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ऐ मेरे नयनाभिराम !!
मेरे इन नयनों से क्या पूछते हो ?
ये बहती हवा, ये लहराती सागर की तरंगें,
उड़ते गीत गाते पंछी, ये ओस की बूंदों की शीतलता , झूलती पेड़ों की डालियां,
ये ज़मीं,ये आसमां ,
क्या ये सभी मेरा हाल- ए-दिल आप तक नहीं पहुँचाते ?
अपने प्रिय को मेरे नयनाभिराम की उपमा से
याद कर प्रकृति के प्रतीकों के माध्यम से अपना संदेश पहुंचाने की ललक को ले कर सृजित इस रचना " ऐ मेरे नयनाभिराम " की रचनाकार डॉ.संगीता देव ने बहुत ही भाव पूर्ण और दिल की गहराइयों में सीधे उतरने वाले सृजन में मन की भावनाओं को शब्दों में खूबसूरत अभिव्यक्ति दी है। प्रतीत होता है पास में न होते हुए भी वे मन ही मन महसूस कर बतिया रही हैं । अपने ख्वाबों को बुनते हुए
रचना को आगे बढ़ाती हुई वे लिखती हैं........
क्या ये बहती हवा मेरी ख़ुशबू आप तक नहीं पहुँचाती ?
ये लहराती सागर की तरंगें ,क्या मेरे दिल की धड़कन आप तक नहीं पहुँचाती ?
ये उड़ते गीत गाते पंछी, क्या मेरा संदेश आप तक नहीं पहुँचाते ?
ये ओस की बूंदों की शीतलता , क्या मेरी हथेलियों के स्पर्श का आभास नहीं देती?
ये पेड़ों की डालिया , क्या किसी को पाने की आशा से नहीं झूल रही ?
ये ज़मीं ,ये आसमाँ, क्या हमारे मिलन का आभास नहीं देते ?
पूछो इनसे
कि हर पल दिलो-दिमाग़ पर ,किसकी छवि समाई है ?
इस छवि का हर एक रूप हँसते, मुस्कराते उदास होते,
किसके सामने रहता है ?
और मन ही मन,
इससे बतियाते हुए क्यों मुस्कराने लगती हूँ ?
ऐ मेरे नयनाभिराम !
मेरी रातों के ख्वाबों, दिवास्वप्नों की ताबीर हो तुम,
मेरी मंज़िल, मेरे आधारस्तम्भ ,
मेरे खुदा हो तुम ।।
** प्रेम भावनाओं को समर्पित “अनन्य प्रेम “ भी एक ऐसा ही सृजन है जिसे वे मन की आंखों से देखती और महसूस करती हैं.........
मैं अक्सर देख लेती हूं ,
तुम्हरा वो स्वरूप, जिसमें है,
बच्चों सी मासूमियत,
सौम्य सी निश्छल- सी हँसी,
मैं अक्सर तुम्हारे प्रेम को,
अपने मन की आँखों से देख लेती हूँ ,
तुम जो नही कहते ,
मैं उसकी भी कल्पना कर लेती हूं,
महसूस कर मेरे लिये,
तुम्हारी चिंता और परवाह,
अनन्य प्रेम मैं पा लेती हूँ,
मैं तुम्हारे चेहरे से ,
तुम्हारे मन के भावों को पढ़ लेती हूं,
फिर उन्हे ढाल लेती हूं,
अपने शब्दों के सांचे में,
और न जाने क्यूं मुझे,
तुम्हरा वो स्वरूप
इतना मोहक लगता है कि,
मानो तुम में संसार के समस्त गुणों का समावेश पा लेती हूँ।
कभी लिखते लिखते,
सोच में पड जाती हूं कि,
कुछ न होते हुए भी ,
मुझे कितना अनमोल बना देता है,
तुम्हारा ये अनन्य प्रेम....
