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“यज्ञ क्या और इसके करने से लाभ?”

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14 Jul 17
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।यज्ञ क्या है और इसे क्यों करना चाहिये? यज्ञ वैसे तो परोपकार के सभी कार्यों व शुभ कर्मों को कहते हैं परन्तु इसका मुख्य अर्थ देव पूजा, संगतिकरण और दान के लिए भी प्रयोग में आता है। देवपूजा का अर्थ है जड़ व चेतन दोनों प्रकार के देवों की पूजा करना। सभी जड़ पदार्थों में ईश्वर ने विशेष गुण रखे हुए या भरे हुए हैं। उन जड़ पदार्थों के सभी गुणों को जानकर उनका अपने व दूसरों के हित में उपयोग करना देवपूजा कहलाती है। हमारे वैज्ञानिक देवपूजा करते हैं और इसी से भौतिक विज्ञान विकसित होकर वर्तमान अवस्था को प्राप्त हुआ है। हमारे देश के लोगों ने, विशेष कर महाभारत युद्ध के बाद के लोगों ने देवपूजा की उपेक्षा की, जिस कारण देश में अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, मिथ्या परम्परायें, सामाजिक असमानता तथा परस्पर पक्षपात, अन्याय एवं शोषण समाज में प्रवृत्त हो गया जिससे समाज अनेकानेक प्रकार से अवनति, परतन्त्रता व पतन को प्राप्त हुआ। इससे हमारा धार्मिक, सामाजिक, नैतिक व धन-धान्य की न्यूनता आदि सभी प्रकार का पतन हुआ। अतः यज्ञकर्ता का कर्तव्य है कि वह सृष्टि के सभी पदार्थों मुख्यतः वायु, जल, अग्नि, पृथिवी व आकाश के सभी गुणों को जानकर उनसे स्वयं लाभ ले और उससे दूसरों को भी लाभान्वित करे तो यह जड़ देवपूजा का सच्चा स्वरूप होगा। अब चेतन देवों की चर्चा करना भी उपयुक्त होगा। चेतन देवों में ईश्वर सहित माता-पिता, आचार्य, वृद्ध ज्ञानी व अनुभवी जन तथा भिन्न-भिन्न विषयों के शिक्षक, ज्ञानी व वेद आदि शास्त्रों के विद्वान व प्रचारक आते हैं। इसमें मुख्य बात यह है कि यह सभी लोग देव तभी तक हैं जब तक की यह सत्य बात व ज्ञान का प्रचार करते हैं या दूसरों को वार्तालाप व परस्पर भेंट आदि के अवसर पर उन्हें सद्ज्ञान बताते व समझाते हों। माता-पिता अपने बालकों की उन्नति के लिए तत्पर रहते हैं और वह इसके लिए कुछ भी व किसी प्रकार का त्याग करने को तैयार रहते हैं। वह अपनी सच्ची भावना के कारण तो सन्तान के लिए देव हैं ही भले ही वह अज्ञानी ही क्यों न हो, परन्तु यदि वह ज्ञानी होने के साथ धार्मिक भी हैं तो यह उनका विशेष गुण होने से उनके देवत्व की मात्रा अधिक कही व मानी जा सकती है। जो भी हो, संतान का कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता से जो भी ज्ञान व अनुभव सीख सकता हो, उसे प्राप्त करे और उनके प्रति सदैव आदर, सम्मान, कृतज्ञता व सत्कार का भाव रखे व उनका सत्कार करे। चेतन देवपूजा के अन्तर्गत वह विद्वान, अनुभवी, शिक्षकों व वैज्ञानिकों के सम्पर्क में आता रहे और विन्रमता और उनमें अधिकाधिक श्रद्धा रखकर उनसे ज्ञान प्राप्त करता रहे।

चेतन देवों में सबसे बड़ा चेतन देव ईश्वर वा परमात्मा है। वेद एवं इतर वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पंचमहायज्ञविधि, आर्याभिविनय, संस्कारविधि आदि में ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इनका अध्ययन कर ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को जाना जा सकता है। ईश्वर क्योंकि इस सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता और प्रलयकर्ता है, सभी प्राणियों का जन्मदाता व उन्हें सुख देने वाला है, सभी आत्माओं का जन्म-जन्मान्तरों का सच्चा साथी व हितकारी है, अतः सभी मनुष्यों को ईश्वर के प्रति कृतज्ञता की भावना रखकर उसकी प्रतिदिन प्रातः व सायं उपासना करना भी सभी मनुष्यों का प्रमुख कर्तव्य है। यही सबसे प्रमुख व उत्तम देवपूजा है। इसके सफल होने पर संसार के सभी रहस्य खुल जाते हैं और मनुष्य जीवन के लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इसकी विधि स्वामी दयानन्द जी ने पंचमहायज्ञविधि में दी है। इस पर अनेक आर्य विद्वानों पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय, पं. चमूपति, स्वामी आत्मानन्द सरस्वती आदि के भाष्य व टीकायें हैं। इसके साथ योगदर्शन का अध्ययन भी अत्यन्त लाभप्रद होता है। इस अध्ययन के बाद सन्ध्या का अभ्यास कर आत्मा का उत्थान व ईश्वर से मेल होने से जीवन सफल हो जाता है। अतः यह देवपूजा प्रत्येक व्यक्ति को अवश्य ही करनी चाहिये।

