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ममता महक की रचनाएं मानवीय विचारों की संवाहक 

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30 Apr 24
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डॉ.प्रभात कुमार सिंघल, कोटा

ममता महक की रचनाएं मानवीय विचारों की संवाहक 

 

यादों की गली में मेरे जज़्बात बाक़ी हैं,
ज़माने ने बिगाड़ी मगर औक़ात बाक़ी है।
अदावत और ख़िलाफ़त का माहौल है कैसा,
कभी सुधरेंगे ये जो हालात बाक़ी हैं।

जमाने के हालत सुधारने की सकारात्मक सोच और चिंतन के स्वरों को उभारती इस रचना में कवियित्री आगे लिखते हुए अपनी यादों के साथ जिस भावपूर्ण रूप से जोड़ा है वह काबिले गौर है........
शहरों को है मार दिया, खुदगर्ज़ी और दिखावे ने,
वतन मेरे गिनती के कुछ देहात बाक़ी हैं।
यूँ तो हर इक शख़्स से कुछ कहते सुनते हैं,
बस तुमसे है जो कहनी वो बात बाक़ी है।
भूल गई हैं सारी सदियाँ, भूला दिए हैं साल,
यादों में बस संग गुज़रे लम्हात बाक़ी हैं।
   समाज को केंद्र में रख कर समाज से जुड़े सभी महत्वपूर्ण पहलुओं पर दिशा बोध कराने वाली रचनाकार ममता महक कवियित्री,कथाकार और समीक्षक हैं। हिंदी, राजस्थानी और अंग्रेजी भाषाओं पर इनका समान अधिकार है। हिंदी और  राजस्थानी में गद्य और पद्य दोनों विधाओं में कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानी, लघुनाटिका, हास्य व्यंग्य, समीक्षा, पर्यावरण लेखन के साथ-साथ शोध पत्र भी लिखती हैं। समाज में घटित घटनाओं को इन्होंने अपना कथानक बनाया है। कहानियां समाज को परस्पर सामंजस्य का संदेश देती हैं। चाहे वह व्यक्ति से व्यक्ति का हो, व्यक्ति से समाज का हो या व्यक्ति का पर्यावरण से। इनकी कहानियों के संग्रह की कृतियां पाठकों को एक संदर्भित काल खंड की परिस्थितियों, अनुभूतियों और विचारों से अवगत कराने के लिए पर्याप्त आधार हैं। काव्य शैली सामान्य है और काव्य सृजन में भी यहीं स्वर मुखर हैं। इनका साहित्य दिनकर, शेक्सपियर, कीट्स और निराला के साहित्य से प्रभावित है।
 इनका प्रथम काव्य संग्रह " 'फ़ुर्सत के सबक' मुख्य रूप से श्रृंगार कविताओं का पुष्पगुच्छ है जो  राजस्थान  साहित्य अकादमी उदयपुर के सहयोग से प्रकाशित हुआ है। संग्रह में शामिल 91 रचनाएँ विशुद्ध ग़ज़लें न होकर ग़ज़लधर्मी कविताएँ हैं। रचनाओं में पारंपरिक विषयों से इतर प्रत्येक रचना प्रेम, स्नेह, विरह, चिंतन, त्याग, समर्पण, ममत्व, अपनत्व से भरे ह्रदय की अनुभूतियाँ हैं।  परिवेश जन्य विषयों पर रचनाएँ हैं तो संवेदनाओं से उपजे विषयों का भी समावेश है।  रचनाओं में श्रृंगार, हास्य, प्रकृति, प्रेम और सामाजिक विसंगतियों का भी ज़िक्र है। रचनाएँ हर वर्ग के पाठकों को लुभाने की क्षमता रखती हैं।
  एक अन्य बाल काव्य संग्रह 'धमाचौकड़ी'  पं. जवाहर लाल नेहरू बाल साहित्य अकादमी जयपुर द्वारा प्रकाशित बाल काव्य संग्रह है।
