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“सृष्टि की उत्पत्ति का कारण और कर्म-फल सिद्धान्त”

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12 Nov 18
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“सृष्टि की उत्पत्ति का कारण और कर्म-फल सिद्धान्त” हम इस विश्व के अनेकानेक प्राणियों में से एक प्राणी हैं। यह विश्व जिसमें असंख्य सूर्य, पृथिवी व चन्द्र आदि लोक लोकान्तर विद्यमान है, इसकी रचना वा उत्पत्ति किस सत्ता ने क्यों की, यह ज्ञान हमें होना चाहिये। महर्षि दयानन्द ने जहां अनेक प्रकार का ज्ञान अपने सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में दिया हैं, वहीं इस प्रश्न का ज्ञानपूर्वक समाधान भी किया है। वेद और अनेक वैदिक ग्रन्थों के ज्ञानयुक्त प्रमाणों के आधार पर वह बतातें हैं कि यह समस्त सृष्टि ईश्वर ने उपादान कारण ‘त्रिगुणात्मक प्रकृति’ से उत्पन्न की है। उन्होंने यह भी बताया है कि ईश्वर एक अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अजन्मा, अजर, अमर, अखण्डनीय, अनन्त, अविनाशी तथा सर्वज्ञ सत्ता है। वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी आदि स्वरूप वाला है। उस परमेश्वर से ही यह सृष्टि बनकर अस्तित्व में आई है। इस सृष्टि की आयु अर्थात् उत्पत्ति से इसके विनाश वा प्रलय तक का काल ब्रह्मा का एक दिन कहलाता है जो 4 अरब 32 करोड़ वर्षों का होता है। इतने वर्ष व्यतीत हो जाने पर इस सृष्टि की प्रलय हो जायेगी और 4 अरब 32 करोड़ वर्ष तक प्रलय वा ब्रह्म रात्रि रहने के बाद पुनः ऐसी ही सृष्टि उत्पन्न होगी। ईश्वर सर्वज्ञ है। ईश्वर का ज्ञान अनादि व नित्य है। यह ज्ञान पूर्ण है और किसी भी प्रकार की न्यूनता व त्रुटि से रहित है। ईश्वर अनादि है और अणु प्रमाण अल्पज्ञ चेतन सत्ता जीवात्मा सहित जड़ गुण वाली प्रकृति भी अनादि है, अतः ईश्वर अनादि काल से अब तक अनन्त बार ऐसी ही सृष्टि कर चुका है। भविष्य में भी सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय का क्रम जारी रहेगा। ईश्वर को सृष्टि बनाने के लिये विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता। वह अपने सहज स्वभाव से ही सृष्टि की रचना को करते हैं व उसका संचालन वा पालन करते हैं।

ईश्वर ने सृष्टि की रचना इसके उपादान कारण प्रकृति से की है। प्रकृति में विकार होकर प्रथम महतत्व बुद्धि बनता है। इसके बाद अहंकार और उसके बाद पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत, इनसे दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन। पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये चौबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर है। मूल प्रकृति अविकारिणी है और महत्तत्व, अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य हैं और ये इन्द्रियां, मन तथा स्थूलभूतों का कारण हैं। पुरुष अर्थात् जीवात्मा प्रकृति का विकार व परिणाम नहीं है। इसी प्रकार पुरुष वा जीवात्मा का न कोई उपादान कारण है और न यह किसी का कार्य है। परमात्मा सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म और सर्वान्तर्यामी होने से मूल प्रकृति के भीतर भी व्याप्त है। वह अपने विज्ञान, सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता एवं सर्वव्यापकता से प्रकृति से इस कार्य जगत् सृष्टि की रचना व प्रकाश करते हैं। इस प्रकार प्रलय की अवधि पूर्ण होने पर प्रत्येक सर्ग के आरम्भ में ईश्वर इस जगत की रचना करते हैं और इसका पालन करते हैं।

