आचार्य भद्रसेन जी आर्यसमाज के उच्चकोटि के विद्वान एवं ऋषिभक्त थे। आपके सुपुत्र कैप्टन देवरत्न आर्य जी आर्यसमाज के प्रति पूर्णतया समर्पित होने सहित आर्यसमाज को आगे बढ़ाने वाले प्रशंसनीय नेता एवं विद्वान थे। वह सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली के प्रधान भी रहे। कैप्टन देवरत्न आर्य जी ने आर्यजगत में शीर्ष विद्वानों के सम्मान की एक अनूठी योजना आरम्भ की थी। इसके अन्तर्गत स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी, स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी आदि अनेक विद्वानों का सत्कार किया गया था। स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी का सत्कार व सम्मान सन् 1995 में किया गया था। उन्हें इकतीस लाख रुपये की धनराशि सम्मानस्वरूप प्रदान की गई थी। उन दिनों आर्यसमाज में किसी विद्वान का इतनी अधिक धनराशि देकर सम्मान करना अनूठी घटना थी। यह सब कैप्टन देवरत्न आर्य जी के अपने निजी प्रयासों से ही सम्भव हुआ था। यह भी बता दें कि यह समस्त धनराशि स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने सत्यार्थप्रकाश न्यास को वेद प्रचार एवं विकास कार्यों के लिए दान कर दी थी। सुप्रसिद्ध वैदिक विद्वान आचार्य पं. रामनाथ वेदालंकार जी ने उच्च कोटि के विप्र संन्यासी स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी को उदयपुर के अभिनन्दन समारोह में समर्पित किये जाने वाले अभिनन्दन पत्र को बनाया था जिसके लिए हमने उनसे प्रार्थना की थी और इस कार्य में कुछ सहयोग हमने भी सहयोग किया था। इस अभिनन्दन पत्र को तैयार करने की प्रेरणा हमें कैप्टन देवरत्न आर्य जी ने की थी। सार्वदेशिक सभा के कार्यालय का नवीनीकरण वा आधुनिकीकरण भी कैप्टन देवरत्न आर्य जी ने ही किया व कराया था। आज हम श्री देवरत्न आर्य जी के पिता आचार्य भद्रसेन जी के एक जीवन प्रसंग को प्रस्तुत कर रहे हैं जो देवरत्न आर्य जी की माता सौभाग्यवती जी के अन्तिम क्षणों से सम्बन्धित है। यह पंक्तियां आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखी हैं। हमने यह पंक्तियां प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की पुस्तक ‘भक्तहृदय आचार्य भ्रदेसन’ पुस्तक से ली हैं। घटना का वृतान्त इस प्रकार है।
सन् 1957 ई. का वर्ष आचार्य भद्रसेन जी के लिए अत्यन्त कष्टप्रद रहा। इस वर्ष उनकी धर्मपत्नी श्रीमति सौभाग्यती रोग-ग्रस्त हो गईं। रोग भी कोई साधारण नहीं था। डाक्टरों ने उन्हें कैंसर बतलाया था। यह रोग आज भी जानलेवा है, तब तो और भी भयानक माना जाता था। एक निर्धन विद्वान् इस रोग से पीड़ित अपनी पत्नी के इलाज के लिए तब कर ही क्या सकता था? फिर भी आदर्श गृहस्थी व पूजनीय वैदिक विद्वान् आचार्य भ्रदेसन जी ने अपनी जीवनसंगिनी की प्राणरक्षा के लिए घर फूंक तमाशा देखा। अपने सर्वसामथ्र्य से देवी जी की सेवा-शुश्रूषा की। चिकित्सा के लिए बम्बई भी लेकर गए। उस समय आचार्य भद्रसेन जी का कोई भी पुत्र पांव पर खड़ा न हो पाया था। उनका घर अभावों की बस्ती थी। अभावग्रस्त होते हुये भी अपने पवित्र वैदिक भावों के कारण आचार्य जी आदर्श गृहस्थी थे।
