GMCH STORIES

“वेद के विद्वानों को मोक्ष देने वाला ईश्वर हम सब मनुष्यों का सर्व प्रमुख गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है”

( Read 11541 Times)

17 Apr 17
Share |
Print This Page
ईश्वर संसार का रचयिता, पालक एवं प्रलयकर्ता है। वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। सभी मनुष्यों की उपासना का पात्र केवल और केवल वही एक परमात्मा है। अन्य इतर मनुष्य व विद्वान ईश्वर की तुलना में उपासना, भक्ति व प्रार्थना आदि की दृष्टि से हेय व उसके बाद व उससे बहुत दूर हैं। ईश्वर का अवतार कभी नहीं होता और न कोई एक व्यक्ति उसका एकमात्र पुन व सन्देशवाहक ही होता है। महर्षि दयानन्द जी ने जो कार्य किया उसके आधार पर वही ईश्वर के सच्चे पुत्र और सन्देशवाहक सिद्ध होते हैं। उनसे पूर्व उत्पन्न सभी वैदिक ऋषि भी उन्हीं के अनुरूप थे। यह भी जानने योग्य है कि ईश्वर, जीवात्मा और मूल प्रकृति अनादि व नित्य सत्तयायें है और तीनों ही अविनाशी और अमर हैं। जीवात्मा सत्य चित्त तो है परन्तु आनन्दस्वरूप न होकर आनन्द से रहित है और आनन्द की अपेक्षा व अभिलाषा रखता है जिसकी पूर्ति सर्वाधिक रूप से ईश्वर के सान्निध्य, उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित उसकी वेदों में दी गई आज्ञा के पालन करने से मिलती है। ईश्वर के बनायें अनेक भौतिक पदार्थों के भोग से भी मनुष्य को अस्थाई व क्षणिक सुख की प्राप्ति होती है परन्तु इनका परिणाम दुःख मिश्रित होने से जन्म जन्मान्तरों में जीवात्मा की उन्नति न होकर पतन ही प्रायः होता है। अतः वर्तमान व भविष्य, इस जन्म व परजन्मों में सुख व आनन्द की उपलब्धि की प्राप्ति के लिए मनुष्यों को ईश्वर के सच्चे सवरूप का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। ऐसा करके और वेदानुकूल ईश्वर सन्ध्योपासना करके ही मनुष्य अपने जीवन को सफल व सुखी कर सकता है। ऋषि दयानन्द का सारा परिश्रम इसी बात के लिए था। उनसे पूर्व ईश्वर, जीवात्मा, सन्ध्या, उपासना आदि विषयों के यथार्थ उत्तर उपलब्ध नहीं होते थे और अल्पज्ञानी व अज्ञानी लोगों को इसका बोध भी नहीं था परन्तु आज वेद, वैदिक साहित्य और ऋषि दयानन्द की कृपा से ईश्वर व सृष्टि सहित जीवात्मा, मनुष्य जीवन का लक्ष्य व उसकी प्राप्ति के साधन, अभ्युदय व निःश्रेयस की सिद्धि जैसे सभी विषयों के उत्तर, समाधान एवं यथार्थ ज्ञान उपलब्ध एवं प्राप्य है। जो मनुष्य इनको जानने व प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करता वह मनुष्य नाम को सार्थक नहीं करता क्योंकि मनुष्य का अर्थ ही मनन करना और इन प्रश्नों पर विचार कर उनका यथार्थ समाधान जानकर सही साधन अपनाकर अभ्युदय व निःश्रेष्य की सिद्धि प्राप्त करना ही है।

