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श्रीगंगानगर : धान का कटोरा

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27 May 19
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श्रीगंगानगर : धान का कटोरा

 राजस्थान के नाम से ही किसी के मन में रेतीले, सूने से, नाम मात्र की हरियाली वाले इलाके का चित्र मन में स्वाभाविक तौर पर उभर आता हैं जब सुदूर उत्तर के श्रीगंगानगर जिले की कल्पना की जाए तो इस सिख बाहुल्य इलाके का सरहदी क्षेत्र होना मन में अनायास ही खतरा, संवेदनशीलता, सतर्कता, तनाव जैसे अहसासों को जन्म दे देता है। जब ऐसी ही धारणा मन में लिए कोई अनजान गंगानगर जाता है और वहां रहने का मौका उसे मिलता है तो वह बहुत कुछ अपनी पूर्व स्थापित धारणा के विपरीत वहां पाता है। यही जिला है हमारी राजस्थान यात्रा का अगला पड़ाव। 
इस इलाके की जीवन्तता और माहौल में बसी खुशमिजाजी मन को छूती है। पंजाब के अति निकट बल्कि यूं कहें कि उसी का एक हिस्सा जैसा होने के कारण पंजाबियत का खासा असर यहां के परिवेश और जीवनशैली में घुला मिला नजर आता है। बोली चाली में तो पंजाबियत साफ झलकती ही है,पंजाबियत की यह खुशबू यहां की आबोहवा में ही घुली मिली है। वैसे वागडी भी यहां खूब बोली जाती है जिसमें शेखावाटी, ढूंढाडी का भी प्रभाव महसूस होता है। 
बात जब पंजाब की हो तो फैशन, लजीज, खानपान, प्रगतिशीलता और उत्सवप्रियता जैसी इसकी खासियत सामने आती है। गंगानगर का पंजाब का नजदीकी इलाका होना मरूधरा के इस अंचल को इन गुणों से कमोबेश रंग देता है और यही इस इलाके की खूबी बन जाती है। यहां देहात में भारी भरकम बड़े बड़े गिलासों में छाछ लस्सी और घी में डूबी साग सब्जी मिलेगी तो शहरी क्षेत्र में पिज्जा, बर्गर, पास्ता और नए जमाने के नए स्वाद भी आसानी से मिल जाते हैं। यहां चने का सूप खास है जो शायद अन्य स्थानों पर नहीं मिलेगा। सर्दी में शाम के समय सूप की इन ठेलियों पर खासी भीड रहती है। गर्मी में दस रूपए में जग भर किन्नू का रस भी आपको आश्चर्य में डाल देता है। नहरी क्षेत्र की ताजी सब्जियों का स्वाद भी यहां लिया जा सकता है। यह सब जल्द ही आपकी सेहत में भी प्रकट होने लगता है। 
श्रीगंगानगर जिले का नाम इसके मुख्यालय के नाम पर पड़ा, यह जिसका नाम बीकानेर रियासत के शासक महाराजा गंगा सिंह (1887-1943) के नाम पर रखा गया जिनके अथक प्रयासों से जिले की प्यासी एवं सूखी धरती पर गंगनहर का आगमन हुआ। पूर्व में भी यह श्रीगंगानगर के नाम से जाना जाता था और आज भी इसी नाम से जाना जाता है। 
    यह जिला राजस्थान के उŸारी भाग में स्थित है और भारतीय-गंगा मैदान का हिस्सा है। यह 280 4’ से 300 6’ उत्तरी अक्षांश और 720 30’ से 750 30’ पूर्वी देशांतर के बीच स्थित है। इसकी सीमाएं दक्षिण में राजस्थान राज्य के चूरू और बीकानेर जिले से, उत्तरी पूर्व में पंजाब और हरियाणा राज्यों से एवं उत्तर पश्चिम में पाकिस्तान के बहावलपुर जिले से मिलती हैं। जिले का क्षेत्रफल 10,978 वर्ग किमी., 2011 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या 19,69,168 तथा साक्षरता दर 69.6 प्रतिशत है। जिले को तीन प्राकृतिक प्रदेशों उत्तरी अर्द्ध भाग या नहरी क्षेत्र दक्षिण-पूर्वी या रेतीला और अर्द्ध-नहरी क्षेत्र एवं दक्षिण पश्चिमी