सीधी सपाट सरल भाषा में हँसाती, गुदगुदाती रचनाओं के साथ ही देशप्रेम, पशु जगत, तकनीकी उपकरण, मौसम और समय-समय पर घटित घटनाओं के इर्द गिर्द सहज शैली में बुनी बाल रचनाओं में  पंचतंत्र की कहानियों से लेकर वर्तमान मशीनी युग तक की बाल कविताएं हैं। जहां ड्रोन, कम्प्यूटर, मोबाइल, पंखा जैसे विषयों पर रची कविताएँ बच्चों की जिज्ञासा को शान्त करती हैं वहीं गिलहरी, ऊँट , हाथी, चींटी, बिल्ली, बंदर जैसे जानवरों की रचनाएं प्रकृति के समीप लाती हैं। मौसम की जानकारी देकर उनके ज्ञान को विस्तार देती हैं तो रिमझिम की साइकिल, तीन पिल्ले जैसी कविताएं गुदगुदाती हैं। बालमन को लुभाती रचनाओं का यह गुलदस्ता संग्रहणीय होने के साथ- साथ सदाबहार भी है।
      इनका कहानी संग्रह 'क़िताब के बहाने' राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के सहयोग से प्रकाशित है। इसमें सामाजिक संदर्भों को समेटें संवाद शैली, पत्र शैली, डायरी शैली की कहानियां इस संग्रह की विशेषता है।संग्रह में सामाजिक संबंधों, पारिवारिक रिश्तों, पर्यावरण चिंतन,  नारी सशक्तिकरण, लैंगिक असमानता, वृद्धजनों का निरादर, वैचारिक विकास  शहरीकरण,  सकारात्मक सोच, मौलिक व नैतिक मूल्यों जैसे विषयों पर रची  उन्नीस कहानियाँ हैं। डायरी शैली मैं लिखी कहानी 'फ़िसलन' मुस्लिम परिवेश और उर्दू अल्फ़ाज़ में  रची गई है।  हल्के हास्य और पत्र शैली में रची कहानी 'क़िताब के बहाने' कथानक के अंत तक रहस्य और रोमांच को संजोए रखती है। प्रेम की प्रतीक्षा और वक्त का मिजाज दोनों के ताने बाने पर बुनी कहानी 'इस बरसात में 'मैनेजमेंट के फंडों को सहज में ही साहित्य का हिस्सा बना देती है। "एक ही ममता' और 'कलयुगी राक्षस'  दोनों कहानियाँ एक पयर्यावरण प्रेमी साहित्यकार की पर्यावरण संरक्षण के प्रति पाठकों को जागरूक बनाने की अपील है। संवेदनशील मानव हृदय का बेहतरीन उदाहरण उजागर करती कहानी 'चल मेरे भाई' पशु प्रेम पर आधारित है। आज के इस स्वार्थी युग में जब मनुष्य मनुष्य में भेद रखता है, भाई भाई का शत्रु है, ऐसे में एक पशु  को अपने परिवार का सदस्य मानने वाला व्यक्तित्व यह प्रदर्शित करता है कि प्रकृति का प्रत्येक जीव एक-दूसरे का पूरक है। वर्ग भेर पर केंद्रित कहानी 'हम भी इंसान हैं' पाठकों को झकझोरने कर कहने का प्रयास करती है कि समाज का प्रत्येक वर्ग अपना समान अस्तित्व रखता है और सामाजिक  व्यवस्था को को बनाए रखने में  हर वर्ग आवश्यक है। वृद्धजनों की उपेक्षा और उनके एकाकीपन का विवरण देती कहानी भी प्रेरणा दायी है। नशे की लत और उसके दुष्परिणामों को दर्शाती कहानी 'मिट्टी का बर्तन' भी सोचने  पर मजबूर करती है। संग्रह की कहानियां विसंगतियों, विषमताओं और विपदाओं को कथानक  बना, चतुराई, सुझबूझ, होंसले और धैर्य के साथ कथानक के अंत में एक सुखद हल प्रदान करती हैं। संग्रह की कुछ कहानियाँ अतीत में घटी दुखद घटनाओं और हादसों को नई दिशा में आगे  बढ़ने और वैचारिक दृष्टि को नव पटल देने का सफल प्रयास है।  
