‘स्वामी श्रद्धानन्द जी का पुण्य स्मरण’

( Read 8086 Times)

24 Dec 17
Share |
Print This Page
२३ दिसम्बर स्वामी श्रद्धानन्द जी का बलिदान दिवस है। सन १९२६ में इसी दिन एक विधर्मी ने एक षडयन्त्र के अन्तर्गत उनके शुद्धि कार्य के विरोध में उनका वध कर दिया था। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने मलकाने राजपूतों व अन्यों की शुद्धि का कार्य क्यों किया? इस पर विचार करें तो उनका शुद्धि का कार्य करना पूर्णतया न्यायसंगत सिद्ध होता है। हर व्यक्ति का यह अधिकार है वह अपनी स्वेच्छा से अपने धर्म का चयन करे। यह अधिकार सभी मत व धर्म के लोगों को समान रूप से है। हमें प्रतीत होता है कि उन लोगों को शुद्ध होने का कुछ अधिक अधिकार है जिन्हें बलात् विधर्मी बना लिया गया था व बनाया जाता था। भारत में जितने भी लोग किसी भी मत के हैं, उन्हें कभी न कभी विधर्मियों ने उन लोगों की अज्ञानता, अभाव व मजबूरी के कारण अथवा राजकीय व तलवार की ताकत के बल पर विधर्मी बनाया है। ऐसे व्यक्ति यदि अपनी भूल सुधार करना चाहे और स्वेच्छा से अपने पूर्वजों के धर्म में आना चाहें तो किसी को भी इसकी आपत्ति का अधिकार नहीं है। भारत में कुछ मतान्ध लोग अपना अधिकार मानते हैं कि वह किसी का भी धर्म परिवर्तन कर सकते हैं परन्तु उनके मत के किसी भी व्यक्ति का कोई मत परिवर्तन वा शुद्धि नहीं कर सकता। इसी मानसिकता के लोगों की दुर्भावना व हिंसा का शिकार स्वामी श्रद्धानन्द जी हुए थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने शुद्धि का जो कार्य किया उसकी आज्ञा परमात्मा ने वेदों में दी है। वेद कहता है कि सारे संसार से बुराईयों को दूर करो और श्रेष्ठ व उत्तम आचार विचार व संस्कारों का प्रचार प्रसार करो। इसी को कृण्वन्तो विश्वमार्यम् अर्थात् सारे विश्व को आर्य वा श्रेष्ठ बनाओं, यह कहा जाता है। व्यक्ति कोई व किसी भी मत का क्यों न हो, उसका यह नैतिक कर्तव्य है कि वह सत्य को स्वीकार करे और असत्य का त्याग करे। सत्य केवल एक ही होता है। दो परस्पर विरोधी विचार सत्य नहीं कहे जा सकते। जिस प्रकार गणित में दो व दो को जोड़ने पर चार होते हैं और दो में से दो को घटाने पर शून्य होता है, इस सिद्धान्त को यदि धर्म में भी व्यवहृत करें तो वहां भी सत्य विचार कोई एक ही होता है। वेदों की सभी मान्यतायें सत्य हैं जिन्हें हम गणित के नियमों तरह सत्य स्वीकार कर सकते हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि वेद ईश्वर प्रदत्त सत्य ज्ञान है जिसमें किसी अविद्या व अज्ञान के होने की लेश मात्र भी सम्भावना नहीं है। इसका प्रमुख कारण तो यही है कि ईश्वर सर्वज्ञ है, उसका प्रत्येक कार्य निर्दोष होता है, अतः उसका वेदज्ञान भी पूर्ण एवं निर्दोष है। वैदिक साहित्य में उपनिषद, दर्शन आदि जो ग्रन्थ हैं उनमें से वेदानुकूल ग्रन्थ इस कारण सत्य मान्यताओं से युक्त हैं कि इनका निर्माण वेद मर्मज्ञ ऋषियों द्वारा किया गया है। अतः आर्यसमाज को सत्य वा वेद प्रचार का कार्य करना चाहिये। इसका उद्देश्य भी एक ओर स्वयं का सुधार व वेदानुसार आचरण करना है वहीं दूसरों को भी वेद का आचरण करने के लिए प्रेरित करना है। हम स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा किये गये शुद्धि कार्यों को नमन करते हैं। हमने देखा है कि जो वेदों को कुछ कुछ जान लेता है वह सही विधि से ईश्वरोपासना और यज्ञ आदि श्रेष्ठ कार्य करता है।

