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“परमात्मा ने हमें मनुष्य क्यों बनाया?”

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03 Mar 20
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“परमात्मा ने हमें मनुष्य क्यों बनाया?”

हम मनुष्य हैं और हमें यह जन्म परमात्मा ने पूर्वजन्म में हमारी मृत्यु होने पर हमारे लिये माता-पिता का चुनाव कर उनके द्वारा हमें प्रदान किया है। परमात्मा ने हमें मनुष्य जन्म क्यों दिया, इस प्रश्न पर विचार करने से पहले हमें अपने विषय अर्थात् अपनी आत्मा के विषय में चिन्तन कर लेना आवश्यक है। हम एक शरीर के रूप में दिखाई देते हैं परन्तु हमारा शरीर तो अन्नमय व जड़ है अर्थात् यह अन्न को खाने से बना है। अन्न से बना शरीर हम नहीं है। हमारे शरीर में ह्रास व निर्माण की प्रक्रिया चलती रहती है। शरीर के सेल बनते व नष्ट होते रहते हैं। हमारे शरीर में जो अन्न का भाग जन्म व बचपन में था वह समाप्त हो गया। अब हमारे शरीर में अन्न व भूमि का जो भाग है वह विगत कुछ महीने व वर्षों में खाये अन्न के द्वारा बना हुआ कह सकते हैं। अन्न जड़ होता है।

 

                हमारे शरीर में जन्म के समय से आत्मा है। इस आत्मा में हमारी जन्म-जन्मान्तरों की स्मृतियां व कर्मों के संस्कार रहते हैं। हम बचपन में जिस स्कूल में पढ़े उसकी स्मृतियां आज भी हमारे मन-मस्तिष्क व आत्मा में हैं। इसका अर्थ यह है कि जो ज्ञान से युक्त चेतन सत्ता इस शरीर में है उसमें परिवर्तन नहीं हुआ है। वह जन्म व बाल्यकाल में जैसी थी, आज भी वैसी ही है। इतना परिवर्तन अवश्य हुआ है कि उसका अज्ञान कम हुआ है और अनुभव कुछ बढ़े हैं। इसके साथ ही हमने अपने पूर्वजन्म व इस जन्म के अनेक कर्मों का भोग किया है और नये कर्म किये हैं जो हमारे इस जन्म के प्रारब्ध में सम्मिलित होंगे। अतः मनुष्य व प्राणी शरीर परिवर्तनशील होने से हमारा उसका सम्बन्ध माता के गर्भ व उसके बाद हमारे अन्न, जल व वायु से युक्त भोजन आदि से है जबकि आत्मा पूर्वजन्मों से इस जन्म में आई हुई एक शाश्वत एवं सनातन सत्ता है जिसका वर्णन हमारे अनेक शास्त्रीय ग्रन्थों में है। संक्षेप में कहें तो आत्मा ज्ञान व कर्म करने की सामथ्र्य से युक्त एक सूक्ष्म, आंखों से न दीखने वाली, अनुत्पन्न, अनादि, नित्य, जन्म-मरण धर्मा, सुख व दुःखों का भोग करने वाली, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में परतन्त्र, वेदाध्ययन कर सत्य विद्याओं को प्राप्त होने वाली, वेदाध्ययन, ईश्वर उपासना तथा सद्कर्मों व उपासना आदि से पूर्वकृत कर्मों का भोग कर मोक्ष को प्राप्त करने वाली एक अविनाशी तथा सर्वदा जीवित व वर्तमान रहने वाली एक सत्ता है।

 

                आत्मा और शरीर दो भिन्न सत्तायें व पदार्थ हैं। जिस प्रकार से पंचभूत त्रिगुणात्मक प्रकृति के विकार होकर परमाणु व परमाणु से अणुओं के बनने से बने हैं, वैसा हमारा आत्मा नहीं है। आत्मा किसी भौतिक पदार्थ से निर्मित सत्ता नहीं है अपितु यह अलौकिक पदार्थ है जो अनादि व अनुत्पन्न होने से सदा सर्वदा से इस सृष्टि में है। आत्मा व परमात्मा में कुछ मौलिक भेद व अनेक समानतायें भी हैं। ईश्वर सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान है तो आत्मा एकदेशी, ससीम तथा अल्प शक्ति से युक्त होता है जो मनुष्य आदि जन्म लेने पर ही अपने ज्ञान व कर्म की शक्ति से कार्य करने में समर्थ होता है। परमात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप अर्थात् सत्य व चित्त सहित आनन्द से युक्त सत्ता है जबकि जीवात्मा सत्य व चित्त से युक्त तो है परन्तु आनन्द से सर्वथा रहित है। इसमें जो आनन्द आता है वह सद्कर्मों को करने से ईश्वर द्वारा प्रदत्त व साधना व उपासना में ईश्वर से जुड़ने व ईश्वर के सान्निध्य का होता है। परमात्मा के सत्यस्वरूप को जानने के लिये ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय सहित वेद, वेदभाष्य, वेद-टीकायें, दर्शन एवं उपनिषद ग्रन्थों आदि का अध्ययन करना समीचीन है। आर्यसमाज के दूसरे नियम में अति संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित ईश्वर की परिभाषा दी गई है। स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश तथा आर्योद्देश्यरत्नमाला में भी ईश्वर के स्वरूप में मात्र 8-10 पंक्तियों में प्रकाश डाला गया है। इन्हें पढ़कर हम ईश्वर के सत्यस्वरूप को जान सकते हैं। इससे यह भी विदित होता है कि ईश्वर का न कभी अवतार हुआ है और न हो सकता है, तथा ईश्वर की उपासना योग दर्शन की विधि वा ऋषि दयानन्द विरचित सन्ध्या वा ब्रह्मयज्ञ के अनुसार ही की जा सकती है। ईश्वर की मूर्ति व उसमें प्राण प्रतिष्ठा आदि बातें असत्य व मिथ्या होती हैं। ईश्वर के सर्वव्यापक व निराकार स्वरूप के स्थान पर मूर्तिपूजा करना ईश्वर का अपमान है और इससे कोई लाभ नहीं होता अपितु हानियां अनेक होती है। हिन्दू जाति के पराभव में तीन प्रमुख कारण वेदज्ञान का अभाव, मूर्तिपूजा व फलित ज्योतिष ही रहे हैं। यही कारण था कि ऋषि दयानन्द जी ने वेद प्रचार करते हुए सबसे अधिक बल मूर्तिपूजा के खण्डन तथा सन्ध्या व अग्निहोत्र-देवयज्ञ के प्रचार व प्रवृत्ति कराने पर दिया तथा फलित ज्योतिष का भी निषेध किया।