** छंद मुक्त काव्य सृजन की शिल्पी रचनाकार बचपन से ही साहित्यनुरागी रही हैं। नामचीन साहित्यकारों की गद्य-पद्य रचनाएं पढ़ने की धुन सवार रहती थी। युवा अवस्था आते-आते इन्होंने मुंशी प्रेमचंद, शिवानी, शरतचंद्र, अमृता प्रीतम, महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुधा मूर्ति आदि के अधिकांश साहित्य का अध्ययन कर लिया था। इन महान साहित्यकारों की शायद ही कोई रचना बची हो जिसे इन्होंने नही पढ़ा हो। इन्होंने न केवल इनका साहित्य पढ़ा वरन उसे बखूबी समझा भी है । वे हिंदी भाषा में मुख्यत: पद्य विधा में कविताएं लिखती हैं पर यदाकदा गद्य विधा में आलेख भी लिखती हैं।अपनी साहित्यिक वृति को शिक्षा विभाग में आने पर भी आज तक निरंतर बनाए हुए हैं। ये जिला शिक्षण एवम् प्रशिक्षण संस्थान कोटा द्वारा राज्य व जिला स्तरीय शैक्षणिक शोध लेखन से भी जुड़ी हुई हैं। इस संस्थान के माध्यम से आपने साझा रूप से शिक्षा विषयों पर कई शोध कार्य किए हैं और शोध पत्र भी लिखे हैं।
** रचनाकार के चिंतन की धारा काव्य सृजन की ओर बही तो इन्होंने कविताएं लिखना शुरू कर दिया । काव्य सृजन का शोक नया-नया है। अभी तक माँ, रिश्तों, हमारी मातृभाषा, पिता, कोरोना काल में संवेदनाएं, एक डॉक्टर, सूटकेस में लड़की तथा कई अन्य सामाजिक और मानवीय विषयों पर अनेक कविताएँ लिखी हैं। आप अभी तक लगभग 40 कविताएं लिख चुकी हैं। अपने काव्य संग्रह पर पुस्तक प्रकाशित कराने की भी इनकी योजना है।
** इनकी पारिवारिक रिश्तों पर ’मेरे पिता’ शीर्षक से लिखी गई एक भावपूर्ण कविता में पिता के साथ बिताई स्मृतियों को ताजा करते हुए उनके प्यार और दुलार को रेखांकित करते हुए फिर से रानी बिटिया बनाने का आग्रह कितना दिलकश है कि मन भाव विहल हो उठता है..........
मुझे फिर से अपने सीने से लगा लो ना पापा,
फिर से वही रानी बिटिया बना लो ना पापा ।
जाड़ों की ठंड में अपने पास दुबका लेना ,
कभी गर्मागर्म पकौड़े और हलवा बना लेना,
भैया से झगड़ने पर मेरा ही पक्ष ले लेना,
बेटियों पर इस कदर भरोसा कर लेना,
दुनियाँ में ऐसे अनोखे आप ही हो ना पापा ,
फिर से वही रानी बिटिया बना लो ना पापा ।
गर्मियों की दुपहरी में अपने साथ सुला लेना,
तेज धूप से बचाकर अपने पास पढ़ने बिठा लेना ,
साथ बिठाकर आम , तरबूज और ख़रबूजे खिलाना,
सबका मिलकर ताश और कैरम की बाजी लगाना,
दुबारा से वही बचपन लौटा दो ना पापा,
फिर से वही रानी बिटिया बना लो ना पापा ।
ब्याह के दिन स्वयं को काम में डुबो देना,
विदाई के वक्त फिर फूट-फूट कर रो देना,
आशीष और दुआओं से मेरी झोली भर देना,
और नम आँखों से मेरे सुख की कामना करना,
फिर से वो ही स्नेह लुटा दो ना पापा ,
फिर से वही रानी बिटिया बना लो ना पापा ।
** इनके काव्य सृजन के ख़ज़ाने से नारी विमर्श पर एक कविता " नारी की अभिलाषा " बेहद भावपूर्ण है, जिसमें नारी के सभी रूपों को रुपायित करते हुए उनके साथ अपनी भावनाओं का समावेश कर अद्भुत सृजन किया है.............
यदि समझ सको तो
उसे एक नन्ही सी परी समझना,
जो विचरना चाहती है स्वच्छंद अपने घर आंगन
नहीं तो एक पंख विहीन चिड़िया की तरह तो वो है ही
यदि स्नेह दे सको तो
उसे एक स्नेहिल अनुजा समझना,
जो चाहती है अपनी रक्षा का प्रमाण
नहीं तो भ्राता के नियमों की बंदिनी तो है ही
यदि मन को जान सको तो
उसे कोमल तनया समझना,
जो उड़ना चाहती है अपने सपनों की उड़ान
नहीं तो समाज की नज़रबंद तो है ही
यदि जान सको तो
उसे एक समर्पित कुल वधू समझना,
जो पाना चाहती है सहयोग और पारिवारिक सौहार्द
नहीं तो आक्षेपों का केंद्रबिंदु तो वो है ही
यदि पा सको तो
उसमें अपनी अर्द्धांगिनी का रूप पाना,
जो आकांक्षी है प्रेम और सम्मान की
नहीं तो तन-मन लुटाने को बाध्य तो वो है ही
यदि दे सको तो
उसे एक ममता मई जननी का सम्मान देना ,
जो लुटाना जानती है उर के ममत्व को
नहीं तो संतति जनने का यंत्र तो वो है ही
यदि देख सको तो
उसमें एक स्नेहमई माँ का रूप देखना
जो चाह रखती है आदर और परवाह की नहीं तो परवरिश करने वाली धात्री तो वो है ही
यदि मान सको तो
उसको एक सहृदय नारी मानना
और पहुँच सको तो उसके ह्रदय के अंतर तम तक जाना
प्रेम, त्याग, और एक कोमल मन की स्वामिनी तो वो है ही।
** कवियित्री की कविता " धुरी " एक ऐसी रचना है जिसमें सब कुछ धुरी के चारों तरफ घूमता नजर आता है। एक कल्पना की गई है की कोई भी चेतन तत्व उमर का पड़ाव हो, प्रकृति का चक्र हो, दुधमुंहा बच्चा हो, किशोर हो या महिला हो सभी कुछ धुरी पर ही घूमती है। इस कविता की बानगी देखिए..............
