान है कि उसे अपने प्रत्येक शुभ व अशुभ कर्म का फल ईश्वर की व्यवस्था से मिलता है। संसार में इसका भलीभान्ति पालन होता भी दिखाई दे रहा है। हमारे व सभी प्राणियों के अस्तित्व का कारण हमारे पूर्व जन्म-जन्मान्तरों के वह कर्म हैं जिनका जन्म लेने से पूर्व भोग नहीं हुआ था। इसका कारण है कि सरकारी व शासकीय व्यवस्था किसी मनुष्य के सभी कर्मों का फल व भोग प्रदान नहीं करा सकती।

 

                मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम त्रेता युग में न्यूनतम 8.70 लाख वर्षों से भी पूर्व इस संसार में ऐसे ही महापुरुष थे जैसे कि आज संसार में कुछ इन गिने श्रेष्ठ महापुरुष हो सकते हैं। उन सबसे अधिक गुणवान, बल, शक्ति, श्रेष्ठ वेदों का आचरण करने में वह अग्रणीय थे। राम विश्व इतिहास के आदर्श राजा हैं। उनके राज्य में सबसे न्याय होता था। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के राज्यकाल में सब को वेद पढ़ने और अपने जीवन में श्रेष्ठ गुणों को धारण करने का अधिकार था। लोग ऋषि मुनियों के आश्रम में जाकर निःशुल्क वेद वेदांगों का अध्ययन करते थे। जन्मना जातिवाद, दलित, अगड़े-पिछड़ों व अस्पर्शयता आदि की कोई समस्या नहीं थी। सब धनवान थे और सुखी व वैदिक मान्यताओं के अनुरूप जीवन जीते थे। राम के न्याय से डर कर किसी व्यक्ति में अपराध करने का विचार तक भी नहीं आता था। यदि कोई करता था तो उसे राज्य व्यवस्था से तत्काल व शीघ्रतम दण्ड मिलता था। रामचन्द्र जी में किसी मनुष्य में धारण करने योग्य सभी गुण अपनी पराकाष्ठा में थे। इसी से प्रेरित होकर उस युग के महान महाकवि ऋषि बाल्मीकि जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम को अपने इतिहास लेखन का चरित नायक बनाया था। ऋषि वह होता है जो किसी के गुणों की मिथ्या प्रशंसा या चापलूसी नहीं करता जैसा कि आजकल देश की राजनीति में प्रतिदिन देखने को मिलता है। ऋषि यदि किसी के गुण का उल्लेख करता है तो वह उसमें अवश्य होता है। वह अधिक को बहुत अधिक न प्रकट कर सन्तुलित या सम्यक रूप में ही प्रस्तुत करता है। हम अनुमान करते हैं कि बाल्मीकि रामायण में श्री रामचन्द्र जी के जिन गुणों का वर्णन है, उनमें वह गुण कहीं अधिक विद्यमान थे।

 

                बाल्मीकि रामायण को लिखे लाखों वर्ष हो गये। मध्यकाल में कुछ दुष्ट आत्माओं ने भारत के ऋषियो ंके ग्रन्थों में अपनी मिथ्या व स्वार्थपूर्ण मान्यताओं का प्रक्षेप कर इन्हें दूषित करने का प्रयास किया। मनुस्मृति सहित रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थों में वेद विरुद्ध अनेक प्रक्षेप किये गये। देश व संसार ऋषि दयानन्द के ऋणी हैं जिनकी मेधा बुद्धि ने मध्यकाल में स्वार्थी लोगों द्वारा किये गये प्रक्षेपों को जाना, पहचाना व उन्हें पहचानने करने की कसौटी बताई। उन्होंने कहा है कि वेद-विरुद्ध प्रक्षेप विष-सम्पृक्त अन्न के समान होता है। ऋषियों के ग्रन्थों में कोई भी वेद विरुद्ध या प्रसंग विरुद्ध बात आती है तो वह प्रक्षिप्त होती है। इसी आधार पर आर्य विद्वानों ने मनुस्मृति का संशोधन एवं सुधार किया है। ऋषि दयानन्द-भक्त स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती जी ने भी इस सिद्धान्त व नीति के आधार पर रामायण एवं महाभारत का परीक्षण कर उनके शुद्ध संस्करण प्रस्तुत किये हैं जिससे मानव जाति का अत्यन्त उपकार हुआ है। अनेक उपनिषदें भी ऐसी हैं जिनमें वेदविरुद्ध अंश पाया जाता है। ऐसे ग्रन्थ या तो वेदों के सत्य ज्ञान से अनभिज्ञ विद्वानों के लिखे ग्रन्थ होते हैं या फिर वह प्रक्षिप्त होते हैं। इसी कारण आर्यसमाज उपनिषदों में केवल 11 उपनिषदों को प्रामाणिक मानता है।