या रेगिस्तानी क्षेत्र में विभक्त किया गया है। अर्द्धनहरी या असिंचित क्षेत्र उचित सिंचाई सुविधाएं प्राप्त होने पर पूर्णतया उपजाऊ बन सकता है। यह बरानी भूमि वर्षा के दौरान पूर्णतया हरी भरी दिखाई देती है। क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण पहाड़ियाँ नहीं हैं। शुष्क हो चुकी प्राचीन सरस्वती और दृशद्वती नदियों के किनारों पर स्थित कटक या मेड़ भूतल से ऊपर उठे हुए हैं जिनकी ऊँचाई 20 से 100 फुट तक और कहीं-कहीं और भी अधिक है। इन पहाड़ियों के जंगली झाड़ियों द्वारा आवृत होने से यह स्पष्ट होता है कि वे नदियों के किनारों को इंगित करती हैं और रेत से बनी हुई नहीं हैं। ये पहाड़ियाँ पूर्व की अपेक्षा पश्चिम में अधिक ऊँची है। जिले का उŸारी भाग दक्षिणी और दक्षिणी पूर्वी भागों की तुलना में अधिक श्रेष्ठ वन वाला है। जिले में कोई पठार नहीं है क्योंकि यह क्षेत्र रेतीला और मैदानी है जिसमें कहीं-कहीं पर बालुका स्तूप हैं। जिले की औसत समुद्र तल से ऊँचाई 168 से 227 मीटर तक है। जल प्रवाह का ढाल पूर्व से पश्चिम की तरफ है और इसका अप्रवाह प्राचीन घग्घर नदी की घाटी में है जिसे स्थानीय भाषा में नाली कहा जाता है। किसी समय यह पूरा क्षेत्र भारत के बड़े ’थार’ रेगिस्तान का हिस्सा था परन्तु गंगनहर के आगमन और अन्य सिंचाई सुविधाओं के कारण इस क्षेत्र के उत्तर पूर्वी हिस्से की उर्वरा शक्ति बढ़ गई है। इसी के फलस्वरूप आज गंगानगर को ’राजस्थान का अन्न भण्डार’ कहलाने का गौरव प्राप्त है। जिले का दक्षिण पश्चिमी हिस्सा अभी भी रेतीला है। 
जिले में वर्तमान में कोई बारहमासी नदी विद्यमान नहीं है। परन्तु अतीत में यहाँ घग्घर नदी बहती थी। जो क्षेत्र में तलवाड़ा नामक स्थान पर प्रवेश करते हुये बहावलपुर (पाकिस्तान) नामक स्थान से बहती हुई बिन्जौर गांव के पास सतलज नदी में मिल जाती थी। ’नरवल’ के नाम से प्रचलित इसकी उपनदी जिले के उपरी हिस्से से बहती हुई अनूपगढ़ में इस नदी में मिल जाती थी। ऐसा सम्भवतया 19वीं शताब्दी के अन्त तक था जब वार्षिक वर्षा अधिक होती थी। अब नरवल उपनदी अस्तित्व में नहीं है और इसका स्थान वर्तमान गंगनहर प्रणाली ने ले लिया है। प्राचीन काल में महान् वैदिक नदी सरस्वती इस जिले से होकर बहती थी। अम्बाला जिले के उप-पर्वतीय क्षेत्र से निकल कर सरस्वती नदी हरियाणा के प्रचीन नगर कुरूक्षेत्र और पेहोआ के कुछ भागों में अपना दुर्बल प्रवाह जारी रखते हुए पंजाब के शतराना नामक स्थान पर घग्घर नामक एक उपरी जलधारा से जुड़ जाती थी। इसके बाद से यह संयुक्त नदी, जो अब घग्घर के नाम से प्रचलित है, दक्षिण-पश्चिम दिशा में बहती हुई तलवाड़ा नामक स्थान पर जिले में प्रवेश करती है। अब यह जल धारा नहीं है किन्तु वर्षा के दौरान बाढ़ का जल प्राचीन जलधारा के दक्षिण-पश्चिमी बिन्दुओं तक ही पहुँच पाता है। जिले में बहती हुई घग्घर नदी की लम्बाई लगभग 177.02 किमी. है और इसके उत्पति स्थल से भारत-पाक सीमा तक इसकी लम्बाई 514.99 किमी. है। वर्षा जल में परिवर्तन के कारण घग्घर नदी का मार्ग सूख गया है और सीमित मात्रा में बहने वाले जल के कारण इसका स्थानीय नाम ’नाली’ पड़ गाया। इसके तट पर स्थित मुख्य कस्बे सूरतगढ़, जैतसर, विजयनगर और अनूपगढ़ है। इस नदी की मिट्टी बहुत उपजाऊ है और जल मीठा है।

