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१६ जून को - पं. नागर की जयन्ती पर विशेष

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14 Jun 19
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१६ जून को - पं. नागर की जयन्ती पर विशेष

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर मेवाड लौटने पर पं० जनार्दनराय नागर को मेवाड के महाराणा भूपाल सिंह मजिस्ट्रेट बनाना चाहते थे किन्तु पं. नागर ने उससे इंकार कर दिया और शिक्षक बनना अधिक श्रेयस्कर समझा क्योंकि वह चाहते थे सच्चे अर्थों में मनुष्य का निर्माण करना। जब मेवाड राज्य में समाजसेवा और शिक्षा कार्य भी राजद्रोह माना जाता था, उस समय पं. नागर ने दासता का विरोध और जन जागरण का संकल्प धारण कर १९३७ में विद्यापीठ की स्थापना की।

पं. नागर ने स्वतंत्रता संग्राम के वातावरण में जहॉ स्वतंत्रता सेनानियों के निर्माण का दायित्व निभाया वहीं स्वतंत्रता सेनानियों के जेल जाने पर उनके परिवार वालों को नैतिक समर्थन और सहयोग दिया जिससे जनता में विद्यापीठ की एक उज्ज्वल छवि बनी। जनता के साथ पं. नागर ने विद्यापीठ का जो अपनापन संयोजित किया उससे मेवाड में शिक्षा का प्रचार प्रसार भी किया जा सका और विकास की ओर अग्रसर होने का मार्ग भी प्रशस्त हुआ।

पं. नागर ने मेवाड के जन जीवन म स्वाधीनता की चेतना का विकास किया। साहित्य, कला संस्कृति, शिक्षण दीक्षण आदि के माध्यम से समाजोत्थान का कार्य किया। वह चाहते थे कि समाज की बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप उत्पन्न होने वाली अपेक्षाओें की पूर्ति हो। इसके लिये वह आवश्यक समझते थे कि मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बने।

पं. नागर राजस्थान विद्यापीठ में इस तरह के वातावरण का निर्माण करने में सफल हो सके कि विद्यापीठ के कार्यकर्ता इसे अपनी संस्था समझें। उन्होंने एक पारिवारिक वातावरण का निर्माण किया जिसमें भ्रातृभाव का प्राधान्य था। विचारधाराओं की विभिन्नता का महत्व न था। संवेदनशीलता का महत्व था। विविधता में एकता का वैशिष्ट्य महत्वपूर्ण था।

पं. नागर के व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षण था कि जो उनके सम्फ में आता, वह उनका हो जाता था। कारण था उनके भीतर विद्यमान विश्व को एक परिवार मानने वाले अपनत्व के चैतन्य का विस्तृत स्वरूप। उनकी एकरूपता व स्वभाव में पारदर्शिता उनकी अपनी निधि थी जो हर व्यक्ति को प्रगति की ओर अग्रसर होने का आत्मबल प्रदान करती थी।

उनकी वाणी में अमृत था जिसका प्रभाव हर श्रोता पर पडता था। वे धारा प्रवाह बोलते थे। विद्वता की चरम सीमा होते हुए वह अत्यन्त सहज थे। उनके पास जाने वाला हर व्यक्ति प्रसन्न होकर लौटता था। कारण उसे उसके प्रश्न का संतोषजनक उत्तर मिल जाता था। उसकी समस्या का समाधान मिल जाता था। वह एक युग पुरूष थे। उन्होंने ऐसे युग का निर्माण किया जिसमें अतीत के सिंहावलोकन की दक्षता थी। अतीत से शिक्षा लेने का चैतन्य था। वर्तमान की उपलब्धियों के कीर्तिमानों का मूल्यांकन करने का दिशाबोध था और प्रगति के बाधक तत्वों का सामना करते हुए आगे बढने जाने का दृढ संकल्प था। भविष्य में उन्नति करने की परियोजनाऐं थीं जिनके क्रियान्वयन से श्रेष्ठ वातावरण की सृष्टि की जा सकती थी।

वह इतिहास पुरूष थे क्योंकि उन्होंने समय को एक ऐसी अवधारणा दी थी जिससे युग तक अक्षय कीर्ति को स्थिरता प्रदान की जा सके। वह समय का परिस्थितियों से तारतम्य स्थापित कर भावी संकल्पनाओं में कल्याणप्रद चैतन्य का संचार करते थे।

वह मनीषी विद्वान थे। लौकिक और पारलौकिक ज्ञान उनकी चेतना के क्षितिज पर इस तरह समाहित था कि हर समस्या के  आम्यन्तर में प्रवेश कर समाधान खोज कर प्रस्तुत कर देना उनके लिये अत्यन्त सहज था। इसलिए हर तरह  के व्यक्ति को उपयुक्त दिशाबोध देने में समर्थ थे।                

उनका सर्वोपरि महत्व मानव का निर्माण करने में प्रतिष्ठित हुआ। साहित्य में जगद्गुरू शंकराचार्य का समग्र जीवन्त उपन्यास ( ५००० पृष्ठों में प्रकाशित १० खंड ) उनके युग की समकालीन संस्कृतियों के साथ प्रस्तुत किया ताकि पाठक उनसे प्रेरणा ग्रहण कर सके। आदर्शों के साथ सामंजस्य स्थापित कर आध्यात्मिक आलोक से अपने जीवन में व्याप्त अंधकार का निवारण कर सके। उन्होंने कविता, कहानी, गद्यगीत, संस्मरण, लेख आदि विपुल साहित्य का सृजन किया। वे राजस्थान साहित्य अकादमी के संस्थापक अध्यक्ष भी थे।

शिक्षा को मनुष्य का जन्म सिद्व अधिकार बता कर उसे घर-घर पहुंचाने का दायित्व निभाने के लिये चैतन्य प्रदान किया जिससे शिक्षा के प्रचार - प्रसार को सम्बल मिला। संस्थाओं की स्थापना कर समाजसेवा का मार्ग दर्शन किया कि समर्पण भाव से सेवा करना व्यक्ति सीखे।


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