धन-सम्पदा साधनों से ही तो घर-गृहस्थी नहीं बनती। धन-सम्पदा आवश्यक है परन्तु सद्भावना तथा हृदय की निर्मलता का इससे भी कहीं अधिक महत्व है। आचार्य भद्रसेन जी ने इस लम्बी बीमारी में अपने जीवनसाथी की जो सेवा की, वह उनके व्यक्तितत्व व विद्वता के अनुरूप ही थी। जब बम्बई में चिकित्सा से कुछ लाभ न हुआ तो आचार्य जी घर जाने को विवश हो गये।
दिनांक 5-12-1957 की रात थी। बारह बजे श्रीमति सौभाग्यवती जी ने आचर्य जी को आवाज देकर कहा ‘‘पण्डित जी अब समय आ गया है”। अब देवी जी को रोग की पीड़ा न थी। पीड़ा का स्थान प्रसन्नता ने ले लिया था। आपने आचार्य जी से कहा, ‘मेरे बच्चों को जगाओ। सब मेरे सामने आ जावें। सबसे बड़े पुत्र वेदरत्न जी की आयु 18 वर्ष थी। देवरत्न जी मात्र 16 वर्ष के थे। सब से छोटा बालक केवल 6 मास का था। सब बच्चे मां की चारपाई के चारों ओर बैठ गये।
माता ने ममता से भरी दृष्टि संतानों पर डाली। बड़े पुत्र वेदरत्न से कहा, ‘‘मैं कहती थी कि तू विवाह कर ले। मैं एक भी बच्चे की शादी न देख पाई।” वेदरत्न जी ने कहा, ‘‘मैं तैयार हूं।” इस पर मां ने कहा, ‘‘अब समय निकल गया है।” देवरत्न को माता ने अन्तिम आदेश दिया कि तुम्हीं ने भाइयों का तथा बहिनों का ध्यान रखना है। मैं यह भार तुम्हें ही सौंपती हूं। आज्ञाकारी पुत्र ने माता को वचन दिया और सब जानकार जानते हैं कि पुत्र ने इस वचन को ऐसी सुन्दर रीति से निभा कर दिखाया है कि इतिहास में वर्णित भाइयों की पंक्ति में यदि देवरत्न जी का उल्लेख किया जावे तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं होगी। आचार्य जी का कुल व सम्पूर्ण आर्यजगत् कैप्टन देवरत्न जी आर्य के इस व्यवहार पर जितना भी गर्व करे, कम है।
जब देवी जी ऐसी-ऐसी बातें कर रही थीं तो गम्भीर विद्वान् आचार्य भद्रसेन सब समझ गये कि जीवनसंगिनी अब जीवन लीला समाप्त करने वाली है तथापि लोक-व्यवहार की दृष्टि से कहा, ‘‘क्या हो गया है आपको? प्रकृति ठीक तो है?’’ सौभाग्यवती जी ने कहा, ‘‘सर्वथा स्वस्थ हूं। मुझे कोई कष्ट व पीड़ा नहीं। अब मैं अपने परमदेव परमेश्वर के पास जा रही हूं।”