कभी सोचती हूं,
जीवन किस धुरी पर घूमता है
उमर के हर पड़ाव पर एक नया चक्र चलता है
हर पल, हर एक शख़्स, अपनी ही धुरी चुनता है ।
सुबह से साँझ तक सूरज का पहिया घूमता है
नौकरीपेशा आदमी रोजी की जुगत में लगता है
दुधमुहा अपनी माँ के पल्लू के इर्द गिर्द घूमता है
तो, किशोर अपने भविष्य का ताना बाना बुनता है
पति, बच्चों, माता पिता के बीच, स्त्री चकरघिन्नी बनती है
तो कभी लगता है , परिवार की धुरी भी तो वही होती है
जीवन की साँझ में उमर का सूरज ढलता है
फिर से नव जीवन, नव अंकुर पल्लवित होता है ।
** मातृभाषा और राष्ट्रभाषा हिंदी के महत्व को ले कर लिखी गई कविता "हिंदी मेरी शान !!" में हिंदी को देश की शान और मान बताते हुए हिंदी भाषा से देश की पहचान बताते हुए ये लिखती हैं............
हिंदी ! तुम मेरा मान हो , मेरे देश की तुम शान हो ।
तुम हो परम पुरातन , तुम ही हो देवों की वाणी,
उतनी ही पावन हो तुम , जितना है गंगा का पानी ।
तुम ही हमारी मातृभाषा , तुम ही हमारी राष्ट्रभाषा,
हमारे जन-गण, जन-मन,और जन-जन की भाषा ।
तुम हो संस्कृत की उत्तराधिकारी,।जननी है वो हर उस भाषा की ,
जो बोली है पूरब से पश्चिम तक और कश्मीर से कन्याकुमारी की ।
तुम हो मन की अभिव्यक्ति भाषा, तुम्हारे बिन मन का क्या है अस्तित्व,
तुम बिन मन कुछ कह न पाए , तुमसे ही तो है मानव का व्यक्तित्व ।
भारत में ही यदि तुम ना रहोग़ी ,तो क्या ! कोई विदेशी आकर रहेगा ?
अस्तित्व हो तुम भारत का, हिंदुस्तान तुम्हीं से है और तुम्हीं से रहेगा ॥
हिंदी ! तुम मेरा मान हो , मेरे देश की तुम शान हो ।
** एक लड़की जब बड़े अरमानों से बाबुल का घर छोड़ कर सुसराल जाती है और उस पर अत्याचार होते हैं फिर भी वह दानवों के वारों को सहती रहती है और अत्याचारों की सीमा इतनी बाद जाति है कि उसके टुकड़े कर कभी सूटकेस में बंद कर दिए जाते हैं, कभी तंदूर में स्वाह कर दी जाती है तो कभी खलिहानों में फेंक दी जाती है । नारी पर अत्याचार की पीड़ा के तानेबाने को बेहद मार्मिक रूप से इन्होंने अपनी कविता में जिस प्रकार बुना है वह हमारे सामाजिक मानकों और नारी विवशता पर गंभीर कटाक्ष है, इनकी कविता "आख़िर क्यों - ए लड़की"...................
.आख़िर क्यों - ए लड़की
स्वजनों का प्यार, माँ की ममता,
भाई का स्नेह और पिता की चिंता,
सब कुछ त्याग यूँ साथ चली आई,
अपने पराये को ना तू पहचान पायी।
कभी तो दरिंदगी को तू जान लेती,
उस दानव को त्याग घर को लौट आती।
क्यों इतना अपमान तुम सहती रही ?
तिल तिल कर जीते जी मरती रही ?
क्यों रातों की नींद और दिन का चैन,
उस दानव पर तुमने यूँ निसार किया ?