ईश्वर से हमारे एक सनातन नित्य मित्र, स्वामी-सेवक, उपास्य-उपासक, पिता-माता आदि अनेक प्रकार के सम्बन्ध हैं। महर्षि दयानन्द ने संस्कारविधि में ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना के आठ मन्त्रों का विधान कर उनकी आर्य भाषा हिन्दी में सरल व सुबोध व्याख्या की है। सातवें मन्त्र में वह कहते हैं कि वह ईश्वर अपना अर्थात् हमारा सबका गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उसकी भक्ति किया करें। परमात्मा के लिए वह मन्त्रार्थ के आरम्भ में लिखते हैं कि हे मनुष्यों ! वह परमात्मा अपने लोगों को भ्राता के समान सुखदायक, सकल जगत् का उत्पादक, वह सब कामों का पूर्ण करनेहारा, सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम, स्थान, जन्मों को जानता है, और जिस सांसारिक सुख-दुख से रहित, नित्यानन्दयुक्त मोक्षस्वरूप, धारण करने हारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान् लोग स्वच्छे पूर्व विचरते हैं। आर्यसमाज के विद्वानों व स्वाध्याय की प्रवृत्ति वालों के लिए यह बातें सामान्य हैं परन्तु अन्यों के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण हैं और हम समझते हैं उन्हें इस पर एक दृष्टि डालने सहित गम्भीरता से विचार करना चाहिये जिससे उन्हें भूरिशः लाभ हो सकता है। हम यह भी मानते व समझते हैं कि यदि एक सामान्य मनुष्य, भले ही वह किसी भी मत व मतान्तर का मानने वाला अनुयायी क्यों न हो, यदि वह उसका अर्थ सहित प्रतिदिन व दिन में अनेक बार पाठ करने के साथ मन्त्र के पदों व अर्थों पर विचार कर उसका जीवन में पालन करता है, तो वह इस एक मन्त्र के ही पाठ, जप, विचार-चिन्तन व अर्थों के ध्यान से अपने इस जीवन व भावी जन्मों को भी उन्नत कर सकता है। यह एक ही मन्त्र नहीं अपितु वेद ऐसे उत्तमोत्तम मन्त्रों से भरा पड़ा है। वेदाध्ययन ही मनुष्यों को सभी सत्य विद्याओं जिनमें अध्यात्म विद्या सहित जीवन जीने की विशेष कला के दर्शन होते हैं, ऐसे अनेक महत्वपूर्ण विचारों व जानकारियों से भरा पड़ा है जिसका अध्ययन अध्येता को विशेष सुख, मानसिक एवं आत्मिक शान्ति प्रदान करता है। अतः कल्याण व जीवन में सुख-शान्ति के अभिलाषी प्रत्येक मनुष्य, परिवार, समाज व मत-मतान्तर के अनुयायी को अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर वेदाध्ययन व उसका आचरण करना चाहिये। हमने जिस मन्त्र की चर्चा की है वह यजुर्वेद के 32 वें अध्याय का 10 वां मन्त्र है। मन्त्र है ‘ओ३म स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यत्र देवाऽअमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।।’

इस मन्त्र की अनेक बातें ध्याता व मन्त्रपाठ करने वालों को आकर्षित करती हैं। एक तो यह कि ईश्वर हमारे सब कामों व इच्छाओं को पूर्ण करने वाला है। शास्त्र, तर्क व युक्ति आदि प्रमाणों से यह बातें सत्य सिद्ध होती हैं। संसार के सभी लोकों की सूक्ष्म व सभी गुप्त बातों को भी ईश्वर जानता है। वह इस अनन्त ब्रह्माण्ड के सभी लोकों व उनके सभी नामों, स्थानों उत्पत्ति वा जन्मों आदि को व्यापक व विस्तृत रूप से जानता है। हमारा वह ईश्वर हमें धर्मिष्ठ भ्राता के समान सुखदायक है। राम के अपने भाईयों व प्रजा से जिस प्रकार के मधुर सम्बन्ध थे व वह एक दूसरे के प्रति सुखदायक थे, उनसे भी अधिक ईश्वर हमारे लिए सुखदायक है। मन्त्र में ऋषि दयानन्द ने ‘जनिता’ शब्द का अर्थ सकल जगत् का उत्पादक बताया है। जिस बात को आज के वैज्ञानिक न जानते हैं और न मान ही पा रहे हैं, उसका उत्तर देते हुए ऋषि दयानन्द व वेद बताता है कि इस सकल संसार, ब्रह्माण्ड व विश्व का उत्पादक, उसको रचने वाला एक परमेश्वर ही है। यह अपौरुषेय रचना है जिसे ईश्वर के अतिरिक्त कोई उत्पन्न नहीं कर सकता और न ही यह सृष्टि स्वतः बन सकती है। हमें लगता है कि वैज्ञानिकों व विज्ञान को अन्त में वेद व ऋषियों की इस सत्योक्ति को स्वीकार करना ही पड़ेगा। कुछ मत व सम्प्रदाय आदि इस संसार को ईश्वर से रचा हुआ ही मानते हैं परन्तु उनके ईश्वर के स्वरूप विषयक जो सिद्धान्त व विचार हैं, वह पूर्णतः अवैज्ञानिक एवं बुद्धिसंगत न होने के कारण साधारण मनुष्य को भी स्वीकार करने के लिए प्रेरित नहीं करते। वैज्ञानिक भी प्रायः वेद निहित ईश्वर के स्वरूप व सृष्टि की उत्पत्ति विषयक आर्यसमाज के सिद्धान्तों व विचारों से अनभिज्ञ हैं। आर्यसमाज के संगठन व इसके विद्वानों की भी कुछ सीमायें वा कमियां है कि वह वैज्ञानिक को सन्तुष्ट करने वाली युक्तियों, विचारों, मान्यताओं, सिद्धान्तों व तर्कों पर आधारित आंग्ल भाषा का कोई प्रमाणिक ग्रन्थ लिखकर उसका यथोचित मात्रा में प्रचार नहीं कर सके। हम भाग्यशाली हैं कि हम इस सिद्धान्त को गहराई से जानते हैं, इससे पूर्णतः सन्तुष्ट हैं और हमें ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने का पूरा लाभ भी प्राप्त है। इस महनीय देन के लिए ऋषि दयानन्द हम वैदिक धर्मियों के कोटिशः धन्यवाद के अधिकारी हैं। मन्त्र में एक शब्द ‘विश्वा’ आया है जिसका ऋषि ने अर्थ करते हुए लिखा है कि ईश्वर सभी जीवात्माओं व मनुष्यों के सभी कामों का पूर्ण करनेहारा है। ईश्वर हमारे लिए जो शुभ व अशुभ है उन सबको भली प्रकार जानता है व शुभ ज्ञान व पदार्थों को हमें प्रदान भी कराता है। यह भी वैदिक धर्म व ऋषि दयानन्द की बहुत बड़ी देन है। शायद विगत पांच हजार वर्षों में किसी आचार्य ने हिन्दी भाषा में विधाता का इतना विवेक एवं महत्वपूर्ण अर्थ नहीं किया। इसे एक शब्द व अर्थ से ही हम सबके लिए ईश्वर की उपासना करना सिद्ध होता है।

