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ऐसा देश है मेरा/ साहित्य काव्य सृजन से कुसुम जोशी के आध्यात्म के स्वर

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06 May 24
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 डॉ.प्रभात कुमार सिंघल, कोटा

ऐसा देश है मेरा/ साहित्य    काव्य सृजन से कुसुम जोशी के आध्यात्म के स्वर

 

वक्त के पर जाम हो गए,

हर जगह चर्चे आम हो गए।

आसमा पे चांदनी हुई तो क्या,

रोशनी के दाम हो गए।

यह उस गीत का मुखड़ा है जिसे कवियित्री कुसम जोशी ने 1979 में जयपुर के रविंद्र रंगमंच पर उस समय गया जिसमें आयोजित बहुभाषी कवि सम्मेलन की अध्यक्षता विख्यात कवियित्री महादेवी वर्मा रही थी। हॉल खचाखच भरा हुआ था कुर्सियों के बाद दीवारों से सटकर भी लोग खड़े हुए थे, देश भर के पत्रकारों का जमावड़ा था, कादंबनी के संपादक राजेंद्र अवस्थी संचालन कर रहे थे। कवि सम्मेलन में अधिकतर कवि हूट हो रहे थे और जब इनका नाम पुकारा गया तो ये कुछ घबराई सी माइक पर आई मैंने गीत का मुखड़ा सुनाया ही था कि मुखड़े पर ही तालियों की गर्जना से हॉल गूंज उठा, अब इनकी घबराहट जा चुकी थी, पूरे आत्मविश्वास से  पूरा गीत पढ़ा। हर अंतरे के प्रत्येक बंद पर भरपूर तालियां मिलीं और जब गीत समाप्त करके मैं बैठी तो तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गुंजायमान को उठा। महादेवी जी ने अपने पास बुलाया और कहा- अच्छा गीत है खुद लिखती हो ना,  इन्होंने कहा- जी हां, उन्होंने सिर पर हाथ रख कर कहा - अच्छा लिखती हो लिखो, खूब लिखो। जब कवि सम्मेलन समाप्त हुआ तो आश्चर्य का ठिकाना नहीं था क्योंकि ऑटोग्राफ के लिए जितनी भीड़ ने महादेवी जी को घेर रखा था उतनी ही भीड़ ने इन्हें भी घेर रखा था। उस पल अपना जीवन सार्थक समझ रही थी, यही नहीं जब सुबह सोकर उठी  तो राजस्थान पत्रिका के मुख पृष्ठ पर काव्य पाठ करते हुए अपने फोटो के साथ अपनी ही पंक्तियों का हेडिंग देखकर मैं निहाल हो गई।  न्यूज़ थी, कुसुम जोशी की इन पंक्तियों के साथ बहुभाषी कवि सम्मेलन खूब जमा। यह इनके जीवन का वह स्वर्णिम दिन था जिसे ये आज तक नहीं भूल पाई।

कवियित्री की एक प्रभावी और भावपूर्ण रचना "जिंदगी मिल गई" की बानगी देखिए ...........

राह जब से मेरे पांव को मिल गई 

मैंने समझा मुझे मंजिलें मिल गईं 

बीज सींचे तभी से ये लगने लगा

कि मेरे बाग की हर कली खिल गई

 

पांव में है जलन सर पर सूरज जला 

धूप ही धूप का बढ़ चला सिलसिला

आस की ओढ़नी ओढ़ ली तो लगा 

दोपहर में ही यूं दोपहर ढल गई 

 

चहुं दिशाओं में बादल गरजने लगे

भय दिखाने लगे और बरसने लगे 

ज्यों ही देखा मेरे धीर विश्वास को

वेग से आ रही आंधियां टल गईं 

 

रात आई भी तो मावसी रात है 

अब तो दिखता नहीं हाथ को हाथ है

चलते रहने की ही मन ने जो ठान ली 

मावसी रात में चांदनी खिल गई

 

नदिया को लांघ कर ज्यूँ ही आगे बढ़ी 

श्रृंखला पर्वतों की थी आगे खड़ी

मन में संकल्प था बढ़ चली बढ़ चली 

सामने लक्ष्य था जिंदगी मिल गई 

 