सौभाग्यवती जी की माता जी भी पास ही थीं। सब बच्चों के सिर पर मोहमयी मां ने अन्तिम बार हाथ फेरा और पति-प्रेम की दीवानी देवी भाव-विभोर होकर बच्चों से बोली, ‘‘तुम्हारे पिता जी बाल-काल में ही अनाथ हो गये। घरबार छोड़कर-बड़ी आयु में कष्ट सहते हुए विद्या प्राप्त की, फिर आर्यसमाज के लिए समर्पित हो गये। घर-गृहस्थी का बोझा ढोते हुये कठोर परिश्रम करना पड़ा। मैं सोचती थी कि तुम जब बड़े हो जाओगे, कुछ कमाओगे तो मैं तुम्हारे पिता जी की जी-भर सेवा करुंगी। अब मैं तो जा रही हूं। तुम वृद्धावस्था में इनकी सेवा करना। इतनी सेवा करना कि यह मुझे भूल जावें। जीवन-भर इन्होंने दरिद्रता और निर्धनता की चक्की में पिसते हुये आर्यसमाज की सेवा की है। आप इन्हें कभी सुख के दिन दिखा देना।” सन्तान के नाम यह अन्तिम सन्देश-आदेश देकर उस सौभाग्यवती माता ने प्रातः साढ़े चार बजे ‘प्रभु तेरी इच्छा पूर्ण हो, पूर्ण हो’ इन आर्ष वचनों का उच्चारण करते हुये नश्वर-देह का परित्याग 6 दिसम्बर को कर दिया।
देह का परित्याग करते हुए पत्नी ने पतिदेव आचार्य भद्रसेन जी को सम्बोधित करते हये भावभरित हृदय से कहा, ‘‘पण्डित जी मुझ अभागिन को क्षमा करना। जब सेवा करने का समय आया, मैं आपको छोड़ कर जा रही हूं। ये बच्चे आपकी सेवा करेंगे। मेरी भूलों की ओर ध्यान न देना।”
श्रीमती सौभाग्यवती जी के अन्तिम वेला के सारे वार्तालाप से तीन बातें स्पष्ट हैं:-
(1) वह एक दृढ़ आस्तिक आर्य महिला थीं। ईश्वरेच्छा को शिरोधार्य करते हुये उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक शरीर छोड़ा।
(2) उनको अपनी सन्तान से कुछ विशेष आशायें थीं। प्रभु ने उनकी आशाओं को पूर्ण किया। सन्तान ने उनके आदेश का पूरा-पूरा पालन किया।
(3) यद्यपि गृहस्थ जीवन में उनको आचार्य भद्रसेन जी की सतत् साधना में भागीदार होने के कारण आर्थिक दृष्टि से बड़े कष्ट सहने पड़े तथापि आचार्य जी के महान् व्यक्तिव को वह समझती थीं और उस धर्मपरायणा तपस्विनी देवी के हृदय में आचार्य जी के लिए ऐसा स्थान था जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किय जा सकता।
आचार्य जी के लिए धर्मपत्नी का वियोग एक असह्य धक्का था। उनकी पत्नी की आयु तब केवल 36 वर्ष ही थी। कोई भी बच्चा अभी काम-धंघे पर न लगा था। उसके अतिरिक्त भी पत्नी की रुग्णता व निधन, आचार्य जी के लिए एक और दृष्टि से बहुत दुखदायी थी। 1957 में पंजाब में आर्यसमाज ने हिन्दी की रक्षा के लिए प्रचण्ड सत्याग्रह किया था। देशभर से हिन्दी प्रेमियों ने इस सत्याग्रह में भाग लिया। सहृदय पाठक तनिक कल्पना करके अनुमान लगावें कि जब देश के ओर छोर से आबाल-वृद्ध आर्य पंजाब में जेलें भरने के लिए आ रहे थे तब पंजाब में ही जन्मे इस आर्य विद्वान्, साहित्यकार व हिन्दी भाषा के महान् सेवी के हृदय पर क्या बीत रही होगी? वह भद्रसेन जिसने गृहस्थ में प्रवेश करते ही, हैदराबाद का आर्य सत्याग्रह छिड़जाने पर अपनी सेवायें आर्य सत्याग्रह समिति को भेंट कर दी थीं, अब हिन्दी रक्षा के लिए छेड़े गये आर्य सत्याग्रह के समय जेल जाने के लिए कितना तड़प रहा होगा?
