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पूर्ण विकसित भारत बनाने की चुनौतियां -ललित गर्ग

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14 Feb 18
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पूर्ण विकसित भारत बनाने की चुनौतियां -ललित गर्ग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नया भारत निर्मित हो रहा है। मोदी के शासनकाल में यह संकेत बार-बार मिलता रहा है कि हम विकसित हो रहे हैं, हम दुनिया का नेतृत्व करने की पात्रता प्राप्त कर रहे हैं, हम आर्थिक महाशक्ति बन रहे हैं, दुनिया के बड़े राष्ट्र हमसे व्यापार करने को उत्सुक हं, महानगरों की बढ़ती रौनक, गांवों का विकास, स्मार्ट सिटी, कस्बों, बाजारों का विस्तार अबाध गति से हो रहा है। भारत नई टेक्नोलॉजी का एक बड़ा उपभोक्ता एवं बाजार बनकर उभरा है-ये घटनाएं एवं संकेत शुभ हैं। आज भारतीय समाज आधुनिकता के दौर से गुजर रहा है। लेकिन इन रोशनियों के बीच व्याप्त घनघोर अंधेरों पर नियंत्रण करके ही भारत को पूर्ण विकसित राष्ट्र बना सकेंगे।
हमारे पूर्व राष्ट्रपति डाॅ. अब्दुल कलाम साहब हमेशा कहते थे, ‘हेव ए बिग ड्रीम’ अर्थात बड़े सपने लो। यदि आपके सपने बड़े होंगे तभी तो आप उन्हें साकार करने हेतु अधिक परिश्रम करेंगे। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने देश के समक्ष एक बड़ा स्वप्न रखा है कि भारत 2020 में एक पूरी तरह विकसित देश होगा, हम किसी से कम नहीं रहेंगे, सभी प्रकार से सक्षम होंगे। मोदी सरकार उसी संकल्प को पूरा करती हुई दिखाई दे रही है। बावजूद इस सकारात्मक स्थितियों के भारतीय समाज अंतर्विरोधों से भरा समाज भी है। हमारे यहां ईमानदारी एवं पारदर्शी शासन का नारा जितना बुलन्द है कहीं-न-कहीं हम भ्रष्टाचार के मामले में दुनिया के अग्रणी देशों में गिने जाते हैं। आज भी हमारे यहां गरीबी बढ़ रही है, चिकित्सा, शिक्षा एवं बुनियादी जरूरतों के मामले में हमारे यहां के हालात बेहद पिछडे़ एवं चिन्तनीय है। हालांकि हमारा राष्ट्र दुनिया का सबसे बड़ा जनतांत्रिक राष्ट्र है, लेकिन आज भी हम एक सशक्त लोकतांत्रिक राष्ट्र नहीं बन पायेे हैं। कुछ तो कारण है कि उम्मीद की किरणों के बीच अंधेरे भी अनेक हैं। सबसे बड़ा अंधेरा तो देश के युवा सपनों पर बेरोजगारी एवं व्यापार का छाया हुआ है। बेरोजगारी की बढ़ती स्थितियों ने निराशा का कुहासा ही व्याप्त किया गया है।
हमारी उपलब्धियां कम नहीं है। हम एक महान राष्ट्र हैं। हमारी सफलताएं आश्चर्यजनक हैं पर हम उन्हें महत्व ही नहीं देते, आखिर क्यों? इतने निराशावादी एवं नकारात्मक क्यों हैं? हमें अपनी शक्ति, क्षमता, अच्छाई स्वीकारने में क्यों परेशानी होती है? हम गेहूं और चावल उत्पादन में विश्व में अव्वल हैं। दुग्ध उत्पादन में विश्व में प्रथम हैं, बहुत से क्षेत्र है जिनमें हमने उन्नति की है, पर इनका जिक्र न करके हत्या, चोरी, डकैती, अपराध, घोटालों, राजनैतिक प्रदूषण इत्यादि को ही प्राथमिकता क्यों दी जाती है।