स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अनेक क्षेत्रों में अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। वह महर्षि दयानन्द के साक्षात शिष्यों में कहे जा सकते हैं। उन्होंने महर्षि दयानन्द जी के दर्शन किये थे व उनसे अपनी कुछ शंकायें कही थीं और ऋषि दयानन्द जी के उत्तर सुनकर निरुत्तर हुए थे। कालान्तर में वह उनके विचारों से पूर्ण सन्तुष्ट हुए और उनके प्रमुख अनुयायी बने। स्वामी जी ने अपनी आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ नाम से लिखी है जिसमें उन्होंने अपना दिल खोलकर रख दिया है। यह विश्व की ऐसी आत्मकथा कही जा सकती है जिसमें स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने जीवन की किसी भी बुरी बात, आदत तथा कार्य को छुपाया नहीं है। बताते हैं कि गांधी जी को भी उनसे प्रेरणा मिली थी और उन्होंने भी अपनी कुछ इस प्रकार की घटनाओं का अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया है। स्वामी जी ने अपने जीवन में एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम था ‘दुःखी दिल की पुरदर्द दास्तां’। यह पुस्तक उर्दू में थी जिसका अनुवाद श्री सुमन्त सिंह आर्य, हरिद्वार ने किया है। ऋषि भक्त श्री सेवाराम त्यागी, रूड़की, आचार्य विरजानन्द दैवकरणी तथा ऋषिभक्त श्री प्रभाकरदेव आर्य, हिण्डोनसिटी के सहयोग से इसका उर्दू से हिन्दी में अनुवाद वा लिप्यान्तर कुछ माह पूर्व ही प्रकाशित हुआ है। यह भी हमें उनकी एक प्रकार की आत्मकथा के समान महत्वपूर्ण पुस्तक लगती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने जीवन काल में अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया। इनकी रचनायें प्रायः हिन्दी और उर्दू में है। इनके सभी ग्रन्थ स्वामी श्रद्धानन्द ग्रन्थावली के नाम से प्रकाशित किये गये हैं। इनके प्रकाशक हैं ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली।’ पहले यह 11 खण्डों में प्रकाशित की गई थी। कुछ समय पूर्व इसका नया संस्करण दो खण्डों में प्रकाशित हुआ है। स्वामी श्रद्धानन्द जी की एक रचना है धर्मोपदेश जिसका एक नया संस्करण श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने हिण्डोनसिटी से अपने प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित किया है। इसका सम्पादन प्रसिद्ध आर्य विद्वान श्री विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने किया है। स्वामी जी के जीवन के बारे में एक तथ्य यह है कि स्वामी जी पहले जालन्धर से सद्धर्म प्रचारक नामक पत्र का प्रकाशन करते थे। पहले यह उर्दू में था जिसे बाद में हिन्दी में कर दिया था। बताया जाता है कि यह पत्र अपने समय का लोकप्रिय पत्र था जिसमें आर्यसमाज विषयक प्रचुर सामग्री प्रकाशित की जाती थी। उन दिनों स्वामी जी पर जब आर्य प्रतिनिधि सभा के उनके विरोधी लोगों ने मिथ्या आरोप लगाये तो इसी पत्र के माध्यम से स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया था।