देवपूजा के बाद संगतिकरण का स्थान है। संगतिकरण से भी मनुष्य में संगति किये पदार्थों व विद्वान-अविद्वानों के गुण व दोषों का संचार होता है। संगतिकरण के लिए मनुष्य में तीव्र व विवेक बुद्धि होना आवश्यक है। ज्ञान व विवेक बुद्धि होगी तो वह जिन पदार्थों के सम्पर्क में आयेगा उनका ज्ञान प्राप्त कर सकता है। इसके लिए उन पदार्थों के विशिष्ट ज्ञान रखने वाले मनुष्यों व विद्वानों की संगति भी आवश्यक है। विद्वानों का मुख्य कार्य ही यह होता है कि वह जो ज्ञान रखते हैं उसे दूसरे इच्छुक मनुष्यों को दान करें। इस प्रकार मनुष्य विद्वानों व नये नये पदार्थों की संगति कर उनके ज्ञान से विद्वान बन जाता है। संगतिकरण का मुख्य उद्देश्य मनुष्यों को अनेकानेक विषयों का ज्ञानी बनाना प्रतीत होता है।

अब यज्ञ के तीसरे अर्थ व स्तम्भ दान का स्थान आता है। दान का अर्थ है कि हमारे पास जो ज्ञान व द्रव्य हों, उसे सुपात्रों को प्रदान करना। यदि हमारे पास धन व अन्न आदि है तो हम उसे भूखे व निर्धन लोगों को देकर उनकी पीड़ा व दुःखों को कम व दूर कर सकते हैं। यदि हम ज्ञानी है तो उस ज्ञान को विद्यार्थियों व अन्य पात्रों को देकर उनका मार्गदर्शन व विद्यावृद्धि कर सकते हैं। यह सब काम बिना किसी स्वार्थ के होना चाहिये। यदि स्वार्थ से ऐसा करेंगे तो कार्य तो अच्छा है परन्तु उसका वह पुण्य लाभ कर्ता व दाता को नहीं होगा जो निःस्वार्थ भाव से करने से हो सकता है। यह भी जान लें कि शास्त्रों के अनुसार सब प्रकार के दानों में विद्या व ज्ञान का दान सबसे बड़ा व श्रेष्ठ दान माना गया है। अतः इसके लिए हमें सुपात्रों को सदैव विद्या व द्रव्य के दान से सत्कृत करने के लिए तत्पर रहना चाहिये। विद्या दान की बात करते समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि आज का युग पुस्तकों का युग है। हर विषय की पुस्तकें निकट के पुस्तक विक्रेताओं व नैट पर उपलब्ध हो जाती हैं। अनेक स्थानों पर बड़े बड़े पुस्तकालय भी हैं जहां दुलर्भ ग्रन्थ हैं। कई पुस्तकालयों में हस्त लिखित प्राचीन पाण्डुलिपियां भी हैं जिन पर कभी कोई दृष्टि ही नहीं डालता। अतः हमें स्वाध्याय की आदत बनानी चाहिये और नियमित रूप से स्वाध्याय अर्थात् अच्छे ग्रन्थों के अध्ययन को पर्याप्त समय देना चाहिये। इससे जीवन में बहुत लाभ होता है। कोई भी व्यक्ति व सम्प्रदाय स्वाध्याय का विरोधी नहीं है। ऋषि दयानन्द की कृपा से आज हर व्यक्ति स्वाध्याय का महत्व जानता है। वैदिक आर्य धर्म तो सबसे अधिक वैदिक व अन्य ग्रन्थों के स्वाध्याय के पक्ष में है। स्वयं आर्यसमाज के संस्थापक ने देश में उपलब्ध प्रायः सभी प्रकार के सहस्रों दुलर्भ ग्रन्थों का अध्ययन किया था। इसी कारण वह देश में सर्वोपरि ‘जगद गुरु’ का स्थान प्राप्त कर सके। यज्ञ का यह प्रमुख अर्थ हमने उपर्युक्त पंक्तियों में बताने का प्रयास किया है।