वनस्पति की दृष्टि से जिले में बेरी, कैर, खेजड़ा, रोहिड़ा, शीशम, आंकड़ा, पीपल, नीम, बबूल अथवा कीकर, सरेश, थाई प्रमुखता से पाये जाते हैं। इसके आतिरक्ति जिले में आख, गोखरू, साटा, हिरन, मोथा, बथुआ, लानी, लाना, लूनी, पलाश आदि वनस्पतियाँ भी मिलती हैं। जिले में जलवायु की विपरीत परिस्थितियों जैसे जल की कमी, धूल भरी आँधियों के कारण मिट्टी की अस्थिरता, अधिक तापमान और वर्षा की कमी आदि के कारण कोई वन नहीं है। किन्तु कहीं-कहीं पाए जाने वाले पेड़ पौधों के संरक्षण और निजी लोगों को पुरस्कार व छूट आदि देकर पेड़ लगाने के लिए प्रोत्साहित करने के प्रयास किए गए। राज्य के खर्च पर भी पेड़ लगाने एवं उनके संरक्षण का कार्य किया गया तथा हरे पेड़ काटने पर प्रतिबंध लगाया गया। इन सभी कदमों के परिणामस्वरूप क्षेत्र में पेड़ों की संख्या में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई।  राज्य सरकार ने वैज्ञानिक आधार पर वनों के विकास के लिए नीति बनाई जिसके परिणामस्वरूप गंगानगर को राज्य का पहला सिंचित वन वाला जिला बनने का गौरव प्राप्त हुआ। शीशम, शहतूत और सफेदे की प्रजातियाँ नहरों, इनकी वितरिकाओं और माइनर के किनारे उगाई गईं। राज्य सरकार के वन विभाग ने भी उपरी और पूर्व की ओर थार रेगिस्तान को फैलने से रोकने के लिए बड़े स्तर पर वृक्षारोपण किया है। वन्य जीवों की दृष्टि से जिले में वाइपर, कोबरा तथा क्रेट तीनों प्रकार के विषैले सर्प पाये जाते हैं। वाइपर की एक प्रजाति, जिसे स्थानीय भाषा में बांडी कहते हैं, अत्यन्त घातक होता है तथा यहाँ आमतौर पर पाया जाता है। सैण्डा नामक एक छिपकली तथा गोहिरा भी यहाँ पाये जाते हैं। मछली-नहरों तथा उनकी वितरिकाओं मे सामान्यतया यहाँ पाई जाने वाली मछली की प्रजातियों में लबेओ, रोहिल, आर्मेटस, चेला आदि प्रमुख हैं। वर्षा के मौसम में टोड तथा मेंढक भी सामान्यतया पाये जाते हैं। जिले में नीलकंठ, उल्लू, काबा, कालचीत, चील, बुलबुल, कोचर, गिद्ध, पिन्चा, शिकरा, तोता, चिडी, कमेली, कागला, मोर, बटर तीतर एवं बटबर वन्य जीव एवं पक्षी पाये जाते हैं। 
अर्थ व्यवस्था की दृष्टि कृषि उत्पादन में राज्य का अग्रणी जिला है। इसी लिए इसे धान का कटोरा भी कहा जाता है। जिले में राज्य का 50 प्रतिशत कपास एवं 30 से 35 प्रतिशत अनाज उत्पादन होता हैं। जिले में अच्छी वर्षा होने पर बाजरा, ज्वार, मोठ और मूंग की बढ़िया फसलें होती हैं। यहाँ ग्वार, गन्ना एवं तिलहन की फसलें भी की जाती हैं। किन्नू फल का यहाँ से निर्यात भी किया जाता हैं। यहाँ के किन्नू अपने रसीले स्वाद की वजह से विश्व में पहचान बनाते हैं। गंग नहर, भाखड़ा एवं राजस्थान नहर जैसी तीन वृहत् सिंचाई परियोजनाओं ने जिले को कृषकों के लिए स्वर्ग बना दिया है। रूस के सहयोग से सूरतगढ़ में 15 अगस्त 1966 को केन्द्रीय राज्य कृषि मार्ग की स्थापना की गई। श्रीगंगानगर में एक क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केन्द्र भी संचालित है। पशु पालन एवं  मत्स्य पालन प्रमुख व्यवसाय है। भेड़, भैंस, एवं ऊॅट यहाँ के प्रमुख पशु हैं। खनिज क्षेत्र में जिले में जिप्सम एवं शोरा खनिज पाये जाते हैं। गंगानगर शुगर मिल्स लिमिटेड एवं सादुलपुर टैक्टाइल्स लि. प्रमुख वृहत् उद्योग हैं। सीमेंट उत्पाद चद्दर-धातु कुटिर उद्योग देशी जूता निर्माण कृषि उपकारण, मिट्टी के बर्तन, धातु-फर्म प्रमुख रूप से लघु उद्योग हैं। 