स्वामी जी का प्रमुख व सबसे महत्वपूर्ण कार्य था स्वामी दयानन्द जी के स्वप्नों वा विचारों के अनुरूप एक गुरुकुल की स्थापना। स्वामी जी ने इसकी स्थापना कांगड़ी, हरिद्वार में सन् 1902 में की थी। आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के कुछ अधिकारियों ने इस गुरुकुल के संचालन में अनेक प्रकार के कठिनाईयां उत्पन्न की परन्तु स्वामी जी मिथ्या दोषारोपण से त्रस्त रहकर भी अपना कार्य करते रहे। इस गुरुकुल को स्वामी जी का यह ड्रीम प्रोजेक्ट कह सकते हैं। स्वामी जी ने मिथ्या आलोचनाओं के बावजूद इस गुरुकुल को सफलता के शिखर तक पहुंचाया। वेदों के अनेक विद्वान, पत्रकार, आयुर्वेदालंकार, इतिहासकार, व्याकरणाचार्य आदि का निर्माण इस गुरुकुल में किया गया। यह गुरुकुल देश ही नहीं विदेशों में भी चर्चित रहा। इंग्लैण्ड के श्री रैम्जे मैकडाल्ड इस गुरुकुल को देखने आये थे और उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द जी प्रशंसा में चार चान्द लगाये थे। उन्हें जीवित ईसामसीह तक की उपाधि दी। उसके बाद यही रैम्जे मैकडानल्ड इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री बने थे। इस गुरुकुल में उन दिनों के वायसराय चेम्सफोर्ड महोदय भी आये थे। गांधी जी व दामोदर सातवलेकर जैसे विद्वान भी यहां आये। सातवलेकर जी ने चार वेदों का भाष्य वा टीका लिखी है।

स्वामी जी ने आजादी के आन्दोलन में भी भाग लिया था। स्वामी जी दिल्ली में स्वतन्त्रता आन्दोलन के लोकप्रिय नेता थे। उन्होंने रालेट एक्ट के विरोध में हड़ताल में दिल्ली के चांदनी चौक पर अंग्रेजों के गुरखा सैनिकों के सामने अपनी छाती अड़ा दी थी और कहा था कि तुममें हिम्मत है तो चलाओं गोली। उस दिन एक भयंकर दुर्घटना होने से बच गई थी। स्वामी श्रद्धानन्द जी की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी उन्हें दिल्ली की जामा मस्जिद की मिम्बर से उपदेश के लिए आमंत्रित किया गया था जहां उन्होंने वेद मंत्र से उपदेश आरम्भ किया था। स्वामी जी ने एक बार दिल्ली में साम्प्रदायिक झगड़ा होने पर वहां चार दिशाओं में अखाड़े स्थापित कर दिये थे जहां हिन्दू आर्य युवक व्यायाम व कुश्ती सीखते थे। उसके बाद वहां झगड़े नहीं हुए, ऐसा कहा जाता है। जलियावाला बाग काण्ड के बाद स्वामी जी को अमृतसर के कांग्रेस अधिवेशन का स्वागताध्यक्ष बनाया गया था। स्वामी जी ने अनेक विपरीत परिस्थितियों के होते हुए भी इस दायित्व को बहुत सुन्दर तरीके से निभाया था और अपना भाषण हिन्दी में दिया था। स्वामी जी ने हिन्दुओं में विद्यमान जाति प्रथा को समाप्त करने के भी ठोस कार्य किये। स्वामी जी सार्वदेशिक सभा के प्रघान भी रहे। सन् 1825 में स्वामी दयानन्द जी की जन्म शताब्दी मथुरा में मनाई गई थी। उन दिनों स्वामी जी सभा प्रधान थे। यह शताब्दी महात्मा नारायण स्वामी जी के नेतृत्व में मनाई गई थी। स्वामी श्रद्धानन्द ने देश व समाज के हित के अनेक कार्य किये। आज उनके बलिदान दिवस पर उनके जीवन पर दृष्टि डालना, उससे प्रेरणा ग्रहण करना व कोई सत्संकल्प लेना उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः 09412985121

Source :
This Article/News is also avaliable in following categories :
Your Comments ! Share Your Openion
Subscribe to Channel

You May Like