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विविधवर्णीय कविताओं का पुष्प गुच्छ"उन्मेष प्रवासी मन "

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06 Jul 25
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विविधवर्णीय कविताओं का पुष्प गुच्छ"उन्मेष प्रवासी मन "


कोटा की साहित्यकार डॉ. अपर्णा पाण्डेय की काव्य संकलन कृति " उन्मेष प्रवासी मन " 
कविताओं के संकलन का एक ऐसा पुष्प गुच्छ है जो किसी एक विषय पर केंद्रित न हो कर धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, प्रेम, प्रकृति सौंदर्य आदि प्रसंगों को समेटे हुए विविधवर्णीय और बहुमुखी है। कहने को तो यह एक कृति है पर  वास्तव में दो कृतियों का प्रतिनिधित्व करती है। दो खंडों में विभक्त कृति में लेखिका ने स्वयं दो बार मन की बात कही है। एक भाग में विविध विषयों पर स्वस्फूर्त  29 रचनाएं हैं तो दूसरे भाग में 31 ऐसी कविताएं हैं जो उनके ढाका प्रवास के दौरान सृजित कविताओं का दर्पण है। साथ में 9 ग़ज़ल भी इस खंड में शामिल हैं। इनकी कविताओं में मानवता, देश प्रेम, आशा, विश्वास, आनंद, चिंता, पीड़ा, विरह, मिलन के भाव इन्हें कुशल शब्द शिल्पी बना देते हैं।
      उन्मेष एक संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ पलकें खुली रखना है। इन्होंने अपनी खुली आंखों से जो देखा और महसूस किया वही कविताएं उन्मेश खंड में प्रतिध्वनित हैं। इस भाग की स्वस्फूर्त कविताओं में जिंदगी के कई रंग भरे हैं । सृजन गंभीरता लिए पर संदेश परक है। भाषा शैली मन को छू लेने वाली है।
  भारतीय संस्कृति में ॐ - नाद का महत्व रचा - बसा है। यम, नियम,आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और समाधि जैसे आचार - विचार के नियम आज तिरोहित हो रहे हैं। संयम रह नहीं गया है। स्वदेशी को भूल बैठे हैं। मानवता को जिंदा रखने के लिए इन्हीं को आधार बना कर " ॐ - नाद" कविता में लिखा है ( पृष्ठ  ३ ).....

भारत की पावन भूमि से, ऋषि ने फिर ललकारा है/ उठो देश के अमर सपूतों / यह संसार तुम्हारा है। / ॐ नाद की ब्रह्म ध्वनि से/ गूंजा भारत सारा है / ऋषियों की पावन वाणी से /भाग रहा अँधियारा है / यम, नियम/ आसन/ प्राणायाम/ प्रत्याहार/ समाधि से/ जीवन-नौका पार उतारो / यह संकल्प हमारा है / रहो स्वदेशी, त्याग विदेशी/ जीवन में संयम धारो/ ऋषियों के आदर्श आचरण का / जयघोष हमारा है॥
  समाज में फैल रही विकृतियों और धर्म से विमुख होते प्राणियों पर चिंता जाहिर कर प्रभु में मन रमाने के भाव पर लिखी कविता " विमूढ़ मन" देखिए ( पृष्ठ  ७  )........
    
हम चौराहे पर खड़े, किस पंथ पर मन को रमायें/ भक्तिपथ को गह रहें, भव पंथ पर पग को बढ़ायें / इन्द्रियों के अश्व भव को / विषय रस की ओर लायें / मूढ़ बन मानव इन्हें ही, लक्ष्य जीवन का बनायें / कंटकों के पंथ पर तू, ढूँढता क्यों फूल भोले ?/ स्वार्थ के सम्बन्ध सारे/ होना है बस प्रभु का हो ले॥ / साथ जायेगा नहीं कुछ, सब यहीं पर छूट जाए/ फिर भला काहे मनुज तू, पाप दुनिया में कमाए॥
  
लेखिका ने निर्गुण भक्ति रस के कबीरदास जी की वाणी को आधार बना कर समाज में जीवन मूल्यों में निरंतर हो रही गिरावट पर कुछ यूं लिखा है ( पृष्ठ  ४ ).........

कबिरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर / भ्रष्ट तन्त्र चारों तरफ, मनुज-मनुज में बैर॥ / राम-रहीमा लड़ मुए, भेद मिटा न कोय/ समुझा-समुझा थक गया, देख कबीरा रोय॥ / जप-माला, छापा तिलक, सरे न एकौ काम /  या कलयुग में पुज रहे, निर्गुण, मूरख, पाम॥ /माला फेरत जुग गया/ गया न मनका फेर/ नेता गुरु घंटाल सब/माया के सब चेर॥ /ऊपर बैठा देखता, रहा कबीरा सोच / संतन की इस भूमि का, हाल हुआ क्या पोच ?  
 