कला एवं संस्कृति की दृष्टि से ढोल की थाप पर नर्तकों के समूह द्वारा गोल घेरे में लंबी डण्डियों के साथ किये जाने वाला डांडिया रास नृत्य विशेष रूप से होली की पूर्व संध्या पर किया जाता है। यह नृत्य धरती पुत्रों के सफल जीवन की एक ऋतु की समाप्ति पर उल्लास एवं संतुष्टि का परिचायक है। गणगौर एवं नवरात्रा के पर्वो पर महिलाओं द्वारा किये जाने वाला घूमर नृत्य यहाँ के जन-जीवन में रच-बस गया है। पंजाब के अप्रवासियों का उल्लासपूर्ण भांगड़ा नृत्य फसल कटाई के समय किसान की खुशी को प्रकट करता है। नर्तकों की वेश भूषा रंग-बिरंगी आक्रर्षक होती है। इसी प्रकार माहिलाएं ताली बजाते हुए आपस में हथेलियों को एक दूसरे से टकरा कर गिद्दा नृत्य करती हैं। कालबेलिया, नट एवं बंजारों के नृत्य एवं करतब भी प्रचलित हैं। यहाँ कठपुतली प्रदर्शन के माध्यम से अमर सिंह राठौर और अन्य सरदारों के महान कथानकों का रोचक प्रदर्शन किया जाता है। जन्म, विवाह, उत्सव, गुरू गांविन्द सिंह की चड़त दीपार (तलवार की गाथा) गंगा चौहान की स्मृति में पौराणिक कथायें और वार (लंबी) कथाएं लिखे गये हैं और गाये जाते हैं। हीर-राँझा की कालजयी प्रेम कहानी पर गीत प्रचलित हैं। यहाँ सभी भारतीय पर्व उल्लासपूर्वक मनायें जाते हैं। गणगौर मेला, हनुमान मेला एवं बुढ़ाजोहड़ मेला जिले के प्रमुख सांस्कुतिक आयोजन हैं। इनके अतिरिक्त सूरतगढ़ में रामदेवजी मेला, हनुमान मेला, विजय नगर में डाडा पम्पाजी का मेला, रायसिंह नगर में शहीद बीरबल सिंह का मेला, पदमपुरा में पशु मेला, श्रीगगानगर में विजय दशमी मेला अन्य प्रसिद्ध मेले हैं।
दर्शनीय स्थल
गंगानगर क्षेत्र अन्न तथा कपास के भंडार के साथ जहां प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का प्रतीक रहा है, वहीं इसके ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक एवं दर्शनीय स्थल जातियों और सम्प्रदायों से ऊपर उठकर हमारे सपनों के भारत का निर्माण करते हैं। क्षेत्र में ऐसे अनेक धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र हैं, जहां बिना किसी भेदभाव के सभी धर्मावलम्बियों द्वारा अपने-अपने इष्ट की पूजा एक ही स्थान पर की जाती है। कालीबंगी की प्राचीन स्भ्यता व भटनेर के ऐतिहासिक दुर्ग के साथ-साथ इस क्षेत्र के प्रमुख दर्शनीय स्थल इस प्रकार हैं-
शहीद नगर गुरूद्वारा साहिब बुढाजोहड़
श्रीगंगानगर जिले की रायसिंहनगर तहसील के ग्राम डाबला से करीब 1 किलोमीटर पर स्थित शहीद नगर गुरूद्वारा साहिब बुढा जोहड़, जहां एक ओर सिक्खों का पवित्र स्थल है, वहीं जिले में आने वाले पर्यटकों के लिए भी दर्शनीय है। जिले में आने वाले पर्यटक यहां पहुंचकर गुरूद्वारा साहिब दीवान पर मत्था टेकते हैं। कहा जाता है कि इस स्थान पर पहले बरसात के मौसम में काफी नीचे तक पानी भरता था और इसी से इस स्थान को जोहड़ कहा जाता है। 
इस गुरूद्वारे की नींव वर्ष 1953 में संत फतेह सिंह द्वारा रखी गई। वर्ष 1954 में गुरूद्वारे और लंगर का खर्च चलाने के लिए दो मुरब्बा जमीन क्रय की गई। गुरूद्वारे की पक्की इमारत बनाने का काम 27 फरवरी, 1956 को प्रारंभ हुआ। इस कार्य में हरनाम सिंह का महत्वपूर्ण योगदान रहा। क्षेत्र के श्रद्धालुओं ने अपने ट्रैक्टर, ईंटों, सीमेंट और हाथों से सेवा करके निर्माण कार्य में अधिक से अधिक सहयोग किया। 
