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भारतीय चिकित्सा विज्ञान विषयक संगोष्ठी

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19 Oct 25
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भारतीय चिकित्सा विज्ञान विषयक संगोष्ठी

आज ग्लोबल हिस्ट्री फोरम एवं भारतीय चिकित्सा विकास संघ के संयुक्त तत्वाधान में आयुर्वेदिक चिकित्सा विज्ञान याने भारतीय चिकित्सा प्रणाली के इतिहास की पृष्ठभूमि में धनवन्तरी दिवस पर एक संगोष्ठी का आयोजन हुआ। 

प्रारम्भ में संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए ग्लोबल हिस्ट्री फोरम के संस्थापक अध्यक्ष डाॅ. जी. एल. मेनारिया ने नई शिक्षा नीति 2020 के संदर्भ में प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणाली की प्रासंगिकता पर बोलते हुए बताया कि हमारा भारतीय चिकित्सा विज्ञान अत्यधिक प्राचीन है और भारत इस विद्या का आदि गुरू रहा है। 

प्राचीन चिकित्सा विज्ञान का मूल इतने दूर तक गया है कि उसका दिग्दर्श ऋग्वेद जैसे संसार के सब से प्राचीन ग्रन्थ में भी होता है। क्योंकि राजयक्ष्मा, हृदयरोग, यकृत, प्लीहा आदि रोगों के नाम ऋग्वेद में मिलते हैं।

आयुर्वेद की उत्पत्ति के लिये पौराणिक कथानक यह है कि पहले पहल इसका ज्ञान इन्द्र को था। उसने भारद्वाज को, अत्यन्त बुद्धिमान समझकर इसका ज्ञान संक्षिप्त में दिया। भरद्वाज ने इस स्कन्ध त्रयात्मक आयुर्वेद का यथार्थ ज्ञान, अपने बुद्धि प्रभाव से शीघ्र सीख लिया। इससे वह रोग रहित और दीर्घायु हो गया। उसने इस वेद का ज्ञान अन्य ऋषियों को करवाया। अत्रि ऋषि के पुत्र पुनर्वसु ने अपने छः शिष्यों को इसका पठन करवाया। इन छः शिष्यों के नाम ये हैं - अग्निवेश, भेड, जातुकर्ण, पराशर, हारीत और क्षारपत। इन सब में अग्निवेश सब से अधिक बुद्धिमान था। उसी ने सब से प्रथम वैद्यक शास्त्र पर ग्रन्थ लिखा। अग्निवेश के बाद भेड आदि शिष्यों ने भी अपने-अपने ग्रन्थ लिखे। अत्रेय ऋषि ने जब इन सबको पसंद कर लिया, तब वे सब संग्रहीत कर दिये गये और उनका नाम ‘‘षड्भिषक संहिता’’ प्रसिद्ध हो गया। चरक के चिकित्सा स्थान के 18वें अध्याय में अत्रेय ऋषि को ‘‘आयुर्वेद विदांश्रेष्ठं भिषम् विद्या प्रवर्तकम्’’ कहा है।

अथर्ववेद में भी औषधियों के गुणों को प्रदर्शित करने वाले कुछ सूक्त मिलते हैं। चरक का कथन है कि वैद्यक शास्त्र इसी वेद का उपांग है। ऋग्वेद में भी कुछ रोगों के नाम और शारीरिक अवयवों का वर्णन मिलता है। इससे यह अनुमान होता है कि अत्रेय और अग्निवेश के पूर्व भी वैद्यक शास्त्र पर कुछ ग्रन्थ बने होंगे, पर पहले सूत्ररूप से ग्रन्थ बनते थे, इसलिये वैद्यक शास्त्र पर अनिवेश के पहले अगर कोई ग्रन्थ होंगे तो वे अग्निवेश के ग्रन्थों के आगे अपना प्रकाश न बता सकने के कारण नष्ट हो गये होंगे।

डाॅ. मेनारिया ने प्राचीन भारतीय मूल्यवान ग्रन्थों का उल्लेख करते हुए बताया कि हमारे यहाँ का रसवैधक भी बहुत पुराना है। जिन तत्वों पर आजकल की पाश्चात्य चिकित्सा प्रणाली होमियोपैथी निर्भर करती है, उन्हीं तत्वों पर हमारा रसवैद्य भी निर्भर करता है। होमियोपैथी का आदि जनक हान्मन नाम का जर्मन शोधक समझा जाता है, पर जिन तत्वों पर यह निर्भर करती है, वे हमारे पूर्वजों को ढाई हजार वर्ष के पहले भी मालूम थे और इन्हीं तत्वों को उन्होंने अपने रसवैद्यक में कायम किया था।

संगोष्ठी के मुख्य अतिथि भारतीय चिकित्सा संघ के अध्यक्ष डाॅ. मनोज भटनागर ने बताया कि यों तो ऋषि धनवन्तरी को भारतीय चिकित्सा का जनक माना जाता है। जैसे वर्तमान पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली का जनक यूनानी चिकित्सक: हिपोक्रेट माना जाता है। आजकल चिकित्सक रोगी को दवा देते समय अथवा उसके देय दवा पत्रक पर त्ग लिखकर याने हिपोक्रेटिक ओथ लेते हैं। अब समय आ गया है कि भारतीय चिकित्सा प्रणाली में ऋषि धनवन्तरी, चरक, सुश्रुत इत्यादि की स्मृति में कोई शपथ चिन्ह दर्शा कर रोग निदान करने की आवश्यकता है ताकि हम अपने अतीत की स्मृद्ध चिकित्सा प्रणाली को स्थापित कर सकें। वैसे वर्तमान में सरकार हर स्तर पर स्वदेशी को बढ़ावा दे रही है इस दृष्टि से भारतीय चिकित्सा प्रणाली की विश्वव्यापी मांग है। 

