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“ऋषि दयानन्द की प्रमुख देन सृष्टि प्रवाह से अनादि का सिद्धान्त”

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10 Jun 19
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“ऋषि दयानन्द की प्रमुख देन सृष्टि प्रवाह से अनादि का सिद्धान्त”

ऋषि दयानन्द ने देश और संसार को अनेक सत्य सिद्धान्त व मान्यतायें प्रदान की है। उन्होंने ही अज्ञान तथा अन्धविश्वासों से त्रस्त विश्व व सभी मतान्तरों को ईश्वर के सत्य स्वरूप से अवगत कराने के साथ ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना एवं अग्निहोत्र यज्ञ का महत्व बताया तथा इनके क्रियात्मक स्वरूप को पूर्ण बुद्धि व तर्क की कसौटी पर आरुढ़ किया था। ऋषि दयानन्द ने न केवल आर्य हिन्दू जाति अपितु संसार के सभी मतों के अन्धविश्वासों वा अविद्या का प्रकाश करके उनके निवारण अथवा सुधार का आन्दोलन भी किया था और इसी के लिये उन्होंने अपने प्राणों की आहुति वा बलिदान किया था। ऋषि दयानन्द जी का दिया हुआ एक अन्य प्रमुख सिद्धान्त यह है कि हम जिस चराचर वा जड़-चेतन सृष्टि को देख रहे हैं वह प्रथम व अन्तिम न होकर प्रवाह से अनादि है। इसको सरल शब्दों में समझना हो तो कह सकते हैं कि हमारी यह जो सृष्टि या ब्रह्माण्ड है, ऐसा ही ब्रह्माण्ड इस सृष्टि की प्रलय से पूर्व सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान परमात्मा ने रचा था व वर्तमान सृष्टि के ही समान उसने उनका पालन वा संचालन किया था। न केवल इससे पूर्व ही परमात्मा ने सृष्टि की रचना, पालन व संहार अर्थात् प्रलय की थी अपितु उससे पूर्व भी अनादि व अनन्त काल से वह इसी प्रकार की सृष्टि व ब्रह्माण्ड की रचना, पालन व संहार करता चला आ रहा है और भविष्य में अनन्त काल तक इसी प्रकार से सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय करता रहेगा। हमारी इस सृष्टि से पूर्व भी ईश्वर अनन्त बार सृष्टि की रचना व प्रलय कर चुका है और आगे भी इसी प्रकार अनन्त काल तक होगा। हम समझते है कि संसार में प्रचलित किसी भी वेदेतर मत-मतान्तर व मजहब में इस सिद्धान्त का उल्लेख न होने के कारण उन्हें अविद्या से युक्त कहा व माना जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने न केवल सृष्टि व उसका उपादान कारण सत्व, रज व तमों गुण वाली प्रकृति का उल्लेख किया है अपितु ईश्वर एवं जीवात्मा के सत्य स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश भी डाला है। इस मौलिक व मत-मतान्तरों में अप्रचलित सिद्धान्त का वेद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों के आधार पर प्रकाश व प्रचार करने के कारण ही हम स्वामी दयानन्द जी को ऋषि कहते हैं। यह भी जान लें कि ऋषि शब्द का अर्थ ईश्वपरीय ज्ञान वेद के मन्त्रों के सत्य व यथार्थ अर्थों को जानने वाले योगी व सत्य का आचरण करने वाले मनीषी व आप्त पुरुष को कहते हैं। ऋषि दयानन्द ने तो वेद के एक नहीं अपितु सम्पूर्ण यजुर्वेद एवं ऋग्वेद के 10 मण्डलों में से 7वें मण्डल के 61वें सूक्त के दूसरे मन्त्र तक का संस्कृत एवं हिन्दी में भाष्य किया है। उनमें चारों वेदों के सभी मन्त्रों का भाष्य करने की योग्यता वा सामर्थ्य थी परन्तु उनके विरोधियों द्वारा उनको धोखे से विष दे दिये जाने व उनकी चिकित्सा में की गई अव्यवस्था के कारण उनका बलिदान हो गया था। यदि वह कुछ वर्ष और जीवित रहते तो वह न केवल चारों वेदों के सभी मन्त्रों का संस्कृत व हिन्दी में भाष्य ही करते अपितु सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों की कोटि के अन्य अनेक ग्रन्थों की रचना भी करते जिससे न केवल भारत के ही अपितु विश्व के सभी मतों को मानने वाले लोगों को सत्य ज्ञान का लाभ प्राप्त होता। ऋषि दयानन्द को विष दिया जाना और उससे उनका बलिदान होना विश्व के तत्कालीन मनुष्यों सहित भविष्य के सभी मनुष्यों की एक ऐसी क्षति है जिसका ठीक से मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। यह क्षति ऐसी है जिसे हम ‘भूतो न भविष्यति’ कह सकते हैं।

