GMCH STORIES

अद्वितीय महापुरुष महर्षि दयानन्द

( Read 4815 Times)

12 Feb 24
Share |
Print This Page

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

अद्वितीय महापुरुष महर्षि दयानन्द

महर्षि दयानन्द जी का 200वां जन्म दिवस है। उनके जन्म दिवस को 200 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। इस अवसर पर ऋषि दयानन्द की जन्म भूमि टंकारा-गुजरात में एक भव्य एवं विशाल आयोजन किया गया है। इस आयोजन में दिनांक 11-2-2024 को भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी का सन्देश प्रसारित हो चुका है। आज दिनाक 12 फरवरी को भारत की महामहिम राष्ट्रपति जी टंकारा पधार कर ऋषि को अपनी श्रद्धांजलि देने सहित इस अवसर के अनुरूप अपना सन्देश आर्यजनता और देश को देंगी। हम भी आज स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं कि हमने अपने जीवन ऋषि दयानन्द की शिक्षाओं को अपनाया है और इससे हमारे जीवन का कल्याण एवं उन्नति हुई है। हम ऋषि दयानन्द को इस पावन दिवस पर नमन करने सहित ईश्वर का धन्यवाद करते हैं। 

    जब हम ऋषि दयानन्द जी के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि ऋषि दयानन्द का जन्म ऐसे समय हुआ जब हमारा प्रिय भारतवर्ष-आर्यावर्त देश अविद्या के अन्धकार में डूबा हुआ था तथा विदेशियों का दास वा गुलाम था। ऋषि दयानन्द जी का जन्म गुजरात प्रदेश के टंकारा में 12 फरवरी, 1824 को हुआ था। आयु के चैदहवें वर्ष में शिवरात्रि के दिन व्रत-उपवास सहित पूजा आदि कर्तव्यों को करते हुए उन्हें सच्चे शिव की खोज करने की प्रेरणा प्राप्त हुई थी। इस दिन दयानन्द जी ने भगवान शिव की मूर्ति पर चूहों को क्रीडा करते हुए देखा था। भगवान शिव के गुणों का मूर्ति में अभाव देखकर उन्होंने सच्चे शिव की खोज और उसकी प्राप्ति का सत्संकल्प लिया था। उनका संकल्प योग साधनाओं वा समाधि को सिद्ध करने के साथ मथुरा के स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से आर्ष विद्या के पठन-पाठन पूरा करने के साथ ही सम्पन्न हुआ था। यह वर्ष सन् 1863 था। इसके बाद आपने अपने गुरु की प्रेरणा से देश वा संसार से अविद्या दूर करने का संकल्प वा व्रत धारण कर इसके लिये कार्य शुरू किया था। स्वामी जी ने ईश्वरीय ज्ञान के चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद को प्राप्त कर उनका अनुशीलन किया था और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचें थे कि चार वेद ही वह सत्य ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था। स्वामी जी ने ईश्वर से चार ऋषियों को वेदज्ञान प्राप्त होने की प्रक्रिया पर सत्यार्थप्रकाश में प्रकाश डाला है जो कि एक व्यवहारिक प्रक्रिया है। ईश्वर सर्वान्तर्यामी सत्ता है। वह हमारी आत्मा में विद्यमान रहती है। अतः उसे हमारे मार्गदर्शन करने के लिए मनुष्यों की भांति अपने मुंह से बोलने की प्रक्रिया न कर आत्मा में अन्तःप्रेरणा द्वारा इष्ट-ज्ञान की स्थापना करने से होती है। हमारे सभी मित्रों को सत्यार्थप्रकाश पढ़ना चाहिये इससे उनका वेदोपत्ति सम्बन्धी भ्रम वा अज्ञान दूर हो सकता है। स्वामी जी ने वेदों का अध्ययन कर वेदों के महत्व पर ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नामक एक अति विशिष्ट ग्रन्थ की रचना भी की है जो वैदिक साहित्य का एक प्रमुख महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को पढ़कर वैदिक मान्यताओं का सत्यस्वरूप प्रकाशित होता है। इसे पढ़कर वेदों को जानना व समझना सरल हो जाता है। यदि इस न पढ़ा जाये तो वेदों का सत्य एवं यथार्थ तात्पर्य समझने में कठिनता होती है। वेदों की महत्ता के कारण ही ऋषि दयानन्द ने वेदों का भाष्य करने का कार्य भी किया। उनका ऋग्वेद पर आंशिक एवं यजुर्वेद के सभी मन्त्रों पर वेदभाष्य सुलभ एवं प्राप्त है। ऋषि परम्परा का अनुकरण करते हुए उनके अनेक शिष्यों ने वेदों के अवशिष्ट भाग पर भी अपने भाष्य व टीकाओं सहित अनेक प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना की है जिससे पाठक अल्प प्रयास व श्रम से वेदों के यथार्थ स्वरूप को जानकर अविद्या से दूर वा मुक्त हो सकते हैं। वेदों के ज्ञान के विलुप्त होने, असुलभ होने व वेदमन्त्रों के विपरीत अर्थों के कारण ही देश के अविद्या फैली थी और आर्यजाति का पतन हुआ था। इस पतन में प्रमुख कारण आज से पांच सहस्र वर्ष पूर्व पांडवों एवं कौरवों में महाभारत नामी भीषण युद्ध का होना भी था। 

