जीवन का कोई भी सिद्धांत (दर्शन) हो, यदि वह व्यक्ति के लिए उन्नतिकारक है, तो वह निश्चित ही समाज का भी हितकारक है। उसी तरह व्यापक सामाजिक हित में ही व्यक्ति का भी हित निहित है। क्योंकि, व्यक्ति और समाज एक ही सिक्के के दो अभिन्न पहलू हैं। एक के बिना दूसरा रह नहीं पाएगा। समाज में ही जीवन-यापन करते हुए व्यक्ति विकसित होता है और सजीव व्यक्तियों का ही समष्टि रूप है - समाज। इसका निष्कर्ष यही है कि व्यक्ति को समाज-विमुख करने की किसी भी कोशिश या बात से व्यक्ति तथा समाज दोनों की हानि होती है। उसी प्रकार इन दोनों के आपसी संबंधों को परिपुष्ट करने वाले प्रयत्नों या विषयों से व्यक्ति व समाज दोनों को आगे बढ़ने और समृद्ध बनाने में सहायता होती है।
मनुष्य के सभी प्रयासों-प्रयोगों की अब तक की परम प्रेरणा ‘अनन्त सुख’ चाहे वह वैयक्तिक हो या सामाजिक स्तरीय की - प्राप्ति ही रही है। ’सभी प्रकार के सुखों का मूल स्रोत किसी बाहरी भौतिक वस्तु में नहीं, बल्कि वह व्यक्ति के अंदर ही है’ इस मूलभूत सिद्धांत से ’योग’ का प्रारंभ होता है। बाहरी व्यवस्था-परिवर्तनों द्वारा सुख प्राप्ति हेतु किए सभी प्रयोगों की विफलता के लिए इस बुनियादी दृष्टि का अभाव ही कारण है। योग कहता है कि हम अपना ध्यान अधिकाधिक अंदर की दिशा में मुखरित करते रहे। यह हमारा नित्य अनुभव भी रहा है कि अपनी शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक गतिविधियों के सरल एवं शांत प्रवाह में क्षोभ उत्पन्न होने से ही असंतोष व दुःख पैदा होता है। इन सब अशांतियों को नष्ट कर, ‘योग‘ शांति का राजमार्ग खोल देता है। आगे चल कर देखें, तो व्यक्ति-व्यक्तियों के स्वभावों, चाहतों, पसंदगी-नापसंदगियो, उनके शारीरिक-मानसिक-बौद्धिक स्तरों में अंतर अवश्य होता है। इस प्रकार के सभी विभिन्न मानवीय स्वभावों के अनुकूल विविध मार्गोपाय, ‘योग‘ हमें सूचित करता है।
व्यक्ति अपने तथा उद्योग स्थल, गाँव, नगर, समाज तथा व्यापक स्तर पर राष्ट्र का एक अंगभूत घटक होता है। इन संबंधों का विस्तार क्रमेण समूची मानवता और आगे चल कर समस्त सृष्टि व्यापी बनता है। इसकी स्वाभाविक अंतिम परिणिति सकल विश्व कल्याण के लिए पोषक अवस्था में होती है। यही भाव ‘आत्मनो मोक्षार्थ जगद्हिताय च‘ इस उक्ति में व्यक्त हुआ है। वास्तव में, अपने में संकुचित व्यक्तित्व की समस्त मर्यादाओं से मुक्त पुण्यात्माएँ ही इस धरती की सच्ची संपदा हैं। अपने सारे लौकिक संबंधों में सौहार्दपूर्ण आचरण ही समग्र मानवता के लिए प्रमाणभूत व्यवहार का आदर्श प्रस्तुत करता है। ये लोग याने मानवीय जीवन के हर एक क्षेत्र में, वैयक्तिक तथा वैश्विक दोनों पहलुओं में चरम लक्ष्य-प्राप्ति की ओर उत्प्रेरित करने वाले दीपस्तम्भ हैं।
मानव के निरन्तर विस्तारशील संबंधों की परिधि में आने वाले लोगों के सर्वतोमुखी सुख के साथ-साथ स्वतः को समायोजित करते हुए अपने व्यक्तित्व का सर्वोन्नत विकास करने में योग मार्गदर्शन करता है। हमारे योगाचार्यों ने यह भी घोषणा की है कि मन जब सब प्रकार की इन्द्रिय वासनाओं एवं उद्रेकों से पूर्णतः मुक्त होता है तब वह अपने स्वयं का अस्तित्व ही खो देता है और अपने मूल दैवी स्रोत (अर्थात् आत्मा) में लय हो जाता है। हर एक भौतिक जीवकोश तथा हमारे विचार एवं भावना की हर एक तरंग में सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ देवत्व के अन्वयागत स्फुल्लिंग के रूप में आत्मा अन्तर्निहित है इस कारण सर्वज्ञाता, सर्व-शक्तिमान तथा सर्वव्यापक परम सत्य के सब गुण आत्मा में विद्यमान हैं, जैसे समूचे सिंधु का सर्वगुणात्मक अंश एक लघुतम बिन्दु में निहित होता है और वह समस्त चराचर सृष्टि में स्पंदित हो रहा अस्तित्व ही इस सत्य का एक गुण है। यही गुण उसके साथ सह-स्पंदन कर रही चेतना के व्यक्ति को, उसकी अपनी संकुचित वैयक्तिकता के चहुँ ओर केंद्रित विचार-भावना-कार्यों के परे जाने के लिए उद्युक्त करता है। जिसके परिणामस्वरूप अपने आस-पास वास कर रहे अन्य जीवों के सुख दुःख के साथ समरस होने की सहज प्रेरणा प्रदान करता है। दूसरे शब्दो में कहना हो तो, अन्यों के दुःख दर्द को कम करने और शांति को बढ़ाने के लिए आवश्यक प्रेम, करुणा, सेवा, त्याग आदि गुण उसमें प्रकट होने लगते हैं।
एक और दृष्टिकोण से भी यह स्पष्ट है कि योग में समग्र मानवीय अस्तित्व की समूची व्याप्ति को ही अपने बाहों में समेटने की सर्वव्यापक क्षमता है। योग व्यक्ति की शारीरिक-बौद्धिक भावनात्मक अवस्थाओं तथा योग्यताओं को ध्यान में लेकर उनकी आत्मोन्नति की समुचित प्रणालियाँ प्रदान करता है। उदाहरणार्थ सुप्रसिद्ध उक्ति ‘शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्’ इंगित करती है कि अपना शरीर ही व्यक्तिगत आत्मसंयम, विकास तथा आत्मचेतना के विस्तार करने का अर्थात् धर्मपालन करने का प्रारम्भिक उपकरण है। इसलिए योग अपने सम्मुख खुले हुए मार्गों में से किसी एक का स्वीकार तथा अनुसरण करने में सहायक ऐसा एक व्यापक चयन-पट प्रस्तुत करता है।