गुरूद्वारा साहिब के मुख्य हॉल की लम्बाई-चौड़ाई 124 गुणा 99 है। हॉल में एक समय में हजारों श्रद्धालुओं के बैठने की जगह है। हॉल के साथ एक बड़ा दीवान हॉल बनाया गया है, जहां अमावस्या पर दीवान लगता है। गुरूद्वारा साहिब परिसर में एक सुंदर सरोवर बनाया गया है, जिसकी परिक्रमा संगमरमर से बनाई गई है तथा सरोवर की गहराई 12 फुट है। सरोवर में महिला व पुरूषों के स्नान के लिए अलग-अलग घाट की व्यवस्था की गई है। सरोवर में पानी की आवक गंगनहर की सूरतगढ़ वितरिका के माध्यम से होती है। 
गुरूद्वारा साहिब पर हर माह की अमावस्या को मेला भरता है, जिसमें दूर-दूर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। इस अवसर पर लंगर पकाने की सेवा आसपास के सिख, माताएं, बहनें करती हैं। लंगर के लिए बड़े-बड़े हॉल बनाए गए हैं, जहां एक समय में काफी संख्या में श्रद्धालु लंगर छकते हैं। इसके अलावा लंगर में गैस भट्टियों का भी प्रबंध किया गया है। संगतों के रात में ठहरने के लिए 120 कमरे बनाए गए हैं। अब चपाती बनाने की मशीन भी लगा दी गई है। 
गुरूद्वारा साहिब परिसर में ही एक कक्ष को सचखंड हॉल का रूप दिया गया है। यहां गुरूद्वारा साहिब की सेवा-पूजा की वस्तुएं रखी गई हैं। परिसर में ही एक संग्रहालय बनाया गया है, जहां सिख गुरूओं, संतों के चित्र प्रदर्शित किए गए हैं। 
गुरूद्वारे का प्रबंध एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है, जिसमें 13 सदस्य हैं। इस ट्रस्ट का गठन संत फतेह सिंह ने ही निर्माण के समय किया था। ट्रस्ट द्वारा दो विद्यालयों का संचालन किया जा रहा है, जिसका समस्त खर्च ट्रस्ट वहन करता है और बच्चों को सभी सुविधाएं निःशुल्क उपलब्ध कराई जाती हैं। एक सिख मिशनरी कॉलेज भी संचालित है। बच्चों को ट्रस्ट की ओर से छात्रवृति भी प्रदान की जाती है। विद्यालय और कॉलेज के सैकड़ों बच्चे देश-विदेश में ग्रंथी और रागी की भूमिका निभा रहे हैं। 
डाडा पम्पाराम जी का डेरा
यह पवित्र स्थल क्षेत्र के श्री विजयनगर कस्बे में स्थित है। यहां फाल्गुन माह में डेरा डाडा पम्पाराम जी की समाधि पर प्रतिवर्ष 7 दिवसीय भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। मेले में राजस्थान के अतिरिक्त पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, मध्यप्रदेश, उŸारप्रदेश आदि राज्यों के विभिन्न धर्मों के लोग बड़ी आस्था के साथ आते हैं। डाडा पम्पाराम जी का जन्म लगभग 400 वर्षों पूर्व गुरूनानक देव के काल में बीकानेर जिले के कुंभाना गांव में हुआ था। कहा जाता है कि बाबा के अधिकांश भक्त वर्तमान पाकिस्तान से आते थे। उनकी कठिनाई को देखते हुए बाबा के आदेश से उनकी समाधि फोटे बाद (पाकिस्तान) में स्थापित की गई। देश के विभाजन के बाद यह समाधि श्री विजयनगर में स्थापित की गई, तब से यहां प्रतिवर्ष हजारों श्रद्धालु पहुंचते हैं। 
श्रीगंगानगर क्षेत्र में शीलामाता, भद्रकाली मंदिर, भट्टेवाला पीर बाबा, श्री जगदम्बा अंध विद्यालय, विवके आश्रम, तपोवन मनोविकास विद्यालय तथा अपना घर (वृद्धाश्रम) अनेक फलोद्यान दर्शनीय हैं। 
 


Source : डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
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