    ऋषि दयानन्द ने संसार का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” रचकर धार्मिक और सामाजिक जगत् में व्याप्त अज्ञान एवं अविद्या सहित पांखण्ड एवं कुरीतियों को दूर किया था। अखिल विश्व में सत्यार्थप्रकाश एक अनूठा ग्रन्थ है जिसे हम विश्व साहित्य में सर्वपरि व श्रेष्ठ ग्रन्थ कह सकते हैं। यह ग्रन्थ मनुष्य की अविद्या दूर करने में समर्थ है। इस ग्रन्थ का अध्ययन करने पर मनुष्य शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति करता है। इस ग्रन्थ के पाठन वा अध्ययन से मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा एवं प्रकृति-सृष्टि का सत्य-सत्य ज्ञान प्राप्त होता है। मनुष्य को अपने नित्य व इतर सभी कर्तव्यों का ज्ञान भी होता है। मनुष्य चार पुरुषार्थों ‘धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष’ से परिचित होकर उनकी प्राप्ति में प्रवृत्त होता है जिसमें वेदों के स्वाध्याय सहित पंचमहायज्ञों का मुख्य योगदान होता है। सन्ध्या या ब्रह्म यज्ञ, देवयज्ञ वा अग्निहोत्र, पितृयज्ञ अर्थात् माता-पिता आदि सभी वृद्धों का सेवा-सत्कार, अतिथि यज्ञ वा विद्वानों का सेवा-सत्कार, सभी पशु-पक्षियों वा प्राणीजगत् के प्रति संवेदनशील होना व उनके प्रति दया व करुणा का भाव रखकर उनके भोजन आदि कार्यों में सहयोगी होना आदि कर्तव्य हैं। ऐसे नाना प्रयोजन सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से सिद्ध व सफल होते हैं। अतः सभी मनुष्यों वा देशवासियों को सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़ना चाहिये व उसकी शिक्षाओं को अपने जीवन में ग्रहण व धारण करना चाहिये। 

