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"सत्यार्थप्रकाश पठित मनुष्य कल्पित ईश्वर की उपासना नहीं करता"

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14 Jun 19
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"सत्यार्थप्रकाश पठित मनुष्य कल्पित ईश्वर की उपासना नहीं करता"

संसार में जितने भी आस्तिक मत हैं उनमें ईश्वर का स्वरूप भिन्न-भिन्न पाया जाता है जो कि तर्क एवं युक्तिसंगत नहीं है। इन सभी मतों के आचार्य कभी दूसरे मतों का अध्ययन करने का प्रयत्न नहीं करते। अपनी सत्य व असत्य बातों को ही स्वीकार कर उसका समर्थन व मण्डन करते हैं और एक प्रकार से असत्य को भी सत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। साधारण मनुष्य को अधिक ज्ञान न होने के कारण वह इनके भ्रम में फंस कर इनकी बातों को मानता रहता है जिससे उसका जन्म वृथा हो जाता है। मनुष्य का जन्म संसारए इसके रचयिता सृष्टिकर्ता ईश्वर सहित जीवात्मा और सृष्टि के यथार्थ स्वरूप को जानने व ईश्वर की वेद निर्दिष्ट विधि से उपासना करने के लिये हुआ है जिससे मनुष्य आत्मा के मलों को धो कर शुद्ध हो जाये और ईश्वर को प्राप्त होकर अपने सभी दुःखों से निवृत्त होकर आनन्दघन परमात्मा के आनन्द से युक्त होकर अपने जीवन के लक्ष्य ईश्वर.प्राप्ति व मोक्ष को प्राप्त कर ले। धन्य हैं वह लोग जो मिथ्या मत.मतान्तरों द्वारा संसार में फैलाये गये भ्रम में नहीं फंसते और सत्य को जानने के लिये अन्य मतों के ग्रन्थों को भी पढ़ते हैं व उनके दोषों व गुणोंए दोनों से परिचित होते हैं। मनुष्य को कोई भी बात बिना उसका अध्ययन कर अपनी बुद्धि से विचारे स्वीकार नहीं करनी चाहिये। ईश्वर व जीवात्मा के विषय में तो उसे सभी मतों की मान्यताओं को जानना चाहिये और वेदए उपनिषदए दर्शनए सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन कर उसके आधार पर अपना सत्य.मत स्थिर करना चाहिये। 
संसार में सबसे पुरानी पुस्तक चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) हैं। अध्ययन और परीक्षा से पता चलता है कि वेदों का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा द्वारा अमैथुनी सृष्टि में युवावस्था में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा की आत्मा में प्रेरणा करके प्रदान किये थे। इन चार ऋषियों ने यह ज्ञान ब्रह्मा जी को दिया और इसके बाद इन सबने इतर सभी स्त्री व पुरुषों में वेदों का प्रचार किया। सृष्टि की आदि में वेद प्रचार व पठन-पाठन की यह परम्परा ही उत्तर काल में प्रवृत्त रही और अब तक चली आई है। वर्तमान में हमारे गुरुकुलों में वेद-वेदांगों सहित वेदोपांग दर्शन आदि ग्रन्थों का अध्ययन कराया जाता है। कोई भी व्यक्ति स्वयं अथवा अपने पुत्र व पुत्रियों को ऋषि दयानन्द की प्रेरणा द्वारा स्थापित आर्यसमाज के गुरुकुलों में अपनी सन्तानों को प्रविष्ट कर वेदों का विद्वान बना सकता है। वेदाध्ययन एवं वेदाचरण से मनुष्य को जो सुख व परजन्म में सुख व मोक्ष आदि की प्राप्ति होती है वह किसी प्रकार के अन्य ज्ञान, विज्ञान, धन, ऐश्वर्य, भौतिक सम्पत्ति एवं अन्य साधनों से नहीं होती। विचार करने पर यह निश्चित होता है कि मनुष्य को अपनी व अपने परिवार की आवश्यकता के अनुसार धनोपार्जन करना चाहिये लेकिन केवल मात्र धनोपार्जन व भौतिक सम्पत्ति व पदार्थों को अर्जित करने को ही अपने जीवन का लक्ष्य नहीं बनाना चाहिये। केवल धनोपार्जन करने से मनुष्य स्वाध्याय व साधना से वंचित होकर अपनी हानि करता है। आत्मा को स्वयं का व ईश्वर का ज्ञान नहीं होता और न ही ऐसा मनुष्य उपासना आदि साधनों सहित अपने आचरण को पवित्र व शुद्ध रख पाता है जिससे वह कर्म-फल बंधन में फंस कर अपने सुखों व वर्तमान तथा भविष्य की जीवन-उन्नति की हानि करता है। यही कारण था कि ऋषि दयानन्द व सभी ऋषि-मुनियों सहित हमारे पूर्वज राम, कृष्ण, चाणक्य, श्रद्धानन्द, गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम आदि वेदाध्ययन व वेद प्रचार आदि करते हुए ईश्वर की उपासना करने के साथ अपने आचरण को वेदानुकूल एवं शुद्ध-पवित्र रखने पर ध्यान देते थे। हमें भी इन महापुरुषों का अनुकरण करना चाहिये। ऐसा करने पर ही हमारे जीवन का कल्याण हो सकता हैए अन्यथा नहीं। 