 मातृभूमि की वेदना, माखौल और मौका परस्त भी लगभग ऐसे ही भावों पर रचित कविताएं हैं। जिंदगी, एहसास, तुम, क्यों मिले, किस से कहें , अजब दुनियां और आखिरी जज़्बात और प्रेम की पाती हमारी कविताएं प्रेम भावना पर आधारित विरह और मिलन के भावों का स्पंदन कराती हैं । हम बच्चें भारत के, परीक्षा, इतिहास का निर्माण, नववर्ष, रत्न-गर्भा, शरद - ऋतु, ऋषि दयानंद आदि भी संदेश परक भावपूर्ण कविताएं हैं।
    काव्य संकलन के दूसरे भाग में ढाका प्रवास के दौरान जो व्यक्ति चाहे वे छात्र हो या अधिकारी , उन्हें देखा, समझा वे इनकी कविताओं के विषय बन गए। महिलाओं में जहां रूढ़िवादी सोच थी वहीं उनसे मुक्त होने की छटपटाहट भी देखी। इनसे इनके लेखन को नई दिशा मिली। इस भाग में विविध विषयों के साथ-साथ प्रेम , प्रकृति आधारित सृजन का बहुल्य है। वजह हो सकती है प्रेम पाना और प्रकृति की सुंदरता से प्रभावित होना। प्रेम और प्रकृति के मेल से सृजित कविता " दूर हो" के भाव देखिए ( पृष्ठ  ७६ ).............

चांदनी रात है, और तुम दूर हो प्यार की बात है और तुम दूर हो / क्या करें, बिन तुम्हारे रहें हम मगर भीगे जज़्बात हैं, और तुम दूर हो /  रात रानी महकने लगी हर तरफ़ सांस में मद घुला और तुम दूर हो / “पुष्प" पे शबनमी बूँद मोती बनी बस अधर चूम लो, पर बहुत दूर हो / प्यास कैसे बुझे, मैं नहीं जानती अंक में लो मुझे, पर बहुत दूर हो।

आदमी के अहम में अकड़ कितना मुगालता पाल लेती है " ऊंचे लोग " काव्य सृजन देखिए क्या कहता है ( पृष्ठ ७५ )........

बहुतों को देखा है मैंने / कबूतर की तरह फूले हुए  / अकड़ा ये गर्दन / अपने अहम में /  आसमां बन जाने का / मुगालता पाले छा/ जाना चाहते हैं /  दुनिया पर.../  पर नहीं जानते / कुछ भी नहीं हैं वे / देखा नहीं शायद/ समंदर...../  प्रभु ! ऊँचे और ऊँचे हों / मेरी दुआ है !

मेघ आते हैं, हवाएं गीत गाती हैं, गरजते मेघ किसी की याद ले आते हैं पर वे बरस कर चले जाते हैं को लेकर को लेकर कितना भावपूर्ण सृजन किया है " मेघ का आना " कविता में ( पृष्ठ ६० )...........
 
ये काले मेघ का आना / हवा का गीत फिर गाना / बूंदों का बरस जाना l ये बस यूँ ही नहीं है....../ दुआओं का असर है । /  ये झूमे पेड़ की डाली  / जैसे संग हो कोई आली / गले में डाल बाहें / ख़ुशी से झूम जाना.. / फिज़ाओं का असर है। / ये उड़ते श्वेत वक देखो /  जा रहे किस दिशा लेखो /  पिया की ही दिशा जाना ये बस यूँ ही नहीं है.. आहों का असर है /  गरजते मेघ फिर आये/  उसी की याद फिर लाये  / छूकर मन चले जाना /  ये बस यूँ ही नहीं है..../ सदाओं का असर है। /
  
 " प्रश्न " कविता में जहां रूढ़ियों और सामाजिक बंधनों में जकड़ी महिला की छटपटाहट और उसकी विवशता सुनाई देती है वहीं इनसे मुक्ति के लिए प्रशस्त मार्ग भी दिखाई देता है। इस विषय को लेखिका ने बड़ी शिद्दत से अपने सृजन में रेखांकित किया है जो उनके काव्य सृजन कौशल को दर्शाता है ( पृष्ठ ५५,५६)........

