उदयपुर । मैं जहां भी जाता हूं, सर्वत्र विद्वानों में यही सुनने को मिलता है कि संस्कृति का क्षरण हो रहा है। मूल्यों का विघटन हो रहा है। समय रहते इनका संरक्षण होना चाहिये। सवाल यह अधिक महत्वपूर्ण है कि यह संरक्षण कौन, कैसे और किस तरह करे। यह बात दूरदर्शन चंडीगढ़ के पूर्व निदेशक डॉ. के. के. रत्तू ने शब्द रंजन कार्यालय में संस्कृतिविद् डॉ. महेन्द्र भानावत से एक भेंट के दौरान कही।
जवाब में डॉ. महेन्द्र भानावत ने सन् 1972 तथा 76 में उनके संयोजन में भारतीय लोककला मण्डल में आयोजित लोककला संगोष्ठियों का जिक्र करते बताया कि तब भी विद्वानों में यह विषय चिंतन का मुख्य विषय बना था। विद्वानों में डॉ. कपिला वात्स्यायन, देवीलाल सामर, कोमल कोठारी, जगदीशचन्द्र माथुर जैसे अनुभवी, पारखी एवं सिद्धहस्त विद्वान थे। उन्होंने निष्कर्ष दिया वह था कि आज की बदलती हुई जीवन व्यवस्था में संस्कृति का क्या रूप हो? क्या यह संस्कृति अपने पारंपरिक परिवेश में जीवित रह सकेगी? यदि इसमें परिवर्तन-परिवर्धन करना हो तो किस सीमा तक हो? यह परिवर्तन कलाकार स्वयं करे या और कोई दृष्टिवान पुरुष? क्या यह परिवर्तन थोपा हुआ नहीं लगेगा और क्या इसे दर्शक और प्रदर्शक एक मन से स्वीकार कर सकेगा?
डॉ. रत्तू ने कहा कि इसके लिए जरूरी है कि संस्कृतिधारक और संस्कृतिविचारक आपस में मिल-बैठकर चर्चा करें। इसके लिए जरूरी है कि हमारी सांस्कृतिक विरासत भी जीवित रहे और उसके समक्ष जो चुनौतियां हैं उनका भी समावेश हो। निष्कर्ष में दोनों ने स्वीकार किया कि यह रूप उस पौधे की तरह होगा जिस पर नई कलम लगाकर उसे समयोचित पुनर्नयापन दिया जाता है। चर्चा के अंत में डॉ. भानावत ने डॉ. रत्तू को लोककलाओं का आजादीकरण तथा आदिवासी लोक नामक अपनी कृतियां तथा शब्द रंजन के अंक भेंट किये। प्रारम्भ में डॉ. तुक्तक भानावत ने डॉ. रत्तू का भावभीना अभिनंदन किया।
Source :