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प्रेम की बाती

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06 Jul 17
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कई बार कल्पनातीत घटनाएँ घटती हैं। जो सामने दिखता है वो सच भी होता है और नहीं भी। मेरे सामने मेम का निर्जीव शरीर रखा है उन मेम का जिन्होनें शायद दो या तीन पीढियाँ तैयार की। भटकते हुओं को सम्भाला, मरते हुओं को जीवन जीने की शक्ति दी। हम सब विद्यर्थियों ने मेम के बंगले का नाम रख दिया था ‘आशा की किरण’। एक जीवत महिला कैसे ऐसा काम कर सकती है। जिससे वो सबसे ज्यादा घृणा करती थी। मेम ने आत्महत्या नहीं की उन्हें समाज ने देश की राजनैतिक आर्थिक और कई अघोषित स्थितियों ने मारा है। वक्त उनका हत्यारा हो गया।
अखबार में या जहाँ कहीं से किसी को यह दुखद सूचना मिली सब भौचक थे। सकते में थे होश आने पर मित्रों को सूचित कर रहे थे और जल्द से जल्द आशा की किरण पहुँच रहे थे।
मैं रात ग्यारह बजे तक मेम के साथ थी। उनके कहने पर अपने घर गई और अभी आठ बजे पहुँची हूँ तो पुलिस पडौसी और भी न जाने कौन-कौन। सब मौन। मुझसे इंस्पेक्टर पूछ रहा था पर मैं क्या कहती। हत्या कोई कर नहीं सकता था, सुसाइड नोट कहीं नहीं मिला पर नीला शरीर गवाही दे रहा था कि यह नार्मल मृत्यु नहीं है। पर.........पर......... नहीं...... नहीं .......... यह हो नहीं सकता। धीरे-धीरे बहुत सारे विद्यार्थी पहुंच गए थे। पुलिस ने पंचनामा तैयार किया और पोस्टमार्टम के लिये शरीर को गाडी में रखा जाने लगा। तभी कमल, मोहित, खालिद, आयशा ने भी अस्पताल जाने का निर्णय लिया। आयशा अभी एक माह पहले ही यहाँ के अस्पताल में ट्रांसफर होकर आई थी। मेम का बेडरूम पुलिस ने सीज कर दिया, अब हम रह गए सिर्फ उनके प्यारे बच्चे और मौहल्ले के लोग।
किसी बडे बूढे ने ही बात शुरू की आजादी के बाद इस उजाड और जली हुई बस्ती में जिन चन्द लोगों ने डेरा डाल उनमें मेम भी एक थी। जब सब लोग सुरक्षित जीने की इच्छा रखते थे तब भी मेम को नए आने वालों की चिन्ता रहती थी। धर्म और जाति से परे, सिर्फ इन्सानियत और प्रेम की बात करती थी। वह अन्धभक्त किसी की नहीं थी पर सबकी अच्छी बातें स्वीकार करती थी, उनके अतीत को कभी किसी ने कुरेदा नहीं और उन्होंने भी शायद उस अध्याय को बंद कर दिया था।
मैं मनु यहीं पास में एक कमरा लेकर रहने लगी, मेम के पास आती थी, एक्युचल में उनके सार-सम्भाल की सारी जिम्मेदारी उनके विद्यार्थियों ने मुझ पर डाल दी। और आज.... आज सारी नजरें मुझसे प्रश्न पूछ रहीं है? मै क्या बताऊँ?
रिया, मोहन, सेंड्रा इशरत सीधे एरोड्रम से आए थे। न किसी को भूख थी न कोई किसी से पूछ रहा था तभी इशरत जो हम सबसे बडी थी, अनुभवी थी कहने लगी, मेम तो कहती थी न कि स्निग्ध मिट्टी होनी चाहिए। दीपक सी। स्नेह से भीगी-भीगी तभी तो दीपक तेल की तरलता को आत्मसात करेगा और मैं तो दीपक हूँ मेरी बाती तो तुम बच्चे हो। जब आते हो तो तेल कम और पानी ज्यादा होता है इसलिये तिड-चिड-तिड-तिड को मिटाने की। तुम लोगों के बिना मेरा जीवन
व्यर्थ है।
तभी सलीम ने कहा- मैने सुबोध को फोन किया था। मेरी निगाहें सलीम पर टिक गई?