 

                श्री रामचन्द्र जी के जीवन की जो घटना मनुष्यों को सबसे अधिक प्रभावित करती है वह उनका माता-पिता का आज्ञाकारी होना है। उन्होंने दिखा दिया कि पिता की आज्ञा के सम्मुख चक्रवर्ती राज्य भी महत्व नहीं रखता। पिता की आज्ञा दिये बिना केवल परिस्थितियों को जानकर राजा रामचन्द्र जी ने 14 वर्ष के लिये वन जाकर रहने का अपूर्व निर्णय किया था और वहां वह वनवासी लोगों के सम्पर्क में आये थे। उनका सहयोग करते व लेते हुए उन्होंने वहां की राज्य व्यवस्था को भी ठीक किया था। वनवास की अवधि में ही उन्होंने सुग्रीव के महाबली भाई बाली का वध किया था। बाली से उनका किसी प्रकार का वैरभाव नहीं था परन्तु बाली ने सुग्रीव के साथ जो अधर्मयुक्त व्यवहार किया था उसका दण्ड देने के लिये उन्होंने एक राजा होने के कारण दण्डित कर उसे प्राणदण्ड दिया था। यह एक प्रकार के उस समय के दुष्ट राजाओं को एक उदहारण था कि यदि कोई राजा अधर्मयुक्त आचरण करेगा तो वह राम से दण्डित हो सकता है। जिन दिनों रामचन्द्र जी वन में थे, वहां ऋषि, मुनि, साधु, संन्यासी व साधक ईश्वर का साक्षात्कार करने की साधना करते थे। उनका समय ईश्वर विषयक ग्रन्थों के स्वाध्याय, साधना, ईश्वरोपासना एवं अग्निहोत्र यज्ञ आदि सहित गोपालन व कृषि कार्यों में व्यतीत होता था। लंका के राजा रावण के राक्षस सैनिक उन्हें परेशान करते व मार देते थे। राम चन्द्र जी के वन में आने से उन्होंने ऋषियों की रक्षा का व्रत लिया और वनों को प्रायः सभी राक्षसों से रहित कर दिया था। इससे सभी ऋषि मुनियों की सुरक्षित जीवन सुखमय उपलब्ध हुआ था और सबने रामचन्द्र जी को अपना आशीर्वाद दिया था जिससे आगे चलकर राम-रावण युद्ध में वह सफल हुए थे।

 

                वनवास में रहते हुए राम चन्द्र जी की धर्मपत्नी माता सीता जी का रावण ने अपहरण कर लिया था। राम ने सुग्रीव के सहयोग से सेना तैयार की और समुद्र पर पुल बांधने का अद्वितीय व आज भी असम्भव कार्य किया था। उनके सभी सैनिक लंका पहुंचे थे और उस समय के सबसे शक्तिशाली राजा रावण से युद्ध कर उसके सभी सेनापतियों व योद्धओं को मार डाला था। रावण स्वयं युद्ध में मारा गया। यह राम-रावण युद्ध धर्म-अधर्म के मध्य युद्ध था जिसमें धर्म की विजय हुई थी। राम वैदिक आर्य राजनीति के मर्मज्ञ थे। उन्होंने लंका को अपना उपनिवेश न बनाकर रावण के धार्मिक प्रवृत्ति के भाई विभीषण को वहां का राजा बना कर एक प्रशंसनीय उदाहरण प्रस्तुत किया था। रावण की ही तरह पड़ोसी देश पाकिस्तान का भी विगत 72 वर्षों से भारत के साथ व्यवहार है। वह आतंकवाद के माध्यम से भारत से छद्म युद्ध कर रहा है। हमारे हजारों सैनिक इस कारण अपने प्राणों से हाथ धो बैठे हैं। यदि विगत समय में राम जैसा कोई राजा भारत में होता तो उसकी वही दशा होती जो राम ने रावण की की थी। इस दृष्टि से प्रधानमंत्री मोदी जी कुछ अच्छे राजा अर्थात् प्रधानमंत्री सिद्ध हुए हैं। रामायण में राम व सीता जी को हम हर परिस्थिति में धर्म का पालन व धर्म की रक्षा करते हुए देखते हैं। वह विपरीत से विपरीत परिस्थिति में धैर्य रखते थे। धैर्य ही धर्म का प्रथम लक्षण है। इसका हमें भी ध्यान रखना चाहिये। राम चन्द्र जी को एक बलवान, ब्रह्मचारी, वीर, साहसी, देशभक्त, वेदभक्त, ईश्वरभक्त, स्वामीभक्त शिष्य व भक्त हनुमान मिले थे। राम को अपने वनवासी जीवन में उनसे अनेक प्रकार की सहायता प्राप्त हुई। राम व हनुमान का स्वामी-सेवक सम्बद्ध आदर्श सम्बन्ध रहा है। इसे पढ़कर हम ऐसा अनुभव करते हैं कि हमें अपना आदर्श किसी सामान्य व्यक्ति को नहीं अपितु श्री राम जैसे व्यक्ति को बनाना चाहिये जिसमें गुणों की पराकाष्ठा हो। वर्तमान समय में इसकी पूर्ति मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर श्रीकृष्ण व महर्षि दयानन्द के जीवन को अपनाकर की जा सकती है। यदि हम ऐसा करेंगे तभी देश सुरक्षित रहेगा अन्यथा नहीं, ऐसा हम अनुभव करते हैं। रामनवमी के अवसर पर हमें बाल्मीकी रामायण के प्रेरक प्रसंगों को पढ़कर उनसे प्रेरणा लेकर अपने जीवन का कल्याण करना है। इस अवसर पर पौराणिक कथाओं व पूजा के स्थान पर श्री राम चन्द्र के चरित्र पर विद्वानों के प्रवचन होने चाहिये जो उनके गुणों को प्रस्तुत कर लोगों को उन जैसा बनने की प्रेरणा करें। तभी रामनवमी का पर्व मनाना सार्थक हो सकता है।

