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विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली से प्रकाशित मनु-प्रबोध पुस्तक का परिचय”

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09 Sep 25
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  जो बन्धु विस्तृत मनुस्मृति वा मौलिक मनुस्मृति आदि ग्रन्थों को न पढ़कर संक्षेप में मनुस्मृति के प्रमख विचारों व सिद्धान्तों से परिचित होना चाहते हैं उनके लिये मनु-प्रबोध पुस्तक लाभदायक है। इस पुस्तक के प्रथम संस्करण का प्रकाशन इसी वर्ष 2025 में आर्य साहित्य के प्रमुख प्रकाशक ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, 4408, नई सड़क, दिल्ली-110006, दूरभाष 011-23977216 एवं 011-65360255 की ओर से इसके यशस्वी प्रकाशक श्री अजय आर्य जी ने किया है। इस 120 पृष्ठों की ‘मनु-प्रबोध’ पुस्तक की सम्पादिका हैं डा. सुनीता ठक्कर जी। डा. सुनीता ठक्कर जी आर्यजगत् की प्रसिद्ध विदुषी आचार्याओं डा. सूर्यादेवी चतुर्वेदा एवं आचार्या डा. धारणा याज्ञिकी जी की शिष्या रही हैं। इन्हीं को एवं अपने माता व पिता को उन्होंने अपनी इस कृति को समर्पित किया है। इस पुस्तक का मूल्य रुपये 80.00 है। 

 

मनु-प्रबोध की सम्पादिका महोदया जी ने बतया है कि जो अन्य स्मृतियां मनुस्मृति के विरुद्ध हैं वह प्रशंसा के योग्य नहीं हैं। ईश्वर प्रदत्त वेदज्ञान के अनुकूल होने के कारण यह मनुस्मृति ही सबसे प्रधान और प्रशंसनीय है। लेखिका पुस्तक की भूमिका ‘मनोगत’ में बताती हैं कि मनु महाराज ने जो कुछ कहा है वह मानव जीवन के लिए परम-औषधरूप है। इस ग्रन्थ में मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष के लिए उपदेश हैं। चारों आश्रमों, चारों वर्णों, राजधर्म, इनके कर्तव्याकर्तव्यों आदि का विषय मनुस्मृति में वर्णित है। इस मनुस्मृति ग्रन्थ में किसी जाति विशेष की निन्दात्मक कोई बात नहीं है। 

 

लेखिका अपनी भूमिका में बताती हैं कि आजकल एक अनाधार विवाद चल पड़ा है कि मनुस्मृति में जन्मना जाति के आधार पर शूद्रों को अस्पृश्य कहा है। प्रतीत होता है कि ऐसे लोगों ने कभी मनुस्मृति को पढ़ना तो दूर रहा पुस्तक रूप में भी इस मनुस्मृति ग्रन्थ के दर्शन नहीं किए होंगे। केवल सुनी बातों पर विश्वास करके व्यर्थ वितण्डा खड़ा करना, मनुस्मृति को जलाना, सभा-स्थलों में पुस्तक दिखाकर उसकी निन्दा करके तथाकथित शुद्रों को भड़काना आदि अनर्गल बातों को प्रश्रय दे रहे हैं। यहां हम यह भी बता दें कि वेदों के परम ज्ञानी एवं भक्त महर्षि दयानन्द गुण-कर्म व स्वभाव के अनुसार चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र को मानते हैं। महर्षि दयानन्द की इस विषयक मान्यता का वर्णन उनके अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में मिलता है। 

 

पुस्तक की सम्पादिका जी ने भूमिका में यह भी बताया है कि मनुस्मृति ग्रन्थ में 16 संस्कार, पंचमहायज्ञ, भक्ष्याभक्ष्य, शुद्धि के प्रकार, विवादों का निर्णय, साक्षियों और दूतों के लक्षण, युद्धनीति, कर्म फल, लोकव्यवहार, सुखी जीवन के उपाय आदि अनेक विषयों का प्रतिपादन किया गया है। 

 

प्रस्तुत पुस्तिका मनु-प्रबोध में मनुस्मृति के भाष्यकार लब्ध-प्रतिष्ठित वैदिक अनुसंधानकर्ता पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय तथा डा. सुरेन्द्र कुमार जी द्वारा व्याख्यात श्लोकों का संकलन किया गया है। यथास्थान प्रक्षेप रहित मनुस्मृति के प्रबल समर्थक महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा उनके ग्रन्थों मे उद्धृत अर्थों को भी लिया गया है जिससे पाठक यथार्थ अर्थों से अवगत हो सकेंगे। 

 

इस लघु मनु-प्रबोध पुस्तक में मनुस्मृति के सभी 12 अध्यायों से श्लोकों का संकलन किया गया है और सभी श्लोकों को एक शीर्षक देकर श्लोक के संस्कृत पदों को (अन्वय में) एवं हिन्दी भाषा में उनके अर्थों को प्रस्तुत किया गया है। संस्कृत श्लोकों के सभी पदों को अन्वय के अनुरूप हिन्दी अर्थ से पूर्व दिया गया है जिससे पाठक सभी श्लोक में आये सभी संस्कृत पदों के अर्थों को भी जान व समझ सकें। 

 

मनुप्रबोध नामी इस पुस्तक में अध्यायानुसार जिन श्लोकों को सम्मिलित किया गया है उनकी संख्या यहां प्रस्तुत की जा रही हैः-

 

1- प्रथम अध्याय 11

2- द्वितीय अध्याय 34

3- तृतीय अध्याय 14

4- चतुर्थ अध्याय 39

5- पंचम अध्याय 9

6- षष्ठ अध्याय 15

7- सप्तम अध्याय 23

8- अध्टम अध्याय 14

9- नवम अध्याय 18

10- दशम अध्याय 4

11- एकादश अध्याय 4

12- द्वादश अध्याय 24

 

पुस्तक में आये सभी मन्त्रों में से जिन मन्त्रों पर महर्षि दयानन्द जी के अर्थ वा वचन सत्यार्थप्रकाश एवं संस्कारविधि आदि ग्रन्थों में मिलते हैं, उनको भी इस पुस्तक में मन्त्र के अन्वयार्थ के साथ उसके नीचे प्रस्तुत किया गया है जिससे इस पुस्तक की उपयोगिता बढ़ गई है। 

 

यह मनु-प्रबोध पुस्तक आद्योपान्त पढ़ने योग्य है। वैदिक धर्म एवं संस्कृति के प्रति निष्ठावान एवं स्वाध्यायप्रेमी बन्धुओं को इस पुस्तक को प्राप्त कर इसका अध्ययन करना चाहिये। बड़ों को इस पुस्तक को अपने किशोर व युवा सदस्यों को पढ़ने की भी प्रेरणा करनी चाहिये तभी इस पुस्तक के प्रकाशक एवं सम्पादिका जी को सन्तोष होगा। हम भी इस पुस्तक के अधिक से अधिक प्रचार व प्रसार की प्रेरणा करते हैं। ओ३म् शम्। 


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