हम असफलताओं की ही चर्चा करते हैं, उन्हीं को हाइलाइट करते हैं, आखिर क्यों? उन्होंने दूसरा प्रश्न किया-हम विदेशी वस्तुओं के प्रति क्यों मोहग्रस्त हैं? अपनी इम्र्पोटेड गाड़ी, घड़ी, टीवी, कैमरा, छाता, टाई, पेन, पेंसिल जो भी विदेशी है उसके प्रति गर्व अनुभव करते हैं। हमें सब कुछ यथासंभव विदेशी पसंद है। हम यह क्यों नहीं समझते कि स्वाभिमान आत्मनिर्भरता की दिशा में अपेक्षित ही नहीं, अपरिहार्य है। एक विकासशील भारत के रूप में और हमने वस्तुतः तकनीकी क्षेत्रों में प्रशंसनीय प्रगति की है। कम्प्यूटर के क्षेत्र में हम अग्रणी हैं, हमारी सेनाएं हमारी अपनी ही मिसाइलों, अपने ही आयुधों-उपकरणों से संपन्न हैं पर हम सच्चे अर्थों में विकसित नहीं हैं।
विश्वविद्यालय, कॉलेज आदि नई आधुनिकता का माध्यम बन रहे हैं, किंतु अगर हम सही अर्थों में देखें तो भारतीय समाज में आज भी अनेक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं, जातिवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, वंशवाद आदि का दंश हमारे विकास या आधुनिकता में अंतर्विरोध पैदा करते रहते हैं। खाप पंचायतें आज भी धडल्ले से गांवों में कानून का मखौल बनाती है। जनतंत्र एवं जनतांत्रिक राजनीति में जातिवाद, क्षेत्रवाद एवं संप्रदायवाद की भूमिका सीधे तौर पर देखी जा सकता है। भारत एक जनतांत्रिक समाज तो है, लेकिन उसमें सामंती मूल्य का होना एक तरह का अंतर्विरोध सृजित कर रहा है। वहीं दूसरी तरफ यह समाज आधुनिकता की तरफ बढ़ रहा है, किंतु अन्तर्विरोधों एवं पूर्वाग्रहों के साथ।
भारत अहिंसक देश है। अहिंसा के मूल्यों पर विश्वास करता है, किंतु अगर गहराई से देखें तो यहां के सामाजिक स्तरों में हिंसा की अनेक परतें दिखाई पड़ेंगी। हमारे शिक्षा के मन्दिर आज हिंसा के अखाडे़ बने हुए है, छोटे-छोटे बच्चें हिंसा की घटनाओं को अंजाम देते हैं, कोई प्रिन्सिपल को गोली मार देता है तो कोई अपनेे ही सहपाठी की दर्दनाक एवं बर्बर हिंसा कर देता है। हमारे समाज की पृष्ठभूमि भी हिंसा से त्रस्त है, बुजुर्गों पर हम अत्याचार करते हैं, उन्हें अनाथालयों के हवाले कर देते हैं, हमारे समाज में कई बार बाप बेटे को पीटता है। पति पत्नी को पीटता है, आधिपत्यशाली कमजोर पर हिंसा करता है। हर शक्तिवान शक्तिहीन को हिंसा के माध्यम से ही नियंत्रित करना चाहता है। इस तरह के दुखद विरोधाभास से भारत का विकास एवं नये भारत का संकल्प कभी-कभी बेमानी लगता है। कहने को तो हम बुद्ध, महावीर, के उपदेशों की दुहाई देते हैं। अपने को गांधी का देश कहते हैं और अहिंसा की महत्ता को रेखांकित करते हैं, किंतु अनेक बार अपनी असहमति एवं विरोध हिंसा के माध्यम से ही प्रकट करते हैं। कभी गौ रक्षा के नाम पर तो कभी राष्ट्रगान को लेकर, कभी हम बिना सोचे-समझे पदमावत जैसी फिल्मों के नाम पर हिंसा पर उतारु हो जाते हैं, इस क्रम में कभी सरकारी संपत्ति को क्षति पहुंचाई जाती है, कभी अपने से भिन्न मत रखने वाले को और कभी-कभी निर्दोष भारतीयों को भी क्षति पहुंचा देते हैं। किस तरह से हम अपने को विकसित कह सकते हैं?