वर्तमान संसार पर दृष्टि डालने पर हम पाते हैं कि विश्व में ईश्वर व जीवात्मा आदि का सत्य ज्ञान उपलब्ध नहीं है। स्कूलों में यह ज्ञान पढ़ाया नहीं जाता। आर्यसमाज के गुरुकुल इसका अपवाद कहे जा सकते हैं। अतः संसार में उत्पन्न होने वाले सभी मनुष्य अपने माता-पिता के मत-मतान्तरों को मानने के लिये बाध्य होते हैं। धर्म का ज्ञान नैमित्तिक होता है। धर्म का यह सत्य ज्ञान बिना सच्चे धर्म गुरुओं व वैदिक साहित्य के अध्ययन के प्राप्त नहीं होता। मत-मतान्तरों की पुस्तकों में जो ज्ञान है वह अविद्या सहित सत्यासत्य से युक्त दोनों प्रकार का है। साधारण मनुष्य इन पुस्तकों से सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग नहीं कर सकते। अतः पूरे विश्व में एक आन्दोलन की आवश्यकता है जो ईश्वर, जीवात्मा और मनुष्य के कर्तव्य व अकर्तव्य विषयक वैदिक मान्यताओं वा सिद्धान्तों को सबके सामने रखे और उनसे सत्य के ग्रहण व असत्य का त्याग करने का अनुरोध करे। इसके लिये स्कूलों व विद्यालयों में जाकर प्रश्नोत्तरों के द्वारा विद्यार्थियों और अध्यापकों का समाधान किया जाना चाहिये। यह प्रयास कठिन प्रतीत होता है परन्तु जब तक ऐसा नहीं किया जायेगा, संसार में सत्य न पहुंचने के कारण लोग मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त बातों को मानते रहेंगे और इससे मत-मतान्तरों से होने वाली नाना प्रकार की समस्यायें जिनमें धर्मान्तरण भी एक बड़ी समस्या है, बनी रहेगी। विदेशी मत निर्धन व अज्ञानी भारतीयों का जो धर्मान्तरण करते हैं उसका एक कारण देश को धर्मान्तरित कर देश की सत्ता पर कब्जा करना भी अनुमानित होता है। सभी विज्ञ धर्माचार्य इस बात को जानते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये कुछ मत येन केन प्रकारेण अपनी जनसंख्या बढ़ाने में लगे हुए है जिससे विभिन्न मतों के अनुयायियों की संख्या कम हो रही है। यह भविष्य में हिन्दुओं के लिए खतरे की घंटी है। 