क्यों नहीं उसका पुरज़ोर विरोध किया ?
अपने अपमान का डटकर बदला लिया ?
क्यों अपने स्वाभिमान के लिए नहीं रही खड़ी ?
अपने जीवन के लिए तुम नहीं लड़ी ?
अरे !
इतना भी ना हुआ, तो मात-पिता से जा मिलती
दुख दर्द का अपनों को जाकर बयाँ तो करती
वो ठहरे जीवनदाता ही तो तेरे
सदा ही खड़े थे वो साथ में तेरे
तब यूँ ना टुकड़ों में तुम काटी जाती
फ्रिज और सूटकेस में ना बंद की जाती
खेतों और खलिहानों में ना फेंकी जाती
और यूँ ना इनसानियत ही शर्मसार होने पाती !!
ये रचनाएं बानगी हैं रचनाकार के गहरे भावों के सृजन की। रचनाओं में प्रेम और विरह का काल्पनिक स्वरूप, सामाजिक और पारिवारिक संदर्भों में छिपा संदेश और चेतना की दिल को छूने वाली अभिव्यक्ति ही इनके सृजन का मर्म है। सामाजिक परिवेश का वर्तमान और संदर्भ के साथ स्पंदन देखते ही बनता है। सामाजिक विद्रूपता पर करारी चोट समाज की सच्चाई को बता कर चेताती है और मन की आंखें खोलती हैं। सहज और सरल भाषा में लिखी कविताएं ह्रदय स्पर्शी हैं।
** परिचय :
भावपूर्ण और अर्थपूर्ण काव्य सृजन से
साहित्य में अपनी जमीन बनाती रचनाकार डॉ.संगीता देव का जन्म 7 मार्च 1973 को रामगंजमंडी में स्व.हसराज सुनेजा के परिवार में हुआ। बचपन में ही मातृत्व सुख से विमुख हो गई । इनकी हायर सेकेंडरी तक की शिक्षा रामगंजमंडी में हुई। राजकीय महाविद्यालय कोटा से टॉपर रह कर गोल्ड मेडल के साथ रसायन विज्ञान में एम.एससी. और एम.फिल.की डिग्री प्राप्त की। आपका विवाह न्यूरोलॉजी के चिकित्सक डॉ.अमित देव के साथ हुआ । जब वे जयपुर में एम.एस.कर रहे थे उसी दौरान संगीता ने राजस्थान विश्व विद्यालय से शिक्षा में एम.एड और " मध्यान भोजन का छात्रों के नामांकन, उपस्थिति तथा ठहराव पर प्रभाव का अध्ययन” विषय पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। आप वर्ष 1997 में शिक्षा विभाग में चयनित हो कर राजकीय माध्यमिक विद्यालय गंगधार में अध्यापिका नियुक्त हुई। आपने सर्व शिक्षा अभियान में कोटा शहर ब्लॉक प्रभारी के रूप में भी सेवाएं दी। वर्तमान में आप कोटा में राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय गोपाल मिल, कोटा में सेवा रत हैं। आपकी रचनाएं विभागीय पत्रिकाओं के साथ - साथ विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित होती हैं। कभी-कभी साहित्यिक मंच पर काव्यपाठ भी करती हैं। विभिन्न संस्थाओं द्वारा आपको सम्मानित भी किया गया है। पर्यावरण के प्रति बेहद सचेत हैं और आने आवास की छत पर 600 प्रकार के पौधों का एक खूबसूरत गार्डन बना रखा है। विभिन्न संस्थाओं से जुड़ कर समाजसेवा में भी कदम बढ़ाए हैं। आपकी संगीत और पाक कला में भी गहरी रुचि रखती हैं। आपके पति डॉ.अमित देव कोटा हार्ट इंस्टिट्यूट में सीनियर न्यूरोलॉजिस्ट के रूप में सेवाएं दे रहे हैं। बहुत ही सहज और सरल व्यक्तित्व वाले डॉ.अमित को फोटोग्राफी खास कर एनिमल फोटोग्राफी में न केवल विशेष रुचि है वरन वे एनिमल्स के व्यवहार और मनोविज्ञान की भी अच्छी समझ भी रखते हैं। हर काम का प्रचार करने के युग में भी प्रचार से दूर रहने वाली संगीता पर्यावरण, समाज सेवा और साहित्य सृजन में लगी रहती हैं।
चलते - चलते............
ईश्वर से विनती है यही मेरी
दुनिया जहां की सारी ख़ुशियाँ हो तुम्हारी
और यूँ ही जुड़ा रहे ये परिवार हमारा
जिस तरह बांधा है बहुत प्यार से तुमने ।