भारतीय समाज में हिंसा बढ़ी है या यूं कहें हिंसा का राजनीतिकरण हुआ है। स्थानीय निकाय चुनावों से लेकर संसद के लिए होने वाले चुनाव में भी हिंसा के अनेक रूप पूरी प्रक्रिया के हिस्से के रूप में दिखाई देते हैं। किसी को वोट देने पर हिंसा, किसी को वोट न देने पर हिंसा, हिंसा के बल पर राजनीतिक ताकत दिखाने की होड़। एक तरह से अनेक रूपों में हिंसा हमारी चुनावी प्रक्रिया और लोकतंत्र का अभिन्न अंग बन गई है। आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह- ऐसे लोग गिनती के मिलेंगे जो इन तीनों स्थितियांे से बाहर निकलकर जी रहे हैं। पर जब हम आज राष्ट्र की राजनीति संचालन में लगे अगुओं को देखते हैं तो किसी को इनसे मुक्त नहीं पाते।
सर्वोच्च लोकतांत्रिक मंच संसद में आज संवाद नहीं, विवाद अधिक दिखाई देते हैं। उस पटल पर सरकार के किये वायदों के अधूरे रहने पर भी प्रश्न करें, भ्रष्टाचार समाप्त करने और शासन में पारदर्शिता लाने से जुड़े सवाल हो, कश्मीर समस्या की चर्चा हो और पाकिस्तान को सबक सिखाने के मुद्दे हो, देशभर में सामाजिक समरसता बढ़ाने की बात हो- यह सब सार्थक चर्चाएं होनी चाहिए, लेकिन इन चर्चाओं की जगह देश में हो रहे बुनियादी कामों की टांग खिंचाई कैसे लोकतंत्र को सुदृढ़ कर पायेंगी। जब नया भारत निर्मित करने की बात हो रही है, जब सबका साथ-सबका विकास की बात हो रही है, तो उनमें खोट तलाशने की मानसिकता कैसे जायज हो सकती है?
शिक्षा की कमी एवं निम्नस्तरीय जीवनयापन गरीबी को बनाये हुए है। स्वास्थ्य सुरक्षा एवं रोगों की रोकथाम हेतु व्यवस्था संतोषजनक नहीं है। कमजोर एवं बीमार लोगों की शक्ति की कमी उनकी क्षमता को प्रभावित करती है। सूचना संचार तकनीक के सृजनात्मक एवं उद्देश्यपूर्ण/सार्थक उपयोग द्वारा भारत को एक नयी शक्ल देने की बात कर रहे हैं, हमारी आर्थिक व्यवस्था डिजिटलाइज एवं आनलाइन करने की दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन आज भी हमारे यहां इंटरनेट की क्षमता एवं तकनीक संतोषजनक नहीं है।
आज जब पानी के लिए एक राज्य दूसरे के विरुद्ध मुकादमा करता है, एक भाषा-भाषी को दूसरे की भाषा नहीं सुहाती, संसद जो धैर्यपूर्वक सुनने-बोलने, सोचने-समझने की जगह है वहीं अनुशाासन की जगह हंगामा होता है, राष्ट्र के तथाकथित सेवक कुर्सी के पुजारी और देश के भक्षक बन रहे हैं, राजनीति और नैतिकता का संबंध विच्छेद होता जा रहा है, सांस्कृतिक एवं जीवन मूल्यों से परे हटकर भोगवाद की तरफ बढ़ते जा रहे हैं, ऐसी स्थिति में राष्ट्र के पूर्ण विकसित होने के स्वप्न का साकार होना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। राष्ट्र को सच्चे अर्थाें में जागना होगा, फिर कितना ही बड़ा स्वप्न क्यों न हो अवश्य पूरा होगा। वस्तुतः मोदी साहब के सपनों का विकसित भारत तभी संभव है जब नैतिक, चारित्रिक एवं अनुशासन की दृष्टि से हम उन्नत होंगे तथा राजनीति अपराध का व्यापार न बनकर देश सेवा का आधार बनेगी। यदि हम संकल्प एवं समर्पण भाव, आत्मविश्वास एवं नैतिकता के साथ आगे बढ़ेंगे तथा देश को अपने निजी स्वार्थों से ऊपर मानकर चलेंगे तो निश्चय ही सभी क्षेत्रों में हम पूर्ण विकसित होकर विश्व में अग्रणी हो सकेंगे,। अन्यथा हमारी प्रगति चलनी में भरा हुआ पानी होगा, प्रतिभासित किंतु असत्य। वह राष्ट्रीय जीवन के शुभ को आहत करने वाला है।
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