आर्यसमाज की स्थापना महर्षि दयानन्द ने 10 अप्रैल सन् 1875 को वेद की प्राणीमात्र की हितकारी एवं सत्य मान्यताओं एवं सिद्धान्तों के विश्व स्तर पर प्रचार व प्रसार सहित अन्य मतों के वैदिक धर्म पर छलए बल व लोभ आदि के प्रयोग आदि द्वारा धर्मान्तरण रूपी शस्त्र के आक्रमण को विफल करने के लिए की थी। उन्होंने देश भर में घूम-घूम कर वेद के महत्व को बताया था और वैदिक मान्यताओं का एक अपूर्व ग्रन्थ "सत्यार्थप्रकाश" लिखकर वेद की सर्वोच्चता को सिद्ध करने के साथ मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त बातों का प्रकाश भी किया था। सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर ईश्वर और जीवात्मा का वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों में वर्णित सत्यस्वरूप प्राप्त होता है। ईश्वर की उपासना की विधि का ज्ञान भी सत्यार्थप्रकाश एवं ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ पंचमहायज्ञ विधि, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका एवं आर्याभिविनय आदि को पढ़कर मिलता है। उपासना से मनुष्य ज्ञान बढ़ता है एवं आचरण में पवित्रता आती है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर वैदिक धर्म को अपनाने की प्रेरणा आत्मा में होती है। इसके अतीत में अनेक उदाहरण उपलब्ध है। सत्याप्रकाश के अध्ययन से मनुष्य के मांसाहार एवं आचरण के अन्य दोष यथा आर्थिक अशुचिता वा भ्रष्टाचार आदि भी दूर होते हैं। मनुष्य प्रतिदिन प्रातः व सायं ईश्वर की उपासना, ध्यान, मन्त्रपाठ, वेदों का स्वाध्याय, चिन्तन-मनन, मित्रों व समाजों में सार्वजनिक प्रवचन आदि करके अपने शुभ कर्मों को बढ़ाकर सुखी व समृद्ध होते हैं। सत्यार्थप्रकाश पढ़ लेने के बाद संसार के किसी मत में यह शक्ति नहीं कि वह ईश्वर व आत्मा विषयक मान्यताओं पर चर्चा करके उस व्यक्ति से किसी वेदेतर मत को मानने के लिए सहमत कर सके। ऐसा भी हुआ है कि दूसरे मतों के कई लोग ऋषि दयानन्द और आर्य समाज के विद्वानों से ईश्वरए जीवात्मा और ईश्वर की उपासना आदि विषय पर चर्चा करने के लिये आये और चर्चा समाप्त होने पर वह अपने मत की निर्बलता को जानकर और वैदिक मत की पूर्णता और सत्यता को समझकर वैदिक मत के अनुयायी हो गये। ऐसा सभी मतों के आचार्यों एवं लोगों के साथ हुआ है। इससे वैदिक मत की उच्चताए श्रेष्ठता एवं सत्यता का अनुमान होता है। इससे एक यह निष्कर्ष भी निकलता है कि सभी मतों के सत्य के जिज्ञासु व पिपासु अनुयायियों को ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप सहित ईश्वर की उपासना व इससे होने वाले लाभों को प्राप्त करने के लिये ( सत्यार्थप्रकाश) का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। ऐसा करने से उनका यह जन्म व परजन्म दोनों में सुधार व उन्नति होगीए यह निश्चित है। हम स्वयं भी सत्यार्थप्रकाश और विद्वानों के वेद विषयक प्रवचन सुनकर लाभान्वित हुए हैं। 

हमने सत्यार्थप्रकाश पढ़ा है। हमारा अनुभव है कि सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से मनुष्य ईश्वरए जीवात्मा सहित संसार का सत्यस्वरूप समझ जाता है। ऐसे व्यक्ति को किसी मत का कोई आचार्य व अनुयायी प्रलोभन व छल.कपट सहित अन्य किसी भी प्रकार से भ्रमित कर वेदमत से पृथक नहीं कर सकता है। इस प्रकार सत्यार्थप्रकाश ईश्वर व आत्मा सहित अनेक सामाजिक विषयों के ज्ञान की प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से मनुष्य सच्चा उपासक, ईश्वरभक्त, सदाचारी, देशभक्त, समाज-सुधारक, सत्य का अनुरागी, सज्जन पुरुषों के आदर भाव रखने वाला तथा सच्चा मानव बनता है। हमारी दृष्टि में सरकार को सत्यार्थप्रकाश को सभी सरकारी एवं निजी विद्यालयों में अध्ययन के लिये अनिवार्य कर देना चाहिये। इसके बाद यदि अन्य सभी मतों की ईश्वर व आत्मा विषयक मान्यताओं का ज्ञान भी विद्यार्थियों को कराया जाये तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये। इससे समाज में व्याप्त अविद्या व अज्ञान दूर होकर मनुष्य सत्य ज्ञान को प्राप्त होकर सच्चा जीवन जीने का लाभ प्राप्त कर सकेगा। सत्य को जाननाए उसे प्राप्त करना तथा सत्य का आचरण ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। अविद्या में फंस कर मनुष्य की हानि होती है। इससे जो हानि होती है उसकी भरपाई किसी प्रकार से नहीं होती। ओ३म् शम्। 
 


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