यज्ञ के अन्तर्गत देवयज्ञ वा अग्निहोत्र भी आता है। अग्निहोत्र देवयज्ञ प्रतिदिन प्रातः सूर्योंदय व उसके बाद एवं सायं सूर्यास्त से पूर्व करने का विधान है। अग्निहोत्र की परिभाषा करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि अग्नि अथवा परमेश्वर के लिए, जल व वायु की शुद्धि, ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ जो हवन, अर्थात् दान करते हैं, उसे ‘अग्निहोत्र’ कहते हैं। अग्निहोत्र में एक हवनकुण्ड होता है, जिसमें यज्ञ की समिधाओं को रखकर अग्नि प्रदीप्त की जाती है। इस तीव्र अग्नि में गो घृत व सुगन्धित, मिष्ठ, सोमलता आदि ओषधियों की आहुतियां देकर उन्हें सूक्ष्म कर वायु व उसमें वाष्प रूप में विद्यमान जल में फैलाया जाता है जिससे वायु व वायुस्थ जल की शुद्धि व इनका गुणवर्धन होने से मनुष्यों व अन्य प्राणियों को अनेकानेक लाभ होते हैं। जिस प्रकार अग्नि में एक मिर्च डालने से लोगों को छीकें आने लगती है, वहां सैकड़ों मनुष्यों का बैठना दूभर हो जाता है, यह मिर्च के सूक्ष्म होने के कारण होता है। उसी प्रकार यज्ञ में डाले गये भिन्न भिन्न द्रव्यों के सूक्ष्म होकर वायु में फैलने से वायु व जल की शुद्धि सहित स्वास्थ्य लाभ, रोग निवृत्ति एवं अन्न व ओषधियों आदि की शुद्धि से अनेक लाभ होते हैं। वायु हमारे प्राणों को जीवन देने के साथ शरीर को स्वस्थ रखती है। शुद्ध वायु से हमारा रक्त शुद्ध होता है जो हमारे अच्छे स्वास्थ्य व निरोग जीवन के लिए अति आवश्यक है। स्वास्थ्य व सुख के लिए हमें शुद्ध व ऊर्जायुक्त भोजन चाहिये। रोग दूर करने के लिए शुद्ध ओषधियों की आवश्यकता होती है। यह भी यज्ञ करने से प्राप्त होती हैं। परमात्मा ने वायु मुख्यतः हमारे श्वांस-प्रश्वांस के लिए बनाई है। यह शुद्ध होगी तो हमारा रक्त अधिक से अधिक शुद्ध होगा। हमारे दैनन्दिन व्यवहारों व कार्यों से वायु अशुद्ध होती रहती है। श्वांस व प्रश्वांस से शुद्ध वायु अशुद्ध बनती है। हमारे भोजन, स्नान, वस्त्र आदि के धोने, बर्तन साफ करने आदि से भी वायु व जल में बिगाड़ होता है। इस कारण हमारा कर्तव्य बनता है कि जितना वायु हमारे निमित्त से अशुद्ध हुआ है उतना व उससे अधिक वायु व वर्षा जल हम शुद्ध करें अन्यथा हम पाप के भागी होते है। इसका उपाय एकमात्र प्रतिदिन प्रातः सायं यज्ञ करना ही है। यज्ञ करने से निवास गृहों में जो वायु होता है वह यज्ञ की अग्नि की उष्णता से हल्का होकर बाहर निकल जाता है और बाहर का शुद्ध वायु घर के भीतर प्रवेश करता है। यह विशेष लाभ केवल यज्ञ के करने से होता है। ईश्वर भी वेदाज्ञा के पालन से यज्ञकर्ता मनुष्यों से प्रसन्न होता है और उन्हें सुख व समृद्धि सहित कल्याण प्रदान करते है। यज्ञ में डाली जाने वाली सामग्री और यज्ञ से होने वाले लाभों से सम्बन्धित ऋषि दयानन्द जी के वाक्य लिखकर हम इस लेख को विराम देंगे। वह लिखते हैं ‘केशर, कस्तूरी आदि सुगन्ध, घृत-दुग्ध आदि पुष्ट, गुड़-शर्करा आदि मिष्ट तथा सोमलतादि रोगनाशक ओषधि, जो ये चार प्रकार के बुद्धिवृद्धि, शूरता, धीरता, बल और आरोग्य करनेवाले गुणों से युक्त पदार्थ हैं, उनका होम करने से पवन और वर्षा जल की शुद्धि (पर्यावरण की शुद्धि वा प्रदुषण निवारण) करके शुद्ध पवन और जल के योग से पृथिवी के सब पदार्थों की जो अत्यन्त उत्तमता होती है, उससे सब जीवों को परम सुख होता है। इस कारण उस अग्निहोत्र कर्म करने वाले मनुष्यों को भी जीवों का उपकार करने से अत्यन्त सुख का लाभ होता है तथा ईश्वर भी उन मनुष्यों पर प्रसन्न होता है। ऐसे-ऐसे प्रयोजनों के अर्थ अग्निहोत्रादि का करना अत्यन्त उचित है।’ हम आशा करते हैं कि पाठक इन विचारों को लाभप्रद पायेंगे। ओ३म् शम्।

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