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राम सबमें समाया है, जग में पराया कोई नही

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08 Jun 18
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हम में राम तुम में राम सब में राम समाया है जग में कोई नहीं पराया.... महामण्डलेष्वर हरिओमदासजी महाराज ने कथा के क्रम में कहा कि राम कथा कहने से हम ज्ञानी नहीं हो जाते है । रामको मानें तब ज्ञानी । माँ-बाप की मानें तब हमारा कल्याण होता है । दुनिया की नजरों में अच्छे बनने से क्या ? हमारे रामजी की नजर में अच्छे बन जाओ तो दोनों लोक सुधर जाएगा ।
सरस्वती विद्या मंदिर स्कूल उदाजी का गडा में चल रही श्री राम कथा के सप्तम दिन महामण्डलेश्वर श्रीमहंत श्री हरिओमदासजी महाराज ने कहा कि हम चित्र नहीं चरित्र के उपासक बनें । भक्ति और सत्संग से ज्ञान आता है और ज्ञान से चरित्र का निर्माण होता है । अच्छे काम बार-बार करें, लगातार करें, तब तक करें, जब तक वह आदत न बन जाए । महाराज श्री ने कहा कि मदिरा संबंधों में षुचिता को छीनती है । इसके सेवन से मन व प्राण का संतुलन बिगडता है । धन का अधिक होना अपव्यय की प्रवृति बढाता है । धन को भोगें, पर पात्र लोगों में उसे बांटे । दान की यहीं सही विधि है ।
ईश्ट के चिंतन से मिलता है आनंद- महामण्डलेष्वर हरिओमदासजी महाराज
मानव सांसारिक वस्तुओं में सुंदरता ढूंढता है । सुंदर और भोग प्रदान करने वाली वस्तुओं को एकत्रित कर प्रसन्न होता है । भगवद्प्रेमी अपने ईश्ट के स्वरुप चिंतन में ही आनंदित होता है । भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं लेकिन उन्हें इन भौतिक आंखों से देखा नहीं जा सकता है । उन्हें देखने के लिए स्वच्छ हृदय और पवित्र मानसिक आंखें चाहिए । भगवान का भक्त यह जानता है कि इस नष्वर संसार की सबसे सुंदर वस्तु भी भगवान के पैर के नाखून की धोवन के बराबर भी सुंदरता नहीं रखती है । भगवान के स्वरुप के चिंतन के बाद किसी की आवष्यकता नहीं रह जाती है । उन्होंने मानव स्वार्थ को इंगित करते हुए कहा कि हम भगवान को सिर्फ मुसीबत में याद करते हैं । हमें सुख व दुख दोनों समय राम को स्मरण करना चाहिए । महामण्डलेष्वर हरिओमदासजी महाराज ने कहा कि हम भगवान से जैसा संबंध जोडते है वे उसी रुप में हमें मिलते हैं ।
महाराजश्री ने श्रीराम सुग्रीव मिलन प्रसंग पर अपने प्रवचन में बताया कि सुग्रीव के मन में संकोच था की क्या श्री राम मुझसे प्रीति करेंगे ? लेकिन तभी हनुमानजी ने अग्नि को साक्षी मानकर प्रतिज्ञापूर्वक उनकी मित्रता करवा दी । फिर लक्ष्मण ने सुग्रीव को सारी बात बताई, सुग्रीव ने नेत्रों में जल भरकर विश्वास दिलाया की हे नाथ ! जानकीजी मिल जाएंगी । भगवान ने सुग्रीव से पूछा की तुम वन में किस कारण से रहते हो ? सुग्रीव ने कहा है नाथ ! मय दानव का एक पुत्र था, उसका नाम मायावी था । एक बार वह हमारे गांव में आया । उसने आधी रात को नगर के फाटक पर आकर ललकारा । बालि शत्रु की ललकार को सह नहीं सका । वह दौडा, उसे देखकर मायावी भागा । मैं भी भाई के संग लगा चला गया । वह मायावी एक पर्वत की गुफा में जा घुसा । तब बालि ने मुझे समझाकर कहा- तुम एक पखवाडे (पन्द्रह दिन) तक मेरी बाट देखना । यदि में उतने दिनों में न आऊँ तो जान लेना कि मैं मारा गया । सुग्रीव वहां महीने भर तक गुफा के बहार बाट देखता रहा । उस गुफा में से रक्त की बडी भारी धार निकली मैं समझा कि उस मायावी राक्षस ने बालि को मार डाला, अब आकर मुझे मारेगा, इसलिए मैं वहां गुफा के द्वार पर एक बडा पत्थर लगाकर भाग आया । मंत्रियों ने नगर को बिना स्वामी (राजा) का देखा, तो मुझको जबर्दस्ती राज्य दे दिया । लेकिन बालि वास्तव में मरा नहीं था बल्कि बालि ने उस दानव को मार दिया था । जब बालि घर आया तो उसने मुझे