परन्तु, वह कर भी क्या सकते थे? एक ओर राष्ट्रीय व सामाजिक कर्तव्य पुकार रहे थे और उधर देश-धर्म की सेवा में पग-पग पर उनका साथ देने वाली जीवन संगिनी का कैंसर से रुग्ण होना। बच्चे सभी अबोध। किसके भरोसे देवी को छोड़ कर वह सत्याग्रह कें भाग लेते? आचार्य जी छटपटाते रह गये। विधाता ने अच्छी परीक्षा ली। निश्चय ही तब वह अपने आपको दयनीय स्थिति में समझ रहे थे। उनके लिए कोई और विकल्प था ही नहीं। देवी की सेवा करना ही तब उनका कर्तव्य बनता था और उन्होंने इस कर्तव्य को शान से निभाया।
जीवन में पग-पग पर उन्होंने दुःख व कष्ट झेले परन्तु यह दुःख ऐसा था जिसे सह पाना उनके लिए अति कठिन था। ईश्वर के अटल विश्वास से इसे भी झेला। एक दिन ध्यान में बैठे हुये अपने प्रभु से यह कहते हुये सुने गये कि प्रभु जी! यह स्वस्थ हो जावें तो मैं शेष जीवन तेरी भक्ति में ही लगा देना चाहता हूं। विधाता के विधि-विधान को कौन जानता है? उसकी दया व उसका न्याय पर्याय है। उसके आगे सिर झुकाना ही पड़ता है सो आचार्य जी ने भी विधि के विधान को स्वीकार किया। उर्दू के एक कवि का यह पद्य उन पर पूरा चरितार्थ होता हैः-
घर से चले थे हम तो खुशी की तलाश में,
गम राह में खड़े थे सभी साथ हो लिए।
जब पुत्र जवान हुये। दुःख-दारिद्रय दूर होने के दिन निकट आये तो देवी जी के वियोग का वाण ऐसा चला कि परिवार देर तक इस घाव की पीड़ा से तड़पता रहा। (यहां पर प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा लिखा वृतान्त समाप्त होता है।)
हमारा (मनमोहन आर्य) सौभाग्य रहा कि हमारे कैप्टन देवरत्न आर्य जी से निकट सम्बन्ध रहे। हमारा कई वर्षों तक उनसे पत्राचार होता रहा। सभी सुविधायें होते हुए भी कैप्टन देवरत्न जी हमें हस्तलिखित पत्र ही भेजते थे। पत्रों की संख्या लगभग 50 है। कैप्टन देवरत्न आर्य जी ने ही हमें अपने पिता आचार्य भद्रसेन जी की जीवनी आर्यसमाज सान्ताक्रूज मुम्बई के मंत्री श्री संगीत आर्य जी के द्वारा हमारे निवास पर फरवरी, 1997 में भिजवाई थी और इस पर सप्रेम भेंट लिख कर अपने हस्ताक्षर एवं तिथि 8 फरवरी 1997 अंकित की थी। उन्होंने इस भंेट में हमें सम्बोधित करते हुए लिखा है ‘आदरणीय श्री मन मोहन कुमार आर्य की सेवा में’। आर्यसमाज के एक उच्च कोटि के विद्वान पुत्र जो स्वयं एक विद्वान एवं आर्यसमाज के अपने समय के प्रमुख नेता थे, उनके इस सम्बोधन व सद्व्यवहार के लिए हम उनके अत्यन्त कृतज्ञ एवं ऋणी हैं। हिण्डोनसिटी, उदयरपुर तथा दिल्ली आदि अनेक स्थानों पर हमारी उनसे भेंटे हुई थी। उदयपुर में सत्यार्थप्रकाश महोत्सव में दिनांक 28-2-1997 को उन्होंने हमारा सम्मान भी कराया था। यह अवसर था सत्यार्थप्रकाश न्यास, उदयपुर द्वारा स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी के सम्मान का। मंच पर देश के उपराष्ट्रपति माननीय भैरोंसिंह शेखावत जी विद्यमान थे। हमारा सौभाग्य था कि उन दिनों हमने आचार्य भद्रसेन जी पर कई लेख लिखे थे। हमने भक्तहृदय आचार्य भद्रसेन जी पुस्तक को आद्योपान्त पढ़ा है। यह जीवनी सम्भवतः दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली के पुस्तक विक्रय केन्द्र में उपलब्ध है। वहां से इसे प्राप्त किया जा सकता है। इस जीवनी को पढ़कर हम जान सकते हैं कि कैसे एक सामान्य परिवार का व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से वैदिक धर्म को अपनाकर ज्ञान प्राप्ति कर साधना करते हुए यशस्वती होकर सात्विक जीवन के शिखर पर पहुंचा था। हम माता सौभाग्यवती जी को श्रद्धांजलि देते हैं। माता जी की मृत्यु मात्र 36 वर्ष की आयु में हुई थी। इससे आचार्य भद्रसेन जी व उनके परिवार पर कितनी कठिनाईयां आईं होंगी, इस पर विचार कर दुःख होता है। हम आचार्य भद्रसेन जी के परिवारजनों की अध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नति की कामना करते हुए आशा करते हैं कि वह आचार्य भद्रसेन जी के मार्ग पर चलकर समाज सहित स्वयं को लाभान्वित करेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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