    ऋषि दयानन्द ने समाज से सभी प्रकार के अन्धविश्वासों को दूर करने के लिये संघर्ष वा आन्दोलन किया था। उन्होंने एक सर्वव्यापक एवं सच्चिदानन्दस्वरूप की उपासना पर बल दिया था तथा उसकी उपासना पद्धति भी हमें प्रदान की है। देश को आजादी की प्रेरणा भी उन्होंने की थी। यह भी बता दें कि ऋषि दयानन्द ईश्वर की पूजा के स्थान पर मूर्तिपूजा को वेदविरुद्ध व अनुचित मानते हैं। उन्होंने योगदर्शन की विधि से ईश्वर की उपासना का उपदेश किया। आर्यसमाज के सभी अनुयायी इसी विधि से ईश्वर की उपासना करते हैं। सभी आर्यसमाजों व गुरुकुलों में बच्चे जीवनपर्यन्त इसी योग पद्धति से ईश्वर की उपासना करते हैं और जीवन में आध्यात्मिक उन्नति करते हैं। स्वामी दयानन्द जी ने अपने जीवन में समग्र क्रान्ति की थी। उन्होंने देश व समाज की उन्नति का कोई कार्य छोड़ा नहीं। वह जन्मना जाति को मरणव्यवस्था की संज्ञा देते थे और गुण-कर्म व स्वभाव के अनुसार वैदिक वर्ण व्यवस्था को उत्तम सामाजिक व्यवस्था मानते थे। 

    महर्षि दयानन्द जी का जीवनचरित एक आदर्श व मर्यादाओं के पालक मनुष्य वा महापुरुष का जीवनचरित् है। सभी को उनका जीवनचरित् पढ़ना चाहिये। अपने जीवन में ऋषि दयानन्द ने कन्या व बालकों की शिक्षा पर बल दिया था। वह कन्याओं व सभी बालकों को वेद व इतर सभी विषयों की गुरुकुलीय पद्धति से शिक्षा दिए जाने के समर्थक थे। ऋषि दयानन्द ने ही सत्यार्थप्रकाश सहित अपने ग्रन्थों व वचनों में स्वराज्य व सुराज्य का सन्देश दिया था। ऋषि दयानन्द अप्रतिम गोभक्त भी थे। वह संस्कृत व हिन्दी को प्रमुख रूप से पढ़ने के समर्थक थे। वह अन्य भाषाओं के ज्ञान की महत्ता को भी समझते थे और संस्कृत व हिन्दी भाषा के ज्ञान के पश्चात अन्य भाषाओं को जानने का सन्देश भी उनके जीवन से मिलता है। 

    महर्षि दयानन्द जी का एक मुख्य सन्देश यह था कि अविद्याका नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। आर्यसमाज ने अपने जन्मकाल से इस कार्य को किया है। वर्तमान में ऐसा लगता है कि लोग अविद्या के नाश में जागरूक व सहयोगी नहीं है। अतः अविद्या का नाश नहीं हो पा रहा है और न ही विद्या की वृद्धि हो पा रही है। आर्यसमाज को अपने इस कार्य में भविष्य में भी सक्रिय रहना है। ऐसा करके ही हम वेदों के सन्देश ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ को प्राप्त हो सकते हैं। 

    प्रसन्नता की बात है कि भारत व गुजरात सरकार के सहयोग से टंकारा में ऋषि दयानन्द जी का एक भव्य, दिव्य एवं विशाल स्मारक बन रहा है। शीघ्र ही इस स्मारक का निर्माण कार्य पूरा हो जायेगा। आर्यों का यह एक प्रमुख तीर्थ होगा। देश-विदेश के लोग यहां आकर ऋषि जीवन एवं वेदों के मार्ग पर चलने की प्रेरणा ग्रहण करेंगे। इस कार्य को सम्पादित कराने के लिए हम भारत के प्रधानमंत्री सहित ऋषिभक्त आचार्य देवव्रत जी, महामहिम राज्यपाल, गुजरात सरकार, प्रसिद्ध ऋषिभक्त पद्मश्री श्री पूनम सूरी जी, प्रधान, डीएवी मैनेजमेन्ट कमिटी एवं सभी आर्य नेताओं का धन्यवाद करते हैं जो ऋषि जन्म स्थान टंकारा पर भव्य स्मारक बनाने में सहयोगी हैं। 

    ऋषि जन्म दिवस की 200 वीं जन्म शताब्दी पर सभी आर्यबन्धुओं एवं बहिनों को हार्दिक शुभकामनायें। ईश्वर करे धन्यवाद सहित ऋषि दयानन्द जी की पावन स्मृतियों को सादर नमन। 
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः 9412985121 
 


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Chintan
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like