ऊपर से तो रूप मनोहर, अंतर में तो ज्वाला है/  कष्टों ने झकझोरा इतना, हर क्षण पीती हाला है / सामाजिक बंधन क्यों इतने, झेले हैं महिलाओं ने / चीख-चीखकर पूछ रही वह, यह कौन सी शाला है ? । / नर-नारी के लिए भला क्यों, मर्यादा है अलग-अलग / रहना है बस चुप उसे ही, पुरुष रहे क्यों अलग-थलग ?/ लोकाचार निभाना उसकी, मजबूरी क्यों पूछ रही ? / सिलकर ओंठ रहे चुप कब तक, अग्नि-पुंज की ज्वाला है । / नीति, धर्म, मर्यादा उसकी, जीवन की पूँजी हैं क्यों ? / बार-बार यह कहकर उसको, मात-पिता ने पाला क्यों ?/ सहन शक्ति ईश्वर ने हद ही, सृजन-शक्ति देकर के हाथ / सृजन सहज न, ध्वंस सरल है, यही नीति की माला है। / सुनौ देवियों ! नहीं हींन तुम, पुरुषों के सिर रखकर पाँव / अपनी शक्ति बढ़ाओ इतनी, चरणों में इनका हो ठांव /  तुम दुर्गा हो, तुम शक्ति हो, तुम्हीं मात, तुम हो काली / इन सबकी औकात भला क्या, दे पायें तुमको गाली ?/  करो ध्वंस इन असुर गणों का, बनकर के अब रणचंडी / ऊपर सरल, भेड़ हैं भीतर, रूप धरेगा पाखंडी / किन्तु विधाता ने कर डाला, साथ तुम्हारे ही अन्याय /भाव उदार, करुण, कोमलता, थाती बनी चित्त की हाय !/  इसीलिए तुम धर्म-मार्ग हो, सहना है बस भाग्य लिखा / नव-पीढ़ी को सिखा-पढ़ाकर, कर देना तैयार बड़ा। / तुम उच्छृन्खल हुई यदि तो, यह समाज ढह जायेगा / भला इसे फिर कौन नीति का, सुन्दर पाठ पढ़ायेगा ?
   इस भाग  की कविता मुक्ति, ध्यान बहुत है, जीवन, प्रेम, मुक्ति का प्रसाद, द्वीप बन कर रह गया हूँ, मानवीय प्रेम की नीप, जीवन नहीं, दर्द बीज बोया लगता है, मेह - पुरुष, बन सको तो, समझौता, मिट्टी, अमोघ, मेघ क्यूं रूठे, प्रीति, सीख लिया और प्यार नहीं गुजरता संग्रह की उत्तम और भावपूर्ण रचनाएं हैं। 
   यह काव्य संग्रह इन्होंने अपने स्व. पिता श्री लाल बिहारी शास्त्री और माता श्रीमती कृष्णा देवी को समर्पित किया है। भूमिका में कवि, समीक्षक और भारत सरकार के अधिकारी वीरेंद्र सिंह विद्यार्थी लिखते हैं, "  डॉ.अपर्णा पाण्डेय के इस संकलन के विश्व-विधान में प्रकृति के समृद्ध उपादान तथा सौन्दर्य को इन्द्रिय-संवेद्य बनाकर प्रस्तुत करने का श्लाद्य प्रयास भी है। कविता की कलात्मकता के अन्वेषण में कवयित्री का परम्परा-बोध प्रखर रूप से उभरता है परन्तु वह जड़ता को दृढ़ता से तोड़ता हुआ, जूझता हुआ भी दिखाई पड़ता है। नूतन अर्थ-बिम्बों मिथकीय भंगिमाओं, सहज जीवन-बोध और सामान्य शिल्प-विन्यास के साथ अपनी कविताओं गीतों, ग़ज़लों को श्रृंगारित करने के क्रम में उनकी इस बात की सजगता और पिपासा आमतौर पर परिलक्षित हो जाती है कि साहित्य कभी पूर्णता का विज्ञापन नहीं होता बल्कि प्रगति पथ पर सदैव 'नव' से 'नवतर' 'प्रखर से प्रखरतर' होता जाता है जिनमें परिमार्जन और प्रक्षालन की संभावनाएं उन्हें पतझड़ से बसंत की ओर ले जातीं हैं।" 
    अभिमत में ढाका के हाइ कमीशन ऑफ इंडिया के डायरेक्टर जयश्री कुंडू ने भी अपने विचार व्यक्त कर लिखा है," इनकी कविताएं सुंदर है। ये विद्यार्थियों के मध्य अच्छी शिक्षिका रही हैं। इनके प्रोत्साहन से बांग्लादेशी स्टूडेंट्स भारतीय संस्कृति, भारतीय धर्म और प्रसिद्ध हिंदी लेखकों की पुस्तकें पढ़ने लगे हैं।" अभिमत में शिवराज श्रीवास्तव लिखते हैं इनकी कविताओं में एक सजग, जाग्रत और संघर्षशील भारतीय नारी के दर्शन होते हैं। 

पुस्तक : उन्मेष प्रवासी मन ( काव्य संकलन )
लेखिका : डॉ. अपर्णा पाण्डेय, कोटा
प्रकाशक : वृंदावन बिहारी दार्शनिक 
अनुसंधान केंद्र, नई दिल्ली
मूल्य : 120 रुपए

 


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