ऐसी रचनाओं की रचनाकर   गद्य और पद्य विधाओं में  कविता, गजल,गीत, छंद, दोहे और कहानी लिखती हैं। हिंदी और राजस्थानी भाषाओं में गीत शैली में मानव संवेदनाओं के अतिरिक्त हास्य व्यंग्य गीत शामिल हैं। इनकी हिंदी भाषा की कृतियों में  "गीत बंजारे हो गये" "मन मरीचिका", "मंच मसाला" और "श्री हनुमान चरित्र 'महाकाव्य ' श्री हनुमान शतावली प्रमुख हैं। राजस्थानी भाषा की कृतियों में कृतियां - ,"उन्दो बायरो" और "मनवारां क पाण" हैं। इनकी कहानियां सामाजिक एवं पारिवारिक विषयों पर लिखी गई हैं।

    कविताएं और गीत लिखने की शुरुआत झालावाड़ से ही चुकी थी जब ये 1970 में विवाह उपरांत झालावाड़ आई। साहित्यिक वातावरण होने के कारण लेखन प्रारंभ हुआ। पिताजी कविताएं एवं कहानियाँ लिखते थे और पति जगदीश हास्य व्यंग्य लेख एवं कविताएं लिखते हैं। पहला गीत राजस्थानी 17 साल की उम्र में 1971 में लिखा जो विरह गीत था ,जब अपने एडवोकेट और कवि पति को सुनाया तो वह बोले-अरे वाह ! तुमने तो पहला ही गीत बहुत अच्छा लिखा है। बस यहीं से शुरू हो गया लेखन और सृजन का इनका सफर। इन्होंने राजस्थानी व हिंदी के दो- चार गीत ही लिखे थे कि काव्य गोष्ठीयों में पति साथ सम्मिलित होने लगी। इन्होंने झालावाड़ के अनेक कवि सम्मेलनों और काव्य गोष्ठियों में काव्य पाठ कर दाद बटोरी।

    जब ये जून 75 में कोटा आ कर बसे तो यहां के साहित्यिक माहोल के खुले आकाश में  खूब  सृजन किया और काव्य पाठ से अच्छा प्रोत्साहन मिला।  कविवर थे  रघुराज सिंह  हाड़ा, ये हिंदी व राजस्थानी दोनों भाषाओं में समान रूप से लिखते थे, उनकी रचनाएं तो बेजोड़ थी, प्रस्तुतीकरण भी अद्भुत था। शान्ति भारद्वाज राकेश, प्रेम जी प्रेम, दुर्गा दानसिंह गोड़,  मुकुट मणिराज,  नाथूलाल शर्मा निडर,  धन्नालाल सुमन, जगदीश सोलंकी, विश्वामित्र दाधीच, गिरधारी लाल मालव और ये स्वयं सब ने मिलकर कोटा के आसपास के गांव में जाकर कई जन जागरण कवि सम्मेलन किए। राजस्थानी गीत खूब लिखे जिन्हें सुन कर साहित्यकारों ने इन्हें राजस्थानी कोकिला की उपाधि से सम्मानित किया।

इनके राजस्थानी गीत की बानगी देखिए जिसमें भावपूर्ण सृजन देखते ही बनता है.......

कोयलड़ी वनवास गई कागो जीभां पर राज करे छ

कड़वा बोल सुहाबा लाग्या 

मीठी बातां खाज करे छ खुद, खुद ने नहीं पिछाणे रे मदमाती बेला मं 

भाईचारो दूर खडयो अब अपमानित सो सरमावे छ 

घर घर मं थारो म्हारो ही स्वागत को अब सुख पावे छ 

नहीं तू सूरज चांद  मिनखड़ा 

थाने तो बह जाणो है रे इं 

बहता रेला मं 

स्वागत का तालाब में रह सागर पार करण तू छावे 

पकड़ क पल्लो काम क्रोध रो 

खातर मोक्ष मरण तू छावे 

छीन झपटकर अर्थ कमायो 

वकालत के पेशे से पति द्वारा तिलांजलि दे कर ये 1979 में जयपुर जा बसे। उन दिनों राजस्थान में बहुत कवि सम्मेलन होते थे और उनमें इन्हें भी स्थान मिलता था। राजस्थानी भाषा के लिखे इनके गीत इतने लोकप्रिय हुए कि  पति  के साथ कवि सम्मेलनों के माध्यम से पूरे देश के कवि सम्मेलनों में भाग ले कर काव्यपाठ करने का अवसर मिला। एक कवि सम्मेलन में इन्होंने सुनाया.........