फिर....... भाभी ने फोन उठाया। मैने कहा- भाभी सुबोध को एक खबर देनी है उसे फोन देना।
भाभी फूट-फूट कर रो पडी। कहने लगी-सलीम भैया, सुबोध ने कल रात अपनी सर्विस रिवाल्वर खुद को गोली मार ली।
सबको मानों सांप सूंघ गया। क्या? कैसे? कई प्रश्न थे सबके चेहरों पर। मैंने कहा मेम को यही आंशका थी। अभी तीन-चार दिन पहले सुबोध का पत्र आया था, मेम ने मुझसे ही पढवाया था। उस दिन से मेम का मन शरीर का साथ नहीं दे रहा था, जुबान मन का साथ नहीं दे रही थी। बहुत विचलित थी मेम।
क्या था उस पत्र में?
सुबोध ने लिखा था - आपसे मिलने से पहले मैं सुखी था। गरीब और बिगडा हुआ था। पर उसमें भी आनन्द था। क्योंकि वहाँ जो भी था स्पष्ट था। रिश्ते, दोस्ती, दुश्मनी सब साफ-साफ थे। तब मैं लोगों को अपनी सोच और नजर से देखता था। तब मुझे समाज का गंदा या घिनौना चेहरा नहीं दिखाई देता था। आप आपने हमारी सोच बदली। अकेले नहीं सबको साथ लेकर चलो। हर इन्सान के जन्म के साथ ही उसके कुछ कर्म निश्चित कर दिये जाते हैं। कुछ जिम्मेदारी होती है। अपनों के प्रति, समाज, देश और विश्व के प्रति। आपने हम सबमें नैतिकता, सच्चाई और ईमानदारी ऐसी कूट-कूट कर भरी कि वो हमारी रगों में लहू के साथ बहने लगी। आपने ही नम्रता और मृदुभाषा को हमारा आभूषण बनाया। हमें अपने हिसाब से तैयार कर इस संसार में तैरने को डाल दिया। हाथ पैर मारो। आपने मेरे जैसे कितने ही दीपक तैयार किये। दीपक को जलने के लिये बाहर का माहौल शान्त होना चाहिये। प्रतिकूल या तेज हवा में दीपक कब तक जलेगा मेम कब तक? घबरा कर आपको पत्र लिखा तो आपने यही कहा था कि सुबोध अपने अन्दर की तरलता स्निग्धता को बचाए रखो। तूफान तो परीक्षा लेगा ही।
मैं पूछता हूँ कब तक मेम? मेरा सलेक्शन हुआ, माँ पिताजी से ज्यादा आप प्रसन्न थी इसलिये सच्चाई आपको लिख रहा हूँ। वैसे भी भोले-भोले माँ-बाप नहीं समझ पाएंगे, राजनीति व अफसरशाही की गंदगी। आपकी शिक्षा के अनुसार न मैं गलत करता हूँ न करने देता हूँ परिणामस्वरूप सदैव अपने अफसरों व उनके आकाओं का कोप भाजक बना रहा। सिर्फ इन्क्वायरी और ट्रांसफर में ही पांच साल निकल गए और आज ......... आज आपकी शिक्षा के कारण कई सारे झूठे इल्जामात लगाकर मुझे संस्पेंड कर दिया गया है।
आगे मैं चुप हो गई। बोला ही नहीं जा रहा था, माहौल और बोझिल हो गया। सेंड्रा पानी लाई। पानी पीकर आगे का विवरण देने लगी ..........