 

                रामचन्द्र जी की एक बात जो हमें बहुत प्रभावित करती है उसे भी यहां लिख देते हैं। राम ने वनगमन से पूर्व जब पिता को अर्धमूर्च्छित अवस्था में देखा तो उन्होंने उसका कारण बताने को कहा था। दशरथ जी के मौन रहने पर उन्होंने प्रतिज्ञापूर्वक कहा था कि आप मुझे निःसंकोच अपने मन की बात कहें। यदि आपकी आज्ञा पालन करने के लिये मुझे चिता की अग्नि में कूदना भी पड़े तो भी मैं उस पर बिना विचार किए कूद जाऊंगा। इतिहास में किसी पुत्र ने अपने पिता को ऐसी बात कही हो इसका कोई उदाहरण नहीं मिलता। राम ने अपने जीवन में जो कार्य किये वैसे कार्य भी किसी अन्य ने किये हों, विश्व इतिहास में इसका भी कोई उदाहरण नहीं मिलता। हम तो विगत अनेक शताब्दियों से लोगों को सत्ता प्राप्ति के लिये पागल सा हुआ देख रहे हैं। इतिहास में सत्ता के लिए भाई ने भाई को मारा है परन्तु वैदिक धर्म व इतिहास इसके विपरीत है। रामचन्द्र जी के इतिहास को अपनाकर ही देश की समस्याओं का समाधान का हो सकता है। रामनवमी के दिन आर्यों व हिन्दुओं को अपनी घटती जनसंख्या व उसके अनुपात पर भी ध्यान देना चाहिये। इसमें यदि असावधानी हुई तो वेद, वैदिक धर्म व सनातन धर्म इतिहास की वस्तु बन कर रह जायेंगी। रामनवमी पर्व के दिन हमें जन्मना जातिवाद दूर करने की भी शपथ व संकल्प लेना चाहिये। इसी से आर्य हिन्दू जाति सुरक्षित हो सकती है। हमें शुद्ध मन से मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष की अविश्वसनीयता व हानियों सहित अवतारवाद आदि की मान्यताओं पर वेद, दर्शन, उपनिषद एवं गुणदोष के आधार पर विचार एवं निर्णय करना चाहिये। इसी में जाति का हित छिपा हुआ है। चैत्र शुक्ल अष्टमी को जो बाल-नारी पूजन की प्रथायें प्रचलित हैं उस पर भी आधुनिक परिस्थितयों के अनुरूप चिन्तन कर उसे सार्थक रूप देने का प्रयास करना चाहिये। विद्वानों का काम पुरानी वस्तुओं की न्यूनताओं को दूर कर उसे आधुनिक समय के अनुकूल व अनुरूप बनाना होता है तभी वह अधिक लाभप्रद व उपयोगी बनती हैं। लकीर को पीटने से समय एवं भविष्य में हितों की हानि होती है व होती आ रही है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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