इन्होंने आकाशवाणी केंद्र  में कार्य करने के दौरान आलेख, कविताएँ और लघुनाटिका लिखना शुरू किया। समीक्षा विधा में ये 50 से अधिक पुस्तकों की समीक्षा लिख चुकी है। केन्द्रीय साहित्य अकादमी, दिल्ली के लिए 'श्रीमती कमला कमलेश जी के व्यक्तित्व और कृतित्व' पर पत्र वाचन तथा राजस्थान   साहित्य अकादमी ,उदयपुर के लिए 'कोटा की समकालीन काव्य परंपरा, तथा 'हाड़ौती अंचल का कथा जगत' विषयों पर पत्र वाचन महत्वपूर्ण है।
इनकी एक सरल और भावपूर्ण काव्य सृजन की बानगी देखिए.............
ध्रुवों के पार चल सितारे उठा लाएँ,
कमरा रोशन हो बहुत सारे उठा लाएँ।
घर है ख़ाली, हम भी जुदा से रहते हैं,
भीड़ से कुछ इन्सां न्यारे उठा लाएँ।
कुछ वक़्त ने भी सितम ढाया है इश्क़ पर,
मिटा दे फ़ासलों को वो इशारे उठा लाएँ।
सुना है गुलशन में मचलती हैं तितलियाँ,
हम भी जंगल से पौधे प्यारे उठा लाएँ।
खुशी के दरख़्त जलाए अदावत की सबा ने,
इस बियाबां के लिए नई बहारें उठा लाएँ।
चंद दीवारों की सरहद में कैद है नज़रें,
कुदरत के कुछ हसीन नज़ारे उठा लाएँ।
उम्र ढलेगी तो सफ़र मुश्किल होगा,
'महक' क़यामत से पहले सहारे उठा लाएँ।
इनकी एक राजस्थानी भाषा में काव्य की बानगी देखिए " आँगणो" रचना में............
काच्या पाका आँगणा में हरिया हरिया पेड़ हो,
नीम की नींमोळ्या अर आम की मुंडेर हो।
जामुन की छाया नीचे ऊँधाळो कटैगो जी,
नीबूडी का रस सूँ दरद मटैगो जी,
अथाणो गळावा अस्यो आँवळी को पेड़ हो,
काच्या पाका आँगणा...
फूलां की बेलड़्यां सूं बांदरवाळा झुकी हो,
आँगणा की बाड़ म्हारी बूळ्या सू रुपी हो,
अमरुदा का बांगा तांई म्हारा घर की मेड़ हौ,
काव्या पाका आँगणा...
चड़ी रै चुड़गला ज्यार चुग जावैगा, आँगणा मै मोरड़ा घूम घछम नाचैगा,
छोरा छोरी देख हरखे, न्यारा न्यारा खेल हो,
काच्या पाका आँगणा...
बेटो कुलदीपक, बेटी आरत्याँ को थाळ हो,
बुआँ म्हारै असी आवै पेड़ाँ की रुखाळ हो,
नाती पोता गोद्याँ आवै, असी चहल-पहल हो,
काच्या पाका आँगणा...
परिचय :
मानवीय संवेदनाओं की रचनाकार ममता महक का जन्म 7 जुलाई 1981 को कोटा में पिता केसरी लाल और माता गणेशी देवी ने आंगन में हुआ। एमए, बीएड. की डिग्री प्राप्त कर ग्रामीण विकास में स्नातकोत्तर डिप्लोमा कोर्स, राष्ट्रीय योग्यता टेस्ट और जूनियर रिसर्च फेलोशिप आपकी शैक्षणिक योग्यता हैं।
 राजस्थान के विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में इनके
आलेख, कहानी, कविता, समीक्षा प्रकाशित होते रहते हैं। आकाशवाणी केंद्र से भी रचनाओं का प्रसारण होता हैं।
संपर्क :
102, उज्ज्वल विहार विस्तार, बोरखेड़ा, कोटा
982947349
 


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