आज आपकी आवाज कानों से टकरा रही है- ‘‘गांधी जी कहते थे सच बोलने वाले को सावधान रहना चाहिये’’ सावधान? मेम अब आफ गांधी को पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी पर मात्र ओठ के उच्चारण से याद किया जाता है, दिल-दिमाग से नहीं।
पत्र सुनन के बाद बार-बार एक ही बात कह रही थी- उसने कभी जिक्र ही नहीं किया अपनी परेशानी का। मेरे जन्मदिन पर आया था तब भी बात नहीं की। हम सब मिलकर कुछ तो करते। क्या हो गया है मेरे देश को? क्या हम ऐसी ही आजादी चाहते थे? मैंने तो सबको नेक इन्सान बनाना चाहा। भावी पीढी में देश प्रेम हो नैतिकता हो, वसुधैव कुटुम्बकम की भावना हो। पर....... सुबोध! उसे अभी किसी का साथ चाहिये। सम्बल चाहिये। पांडव तो पांच ही थे पर कृष्ण का सम्बल उन्हें विजयी बना पाया।
मेम ने उसे कई बार फोन लगाने की कोशिश की पर फोन लगा नहीं। मेम की हालत देखकर ही मैं रात देर तक यहाँ रूकी रही।
रमेश ने कहा - वहाँ भाभी अकेले क्या कर रही होगी? इशरत दी ने कहा हम में से कुछ लोगों को तुरन्त गुडगाँव जाना चाहिए। सुबोध की पत्नी और बेटी की सम्हालने अस्पताल से सुबोध की बॉडी लेकर यहाँ लाने के लिये। रमन गुडगाँव का ही था अतः उसके साथ कमल सेंड्रा और रफीक को टैक्सी से रवाना किया गया। यही निर्णय लिया गया कि मेम और सुबोध का अंतिम संस्कार साथ-साथ किया जाए। गौरव आयशा को समझाने निकल पडा कि सुबोध की मृत्यु हो गई और उसके निर्जीव शरीर को यहाँ कल दोपहर तक लाया जाएगा। इसलिये मेम की बॉडी भी अस्पताल में कल तक सुरक्षित रखवाने का इन्तजाम वह कर ले।
रात बहुत भारी थी। हम सब जिम्मेदार थे पर कहीं न कहीं मेम और सुबोध को लेकर तनाव में थे। कई अनुत्तरित प्रश्न सबके सामने थे पर कोई बोल नहीं पा रहा था। जुबान पर ताला लगा था। एक दो बार चाय पी थी सबने, कौन लाया, कहाँ से आई किसी ने नहीं पूछा।
हम सबका केन्द्र बिन्दु थी मेम। सेतु थीं सेतु। अब क्या होगा? सम्बन्धों के निर्वाह हेतु नया सेतु कौन बनेगा। सुबह हुई, कोई ऊंघ रहा था, कोई लेटा था जमीन पर ही यहा घर सबका अपना था। दस बजते-बजते बहुत से लोग आ गए। कुछ लोकल थे कुछ बाहर से। एक अघोषित मौन पसरा था।
एक बजे रफीक का फोन आया, जयपुर की सीमा मे आ चुके थे। आयशा और दो-तीन लोग अस्पताल के लिये रवाना हुए। घंटे भर बाद दो गाडियाँ आकर रूकी, एक से मेम को उतारा गया तो दुसरे से सुबोध को।
क्या मेम जिन्दा होती तो सुबोध का शव देख
पाती? नहीं।
मेम का पूरा कुनबा इकट्ठा था साथ ही सुबोध की पत्नी सीमा और बिटिया स्वरा थी। सुबोध के माता-पिता भी। माहौल इतना गमगीन और उमस भरा हो गया जैसे पूरे आकाश को बादलों ने घेर लिया हो, हवा एकदम थम गई न पानी बरस रहा है न हवा चल रही थी।
दोनों अर्थियाँ एक साथ आशा की किरण के आंगन से उठी। दोनों के चेहरों पर शांति थी। हम सब आदमी औरत, बच्चे बारी-बारी से कंधा दे रहे थे। किसी की सत्य असत्य नहीं बोली गई। आँसुओं का सैलाब बह चला।
मैं सोच रही थी हम सब सुखी माटी की तरह थे। हवा हमें अपने अनुसार उडा देती थी, मेम ने इस सुखी मिट्टी को अपने प्रेम से गूंदा। वर्षो एक-एक बच्चे के पीछे लगी रहती। कहती थी, तुम बस मेरी बातियाँ हो। दुनियाँ को रोशन करोगे। इन्सानियत का परचम लहराओगे। दीपक में तेल पूरा होना चाहिये, प्रेम का तेल बाती में जलने का माद्दा हो फिर बाहर की हवा भी शांत होनी चाहिये। इसी बाहरी माहौल को शान्त रखना सबसे महत्वपूर्ण काम है। यह तुम सबकी जिम्मेदारी है।
हम सब शमशान भूमि में बैठे थे। अग्नि की लपटें ऊँची उठ रही थी। तभी मुझे क्या हो गया और मै जोर-जोर से कहने लगी। सुना दोस्तों हमें हर हाल में दीपक और बाती को जलाएं रखने के लिये माहौल में उठने वाले तूफानों को रोकना होगा। रोकना होगा, रोकना होगा, हम जलेंगे प्रेम के तेल से............. ?
4/6, पी.सी.जी., कॉम्पलेक्स, किला रोड, महामंदिर
जोधपुर-342॰॰1 (राज.) मो. ॰9413874615


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