बालो लागे पीर तो 

आछो लागे सासरो 

बीरो म्हारी आस तो 

पिव म्हारो आसरो 

इसे सुनकर प्रसिद्ध बालकवि बैरागी जी ने कहा था-कुसुम जोशी की राजस्थानी रचनाओं में पारिवारिक संबंधों का अनूठा चित्रण होता है। 

देश भर के कवि सम्मेलनों में अपनी पहचान बनाने पर इनका परिवार जून 1986 से मुंबई में रह रहा है। वहां के श्रोता साहित्यिक गीतों को कम पसंद करते थे, यहां मंचों पर हास्य का बोलबाला था। जयपुर से ही हास्य व्यंग्य पर इनकी पकड़ मजबूत हो चुकी थी और ये मंचों से गायब भी नहीं होना चाहती थी। इसलिए मुंबई में भी पारिवारिक व सम सामयिक हास्य व्यंग लिखकर में सदा मंचों पर बनी रही। 

रचनाकार ने 42 वर्ष के साहित्यिक सफर में 

कवि सम्मेलनों के इस व्यावसायिक दौर में  कवयित्री बनकर कवयित्री शब्द की गरिमा को कभी ठेस नहीं पहुंचाई, इस बात से ये स्वयं गौरवान्वित हैं। इनकी एक " प्रणय" कविता की बानगी प्रणय के भावों की कितनी मनभावन अभिव्यक्ति है........

चल रही हूं मैं तुम्हारा 

हाथ थामे उस प्रणय तक 

 राह में मत छोड़ देना

 हाथ मेरा तुम प्रलय तक 

 जीत कर मन तुम विजित हो 

 हार कर मैं अपराजित

 देह मैं और प्राण तुम हो 

 तुम तो हो मुझ में समाहित 

 मैं भी तो तुम में निहित हूं 

 धरा के जल में विलय तक

 राह में मत छोड़ देना 

 हाथ मेरा तुम प्रलय तक 

 

 तुम अरुण में अरुणिमा हूं 

 साथ यह चिरकाल तक है 

 चंद्र तुम मैं पूर्णिमा हूं 

 साथ लाखों साल तक है 

 मैं घड़ी तुम संग चलूंगी

 युग के उस अंतिम समय तक

 राह में मत छोड़ देना 

 हाथ मेरा तुम प्रलय तक 

 

 तुम अजर हो मैं अमिट हूं 

 हैं यहां हम तुम चिरायु 

 प्रीत मैं और प्रेम तुम हो

 काल कालांतर है आयु 

 हम तो मृत्युंजय है प्रियतम 

 काल के भय से अभय तक

 राह में मत छोड़ देना 

 हाथ मेरा तुम प्रलय तक  

 परिचय :

  हिंदी और राजस्थानी भाषाओं में पद्य विधा में कविताएं,गीत और हास्य व्यंग्य की प्रभावी और भावपूर्ण सृजन से आध्यात्म के स्वर बिखरने वाली कवियित्री कुसुम जोशी का जन्म बारां में  9 सितंबर 1954 को हुआ। आपने हायर सेकेंडरी तक शिक्षा प्राप्त की।साहित्यिक क्षेत्र में लाने और आगे बढ़ाने का श्रेय अपने पति को देती हैं। काव्य यात्रा में हर कदम पर उनका साथ इन्हें  मिला है। मुंबई आकर मुंबई के फिल्मी ग्लैमर से ये भी  बच नहीं पाए,। पति ने निर्माता होकर बेटे ने निर्देशक होकर कई फिल्मों व धारावाहिकों का निर्माण किया, इस व्यवसाय में हमने लाभ - हानि दोनों का स्वाद चखा। राजस्थानी फिल्म "बालम थारी चुनड़ी"का निर्माण, गीत व संगीत, राजस्थानी फिल्म, "गौरी" में गीत लेखन,हिंदी फिल्म "जय मां करवा चौथ" में गीत व संगीत,फिल्म सांकल, कांचली, खूब मिलाई जोड़ी में गीत लेखन इनका है। "बोल प्राणी बोल",  "महावीराय बोल", "भजन कलश" और "गज़ाला" इनके प्रमुख  भजन एलबम हैं। कवि सम्मेलन जीवन सरलता पूर्वक चल रहा था कि अचानक 2010 में कवि कवि सम्मेलनों से विरक्ति होने लगी और आध्यात्म की और रुचि बढ़ने लगी। हनुमान जी की कृपा हुई तो श्री हनुमान चरित्र महाकाव्य की रचना हो गई।  कवि सम्मेलनों से सन्यास ले लिया और 2017 से श्री हनुमान चरित्र महाकाव्य ( श्री हनुमंत कथा ) का संगीतमय पंच दिवसीय वाचन करन शुरू कर दिया। देश - विदेश में श्री हनुमंत कथा वाचन कर रही हैं।

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डॉ. प्रभात कुमार सिंघल

लेखक एवं पत्रकार, कोटा

 

 

 


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