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में सृष्टि उत्पत्ति और मनुष्य शरीर की रचना पर बहुत सुन्दर प्रकाश डाला है। वह विवरण यहां प्रस्तुत है। वह लिखते हैं कि जब (प्रलय की अवधि पूर्ण होने के बाद) सृष्टि (की रचना करने) का समय आता है तब परमात्मा (त्रिगुणात्मक प्रकृति के) उन परमसूक्ष्म पदार्थों को इकट्ठा करता है। उस की प्रथम अवस्था में जो परमसूक्ष्म प्रकृतिरूप कारण से कुछ स्थूल होता है उस का नाम ‘महत्तत्व’ और जो उस से कुछ स्थूल होता है उस का नाम ‘अहंकार’ और अहंकार से भिन्न-भिन्न पांच सूक्ष्मभूत श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण पांच ज्ञानेन्द्रियां, वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा ये पांच कर्म इन्द्रियां हैं और ग्यारहवां मन कुछ स्थूल उत्पन्न होता है। और उन पंचतन्मात्राओं से अनेक स्थूलावस्थाओं को प्राप्त होते हुए क्रम से पांच स्थूलभूत (पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश) जिन को हम लोग प्रत्यक्ष देखते हैं, उत्पन्न होते हैं। उन से नाना प्रकार की ओषधियां, वृक्ष आदि, उन से अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से शरीर होता है। परन्तु (मुनष्य व अन्य प्राणियों की) आदि-सृष्टि मैथुनी नहीं होती क्योंकि जब स्त्री पुरुषों के शरीर परमात्मा बना कर उन में जीवों का संयोग कर देता है तदनन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है।

देखो! शरीर में किस प्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है कि जिस को विद्वान् लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाड़ों का जोड़, नाड़ियों का बन्धन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत्, फेफड़ा, पंखा कला का स्थापन, रुधिरशोधन, प्रचालन, विद्युत् का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूलरचन, लोम, नखादि का स्थापन, आंख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रन्थन, इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन, जीव के जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था के भोगने के लिये स्थान विशेषों का निर्माण, सब धातु का विभागकरण, कला, कौशल, स्थापनादि अद्भुत सृष्टि को विना परमेश्वर के कौन कर सकता है? इसके विना नाना प्रकार के रत्न धातु से जड़ित भूमि, विविध प्रकार के वट वृक्ष आदि के बीजों में अति सूक्ष्म रचना, असंख्य हरित, श्वेत, पीत, कृष्ण, चित्र, मध्यरूपों से युक्त पत्र, सुगन्धादियुक्त पत्र, पुष्प, फल, अन्न, कन्द, मूलादि रचन, अनेकानेक क्रोड़ों भूगोल, सूर्य, चन्द्रादि लोकनिर्माण, धारण, भ्रमण, नियमों में रखना आदि परमेश्वर के विना कोई भी नहीं कर सकता। यह सृष्टि की रचना का विवरण है जो कि ज्ञान, बुद्धि व तर्क संगत है।

एक प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि ईश्वर ने यह सृष्टि किसके लिये रची है? इसका उत्तर है कि जगत में तीन अनादि पदार्थों का अस्तित्व है जिनके नाम हैं ईश्वर, जीव व प्रकृति। जीव अणु परिमाण, एकदेशी, अल्पज्ञ, चेतन सत्ता है। जीवों की संख्या असंख्य व अनन्त हैं। जीवों की यह संख्यायें मनुष्य के सीमित ज्ञान के कारण कही जाती हैं। ईश्वर सभी जीवों व उनके कर्मों को पूरी तरह से जानता है। इन जीवों के प्रलय से पूर्व सृष्टि में जो शुभ व अशुभ कर्म थे, जिनका इन्होंने भोग नहीं किया था, उन कर्मों के सुख व दुःख रूपी भोग के लिये ही ईश्वर ने इस सृष्टि को उत्पन्न किया है। मनुष्य व सभी प्राणियों में एक समान व एक जैसी जीवात्मायें हैं जो अपने-अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण उन-उन योनियों में परमात्मा द्वारा उत्पन्न की गयी हैं। यह सभी जीव परमात्मा की प्रजा है। ईश्वर एक आदर्श माता, पिता, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने कर्तव्यों के निर्वाह के लिये ही वह सृष्टि की रचना, जीवात्माओं को कर्मानुसार जन्म और सृष्टि का पालन व प्रलय करते हैं।