संगोष्ठी में आयुर्वेदिक शिक्षा संघ के सेवानिवृत्त चिकित्सा अधिकारी श्री गुणवन्त सिंह देवड़ा ने बताया कि चरक और सुश्रुत के बाद महत्वपूर्ण वैद्य वाग्भट हुआ। यह पंजाब का निवासी और सिंहगुप्त का पुत्र था। इसका चाचा प्रसिद्ध वैद्य था। यह कहने में कुछ अत्युक्ति न होगी कि वैद्यक वाग्भट का पुश्तैनी धंधा था। वाग्भट के अष्टांगसंग्रह और अष्टांगहृदय नाम के दो नामांकित ग्रन्थ हैं। ये दोनों चरक और सुश्रुत के आधार से रचे गये हैं। इन ग्रन्थों के रचने का हेतु भिन्न-भिन्न वैद्यक ग्रन्थों में बिखरे हुए ज्ञान को इकट्ठा करना था।

आयुर्वेदिक चिकित्सा अधिकारी डाॅ. बाबूलाल जैन ने बताया कि भारतीय चिकित्सा प्रणाली में हृदय रोग की चिकित्सा विश्व में सर्वप्रथम की जाती थी। स्मरण रहे कि प्रसिद्ध विद्वान वाग्भट द्वारा लिखित ग्रन्थ अष्टांगहृदय ग्रन्थ मूल्यवान है। यह ग्रन्थ छः हिस्सों में विभक्त है। यथा सूत्र, शारीर, निदान, चिकित्सा, कल्प और उत्तर स्थान। इसमें चिकित्साएं आठ प्रकार की दी हैं वे ये हैं कायचिकित्सा, बालरोग-चिकित्सा, भूत-चिकित्सा, शालाक्य, शल्ययन्त्र, विष-चिकित्सा, रसायनयन्त्र और वाजीकरण। यह बडा अच्छा ग्रन्थ है। इसमें आयुर्वेदशास्त्र के मूलतत्व, आरोग्यविज्ञान, औषधिविज्ञान, द्रव्यरसों का वर्गीकरण, यन्त्रशस्त्रादिकों की जानकारी, गर्भ विवेचन, प्रसूतिशास्त्र, प्रकृति विचार आदि कई विषयों का वर्णन है। इनके अतिरिक्त इसमें शालाक्य यंत्र, शल्य तंत्र संबन्धी रोग, विषचिकित्सा, रसायन तन्त्र और वाजीकरण आदि विषयों का विवेचन है। वाग्भट ने अपने सूत्रस्थान और उत्तर तन्त्र में अपना ग्रन्थ रचना चातुर्य और वैद्यकीय ज्ञान की अद्भुत् पारदर्शिता दिखलाई।

संगोष्ठी के विशिष्ट अतिथि मदन मोहन मालवीय आयुर्वेदिक काॅलेज के सेवानिवृत्त प्रोफेसर, संयोजक वरिष्ठ नागरिक प्रकोष्ठ भा.ज.पा. उदयपुर के प्रो. महेश चन्द्र मिश्रा ने बताया कि अथर्वण संहिता में भिन्न-भिन्न रोगों के नाम दिये गये हैं और उनके शमन के लिये भिन्न-भिन्न वनस्पतियों की योजना की गई है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उपरोक्त संहिता अत्यन्त प्राचीन है। चरकसंहिता के ................. सूर्य सूक्त में सर्प, बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं के विष का कथन है और इसके शमन के उपाय भी बतलाये हैं। शतपथ ब्राह्मण में सर्प विद्या का कथन किया गया है. अश्वलायन श्रौतसूत्र में ‘‘विष विद्या’’ पर कुछ विवेचन है। पतंजलि के महाभाष्य में भी प्राणिशास्त्र का थोड़ा बहुत वर्णन मिलता है।

आय्र्य वैद्यक का कब से विकास हुआ इसका समय अभी निश्चित रूप से मालूम नहीं हुआ है। पर बाह्य प्रमाण के सहारे से इस पर कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। पाणिनी के व्याकरण में भिन्न-भिन्न रोगों के नाम दिये गये हैं। इससे यह तो स्पष्ट हो गया कि पाणिनी के पूर्व अर्थात् ईस्वी सन् के 700 वर्ष पूर्व वैद्यक विज्ञान में हिन्दुओं की प्रगति थी। इसी प्रकार सब कोषों में अत्यन्त प्राचीन अमरकोष से भी यह बात मालूम होती है। अमरकोष के कर्ता अमरसिंह का काल अभी निश्चित नहीं हुआ है, पर कहा जाता है कि यह भोजराजा के नवरत्नों में से था। इस हिसाब से इसका उदय काल ईस्वी सन् पूर्व 86 वर्ष के लगभग निकलता है। 

अंत में ग्लोबल हिस्ट्री फोरम के सचिव डाॅ. रामसिंह राठौड़ ने भारतीय चिकित्सा प्रणाली (आयुर्वेदिक विज्ञान) को विद्यालयी, महाविद्यालयी शिक्षा प्रणाली को सामान्य विज्ञान पाठ्य पुस्तक में स्थान दिया जाना आवश्यक है। पाठ्यक्रम में योग शिक्षा, शारीरिक शिक्षा इत्यादि के साथ प्राकृतिक शिक्षा तथा मानसिक शिक्षा को प्रायोगिक और शोध परक बनाने की आवश्यकता है।   


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