मन्त्र में आये पदों यत्र, तृतीये धामन्, अमृतम्, आनशानाः देवाः व अध्यैरयन्त का अर्थ वा व्याख्या करते हुए ऋषि दयानन्द बताते हैं कि ईश्वर सांसारिक सुख व दुःख से रहित है। वह नित्य अर्थात् सदा-सर्वदा आनन्द से युक्त है, वह मोक्ष अर्थात् सभी प्रकार के दुःखों से पूर्णतया रहित है, उस परमात्मा की दया व कृपा से वेदाध्ययन, वेदों का स्वाध्याय व वेदाचरण करने वाले विद्वान, योगी व ऋषि आदि मोक्ष को प्राप्त कर स्वेच्छा व स्वतन्त्रता पूर्वक सर्वव्यापक ईश्वर व इस समस्त ब्रह्माण्ड में सभी स्थानों पर विचरते हैं। इन सब कारणों से ऋषि दयानन्द कहते हैं कि ऐसा परमात्मा ही हमारा गुरु, आचार्य, राजा व न्यायाधीश है और हमें उसी की, अन्य व अन्यों की नहीं, भक्ति ध्यान व उपासनापूर्वक करनी चाहिये। हमें अनुमान होता है कि ईश्वर की उपासना के पक्ष में इससे सशक्त प्रमाण व तर्क नहीं हो सकते।

हम जब वेद मन्त्रों को उनके सभी शब्दों का अर्थ जानकर व ऋषि व विद्वानों के सुसंगत अर्थों को पढ़ते हैं, उन पर विचार करते हैं तो हमें उनमें निहित गम्भीर रहस्यों का ज्ञान होता है और हमारे मन व आत्मा में ईश्वर के ध्यान, भक्ति व उपासना के प्रति लगन, भावना, प्रेरणा व उत्कण्ठा उत्पन्न होती है और हम एक सच्चे साधक बनते हैं। ऋषि दयानन्द सर्वोच्च कोटि के उपासक, साधक व योगी थे। उन्होंने ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार भी किया हुआ था। जो सही विधि से जितनी साधना करेगा, आसी मात्रा में उसको सफलता मिलती है। हम कम साधना करते हैं तो हमें लाभ भी कम ही होगा। शीषर्पस्थ कोटि के उपासक होने के कारण ऋषि दयानन्द ईश्वर की इतनी सुन्दर, सुस्पष्ट, सारगर्भित, स्पष्ट तथा आत्मा को सन्तुष्ट एवं प्रेरित करने वाली व्याख्या कर सके। सारा संसार उनका ऋणी है। दुःख है कि मत-मतान्तरों के अविद्या से ग्रस्त आचार्यों ने ऋषि दयानन्द के सत्य विचारों को अपने अनुयायियों तक पहुंचने नहीं दिया। संसार की सभी समस्याओं का मूल कारण भी अविद्या व अविद्यायुक्त मत-मतान्तर ही हैं। वेद ही इनकी परमौषध है। ऋषि ने इस परमौषध से ही देश व संसार के रोगों को दूर करने का प्रयास किया था, जिसके वह सर्वथा योग्य थे और जिसमें सभी मत-मतान्तर बाधक सिद्ध हुए। आज के पढ़े लिखे ज्ञानी व विद्वान कहे जाने वाले लोग नाना प्रकार की पोथियों को पढ़ते हैं परन्तु वह ईश्वर व समाज विषयक यथार्थ ज्ञान ‘विवेक’ से कोषों दूर हैं। इसका समाधान वेद और महर्षि दयानन्द की विचारधारा से ही हो सकता है। सत्यार्थप्रकाश का प्रचार व उसकी शिक्षाओं का समग्रता से ग्रहण ही संसार की अशान्ति को दूर कर मनुष्य को अभ्युदय व निःश्रेयस प्राप्त करा सकता है। हम सबको वेद वर्णित ईश्वर को ही अपना गुरु, आचार्य, राजा व न्यायाधीश मानना चाहिये और ऋषि दयानन्द की ‘मनुष्य’ विषयक परिभाषा को अपने जीवन में सार्थक करना चाहिये। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121



Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Chintan
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like