कर्म-फल सिद्धान्त की भी चर्चा करना प्रासंगिक है। जीवात्मा चेतन तत्व है। चेतन पदार्थ में दो गुण होते हैं ज्ञान व कर्म। जीवात्मा एक देशी व ससीम होने से अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञानवाला है। कर्म करने की इसकी सामर्थ्य भी सीमित है। अतः मनुष्य योनि में यह अल्पज्ञता, अज्ञान, अविद्या आदि सहित काम, क्रोध, लोभ, इच्छा, राग, द्वेष आदि के कारण कुछ अशुभ व पाप कर्म भी करता है। इसका कर्तव्य है कि यह ईश्वर के ज्ञान चार वेदों को जाने और उसकी शिक्षाओं का ही पालन व आचरण करें। इससे पृथक होकर यह वेद-विरुद्ध जो पापमय आचरण करता है उसका फल ईश्वरीय दण्ड के रूप में मनुष्य योनि व अन्य प्राणी योनियों में जन्म लेकर इसे भोगना पड़ता है। यह जो वेदानुकूल सत्य व ज्ञानयुक्त कर्म करता है उसके अनुरूप इसे सुख व जन्म-जन्मान्तरों में उन्नति व सुखों की वृद्धि भी प्राप्त होती है। इसी को कर्म-फल सिद्धान्त कहते हैं। यह भी जानने योग्य है कि हमारा कोई कर्म कदापि क्षमा नहीं होता। हमें, हमारे आचार्यों, गुरुओं आदि सभी को अपने अपने कर्मों के फल अवश्यमेव भोगने होते हैं। मनुष्य को सदा सत्य-व्यवहार व आचरण ही करना चाहिये। यही मनुष्य का धर्म है। इसके विपरीत मनुष्य जो मिथ्या व्यवहार, छलयुक्त कर्म, निन्दित कार्य व मांसाहार आदि कुकृत्य करता है उसका दण्ड भी इसको इस मनुष्य योनि व इसके बाद नीच प्राणी योनियों में जन्म लेकर दुःख के रूप में भोगना होता है। अतः मनुष्य को वेदाध्ययन व ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन कर अपना आचरण शुद्ध व पवित्र रखना चाहिये।

मनुष्य आदि योनियों में जन्म का कारण जीवात्मा के कर्म हैं। जन्म के समय, जीवनकाल तथा मृत्यु के समय जीवात्मा को अनेक बार नाना प्रकार के दुःख होते हैं। इन दुःखों से मुक्त होना हर मनुष्य चाहता है। दुःखों से सर्वथा मुक्ति मनुष्य को वेदाचरण, सत्याचरण, योग विधि से ईश्वरोपासना तथा यज्ञ आदि कर्मों के करने से प्राप्त होती है। इसको विस्तार से जानने के लिये सत्यार्थप्रकाश का नवम समुल्लास पढ़ना उचित है। हमारे ऋषि, मुनि व योगीजन जो जीवन व्यतीत करते थे वह मुक्ति के साधनों से युक्त होता था। मोक्ष के चार साधन हैं विवेक, वैराग्य, षट्क सम्पत्ति और मुमुक्षत्व हैं। इनको जानकर इनके अनुसार जीवन व्यतीत करना मनुष्य की जीवात्मा को मोक्ष की ओर अग्रसर करता है। जैसे जैसे इन साधनों में उन्नति होती है वैसे वैसे ही मोक्ष की निकटता होती है। यह प्रयत्न जीवनभर जारी रहने चाहियें। यह आवश्यक नहीं की एक जन्म में ही मुक्ति हो जाये। मुक्ति में अनेक जन्म भी लग सकते हैं।

हम आशा करते हैं कि पाठकों को इस लेख में प्रस्तुत विचारों से लाभ होगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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