सृष्टि प्रवाह से अनादि है। इसका अर्थ है कि प्रलय के बाद परमात्मा सृष्टि को बनाते हैं। सृष्टि की आयु 4.32 अरब होती है। इतनी अवधि बीत जाने के बाद परमात्मा सृष्टि की प्रलय करते हैं। प्रलय रात्रि के समान होती है। प्रलय अवस्था में समस्त सृष्टि जिसमें पृथिवी, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, लोक-लोकान्तर आदि सभी नष्ट होकर अपने उपादान कारण प्रकृति के मूल स्वरूप में विद्यमान हो जाते हैं। प्रलय की अवधि भी 4.32 अरब वर्ष होती है। प्रलय को ईश्वर की रात्रि और सृष्टि काल को ईश्वर का दिन कहा जाता है। इसी प्रकार अनादि काल से सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय का प्रवाह चला आ रहा है और यह अनन्त काल तक इसी प्रकार से चलता रहेगा। इसका प्रमुख कारण ईश्वर, जीव व प्रकृति का अनादि, अजर, अमर, अविनाशी होना अर्थात् इनका कभी किसी प्रकार से अभाव न होना है। जब परमात्मा अनादि काल से है और उसे अनन्त काल तक रहना है, उसी प्रकार सभी जीव व प्रकृति भी अनादि काल से हैं और अनन्त काल तक रहेंगे, ऐसी स्थिति में यदि इस सृष्टि से पूर्व व पश्चात, अनादि काल से, क्रमशः सृष्टि की रचना और प्रलय को न माने तो हमें इस सृष्टि के पूर्व व पश्चात के काल में ईश्वर को निकम्मा व अकर्मण्य मानना पड़ेगा जबकि ईश्वर जैसी महान् सत्ता के विषय में ऐसा मानना उचित नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि हम साधारण से एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ, अनादि, अमर, अविनाशी, जन्म-मरण धर्मा जीव जब जन्म से मृत्यु पर्यन्त सामान्य स्थिति में कर्म करते रहते हैं तो हमसे कहीं अधिक विद्वान, ज्ञानी, शक्तिशाली, आनन्दस्वरूप, जीवों का माता-पिता-आचार्य स्थानीय परमात्मा यदि अपने स्वभाविक कर्म सृष्टि की रचना-स्थिति-प्रलय का कार्य नहीं करेगा तो वह परमात्मा नहीं कहा जा सकता। इसलिये यह सत्य व सिद्ध है कि परमात्मा इस सृष्टि को बनाता, चलाता व प्रलय करता रहता है। वह अकर्मण्य और निकम्मा नहीं है। उसके इस महान कार्य व यज्ञ को जान व समझ कर हमें प्रातः व सायं उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित अग्निहोत्र-यज्ञ आदि वैदिक अनुष्ठानों को पूर्ण श्रद्धा से करना चाहिये।

हमारे यहां महाभारत युद्ध तक ब्रह्मा से लेकर जैमिनी मुनि पर्यन्त ऋषि परम्परा रही है। इसके सन् 1825-1883 का काल ऋषि दयानन्द 1825-1883 का जीवन काल रहा है। दयानन्द जी भी प्राचीन ऋषियों की भांति ही वेदों के मन्त्रों के अर्थों के साक्षात्कर्ता ऋषि व समाधि में ईश्वर के सत्य स्वरूप के साक्षात्कर्ता योगी थे। सभी ऋषि वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे। ईश्वरीय ज्ञान से तात्पर्य यह है कि वेदों का जो ज्ञान है वह सृष्टि के आरम्भ में सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर ने आदि चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को उत्पन्न कर उनकी आत्मा में अपने सर्वान्तर्यामी स्वरूप से प्रेरणा के द्वारा मन्त्रों के अर्थ सहित स्थापित किया था। विचार करने व सत्यार्थप्रकाश पढ़ने से यह बात सत्य सिद्ध होती है। ईश्वर सर्वज्ञ एवं ज्ञानस्वरूप है। अतः सृष्टि की आदि में मनुष्य को भाषा सहित वेद-ज्ञान ईश्वर से ही प्राप्त होता है। ईश्वर से इतर किसी अन्य सत्ता के पास ज्ञान होता नहीं है जो मनुष्यों को ज्ञान दे सके। सृष्टि की आदि व उसके बाद मनुष्य स्वयं सत्य व निर्भ्रान्त ज्ञान व भाषा दोनों की रचना नहीं कर सकते। ‘सृष्टि का प्रवाह से अनादि होना’ सिद्धान्त वेद एवं ऋषि मुनियों के शास्त्रों के अनुकूल होने सहित तर्क व युक्ति संगत होने से मान्य एवं स्वीकार्य है। यदि कोई मनुष्य व तथाकथित विद्वान इस सत्य सिद्धान्त को नहीं जानता व ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के प्रचार करने के बावजूद नहीं मानता तो यह उन मनुष्यों की बुद्धि की ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता की न्यूनता व समझ का दोष है। हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख से लाभ उठायेंगे। ओ३म् शम्।


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