राजसिंहासन पर देखा । उसने समझा कि यह राज्य के लोभ से ही गुफा के द्वार पर शिला दे आया था, जिससे मैं बाहर न निकल सकूँ और यहां आकर राजा बन बैठा । बालि ने मुझे शत्रु के समान बहुत अधिक मारा और मेरा सर्वस्व तथा मेरी स्त्री को भी छीन लिया । हे कृपालु रघुवीर मैं उसके भय से समस्त लोकों में बेहाल होकर फिरता रहा । वह श्राप के कारण यहां नहीं आता । सुन सेवक दुःख दीनदयाला फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला ।। सेवक का दुःख सुनकर दीनों पर दया करने वाले श्री रघुनाथजी की दोनों विशाल भुजाएं फडक उठीं ।
इसी कडी में कथा को आगे बडाते हुए सुग्रीव राज्याभिषेक प्रसंग पर महाराज ने प्रवचन दिए श्री रामचन्द्रजी ने छोटे भाई लक्ष्मण को समझाकर कहा कि तुम जाकर सुग्रीव को राज्य दे दो । लक्ष्मणजी ने तुरंत ही सब नगरवासियों को और ब्राह्मणों के समाज को बुला लिया और उनके सामने सुग्रीव को राज्य और अंगद को युवराज पद दिया । सुग्रीव ने भगवान से प्रार्थना कि - आप मेरे साथ आकर रहो । फिर प्रभु ने कहा - हे वानपति सुग्रीव ! सुनो, मैं चौदह वर्ष तक गांव (बस्ती) में नहीं जाउंगा । ग्रीष्मऋतु बीतकर वर्षाऋतु आ गई । अतः मैं यहां पास ही पर्वत पर टिका रहूंगा । तुम अंगद सहित राज्य करो । मेरे काम का हृदय से सदा ध्यान रखना । जैसे ही चतुर्मास बीतें तुम यहां आ जाना । यहां किष्किन्धा नगरी में पवन कुमार श्री हनुमान ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्रीरामजी के कार्य को भुला दिया और साम, दान, दंड, भेद चारों प्रकार की नीति के बारे में बताया । हनुमान्जी के वचन सुनकर सुग्रीव ने बहुत ही भय माना और कहां सांसारिक विषयों ने मेरे ज्ञान को हर लिया । हे पवनसुत जहां तहां वानरों के यूथ रहते हैं वहां दूतों के समूहों को भेजो और तब हनुमानजी ने दूतों को बुलाया और सबका बहुत सम्मान करके सबको समझाया कि सारे वानर १५ दिन में भीतर एकत्र हो जाओ । इसी समय लक्ष्मणजी नगर में आए । उनका क्रोध देखकर वानर जहां-तहां भागे । लक्ष्मणजी ने धनुष चढाकर कहा कि नगर को जलाकर अभी राख कर दूँगा । अंगद जी लक्ष्मण के सामने आये हैं । अंगद ने इन्हें प्रणाम किया है और क्रोध शांत करने कि कोशिष कि है । हनुमान्जी ने तारा सहित जाकर लक्ष्मणजी के चरणों की वंदना की और प्रभु के सुंदर यश का बखान किया । वे विनती करके उन्हें महल में ले आए तथा चरणों वंदन किया । तब वानरराज सुग्रीव ने उनके चरणों में सिर नवाया और लक्ष्मणजी ने हाथ पकडकर उनको गले से लगा लिया ।अब अंगद आदि वानरों को साथ लेकर और श्रीरामजी के छोटे भाई लक्ष्मणजी को आगे करके सुग्रीव हर्षिर्त होकर चले और जहां रघुनाथजी थे वहां आए और सुग्रीव रामजी के चरणों में लेट गए हैं । सुग्रीव हाथ जोडकर कहते है- हे नाथ ! मुझे कुछ भी दोष नहीं है । अतिसय प्रबल देव तव माया । दूटइ राम कहु जौं दाया ।। हे देव आपकी माया अत्यंत ही प्रबल है । आप जब दया करते हैं, हे राम ! तभी यह छूटती है । मुझे आप क्षमा कर दीजिए आदि प्रसंग विस्तार से महाराज श्री श्रोताओं को समझाए ।
गुरू महिमाः- महाराजश्री ने अपने प्रवचन में बताया कि गुरू शब्द का अभिप्राय अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाना है। जिस व्यक्ति का कोई गुरू नहीं होता है वह सही मार्ग पर नहीं चल सकता है। अतः प्रत्येक को जीवन में गुरू अवश्य बनाना चाहिए। परन्तु उसकी सम्प्रदाय, उनके जीवन का लक्ष्य आदि की जानकारी लेकर गुरु बनाना चाहिए ।

आज श्री राम कथा में महाराजश्री ने श्रोताओं को सुग्रीव मित्रता, सीता खोज, लंका दहन, श्री हनुमान चरित्र , लंका काण्ड की कथा विस्तार से सुनाई ।इसके साथ ही सायं ५ बजे भगवानजी को भोग एवं उसके बाद व्यासपीठ की आरती उतारी गई एवं प्रसाद वितरण किया गया ।

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