 

                परमात्मा सर्वज्ञ एवं जीवात्मा अल्पज्ञ है। परमात्मा सर्वशक्तिमान भी है। अतः वह स्वाभाविक रूप से जीवात्मा को उसके कर्मानुसार जन्म व सुख व दुःखों से युक्त कर्म फल प्रदान करता है। यदि वह सृष्टि को न बनाये, सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि के लोगों को वेदों का सद्ज्ञान प्रदान न करे और जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार सुख व दुःखरूपी फल प्रदान न करे तो उस पर दोष लगता है कि ईश्वर है ही नहीं, होता तो सृष्टि उत्पत्ति आदि सभी कार्य करता, जीवों को जन्म व कर्मों का फल देता। इसी कारण से ईश्वर ने इस सब संसार को रचा है और इस संसार में सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व प्रलय को यथासमय यथापूर्व करता जाता है। परमात्मा जीवात्माओं को उनके पूर्वजन्मों व पूर्वकल्प में मनुष्य योनियों में किये गये अभुक्त कर्मों का फल देने के लिये सृष्टि को बनाकर जीवात्माओं को मनुष्य आदि अनेक योनियों में जन्म देता है और उन्हें कर्मानुसार सुख व दुःख प्रदान करता है। यह ज्ञान वेदनिहित व वेदानुकूल होने से सत्य ज्ञान है। यह तर्क व युक्तियों से भी सिद्ध होता है। यह किसी अल्पज्ञ मत-मतान्तर के आचार्य का आधा-अधूरा, मिथ्या व विपरीत ज्ञान नहीं है। वेद ज्ञान ही पूर्ण एवं पूर्ण सत्य ज्ञान है। वेद के होते हुए महाभारत काल के बाद से लेकर अब तक उत्पन्न मत-मतान्तरों एवं गुरुओं द्वारा चलाये गये मत व गुरुडम की किंचित भी आवश्यकता नहीं है। इन सबसे मनुष्य जाति को लाभ होने के स्थान पर हानि ही हो रही है। मनुष्य की आत्मा का पूर्ण विकास व उन्नति तथा मोक्ष प्राप्त नहीं होता। यही कारण है कि कुछ व अनेक मत-मतान्तर अपने अनुयायियों को प्रश्न पूछने व शंका समाधान करने की अनुमति नहीं देते। उन्हें कहा जाता है कि जो उनके मत की पुस्तकों में लिखा है, वह सत्य हो या असत्य, तुम्हें उसी को मानना है अन्यथा परिणाम अच्छे नहीं होंगे। बहुत से लोग सत्य से परिचित हो जाने के बाद भी अपने मत में परिवर्तन नहीं कर पाते जिसका कारण उनका वह डर होता है जो ऐसा करने पर उनको अपने पूर्वमत के साथी व सहयोगियों से मिलने की सम्भावना रहती है।

 

                परमात्मा ने हमें मनुष्य क्यों बनाया, इसका उत्तर है कि परमात्मा और हम दोनों अनादि व नित्य सत्तायें हैं। परमात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप, अजन्मा, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ तथा जीवों को कर्मानुसार जन्म व कर्म फल देने वाली सत्ता है। जीवात्मा ज्ञान प्राप्त करने तथा त्याग वा स्वार्थों से युक्त कर्म करने में स्वतन्त्र सत्ता है। अतः परमात्मा जीवात्माओं को उसके कर्मानुसार एक जन्म के बाद दूसरा, तीसरा जन्म अनादि काल से निरन्तर देते आ रहे हैं और देते रहेंगे। जन्म और पुनर्जन्म के बीच कुछ लोगों को 31 नील वर्ष से अधिक अवधि तक मोक्ष की प्राप्ति भी हो सकती है यदि उन्होंने सर्वथा वेदानुकूल ही सत्य कर्म किये हों। मोक्ष न हुआ तो जीवात्मा को जन्म व पुनर्जन्म के चक्र का निर्वाह करना पड़ता है। ऐसा ही हमारे व अन्य सभी मनुष्यों के साथ हुआ है। मनुष्येतर प्राणियों को उन-उन योनियों में जन्म भी उनके मनुष्य योनि के पूर्वजन्मों में किये गये कर्मों के आधार पर ही मिलता है। कर्म फल का भोग पुनर्जन्म का अकाट्य सिद्धान्त है। संसार में जितने भी मनुष्य व अन्य प्राणी हैं, उनकी मृत्यु होने के बाद उनका पुनर्जन्म निश्चित है। वह जन्म ईश्वरीय न्याय व्यवस्था जो पूर्ण सत्य व पक्षपात से रहित है, उसके अनुसार मिलेगा। उस स्थिति में न उनका इस जन्म का मत काम आयेगा न मृतक व जीवित आचार्य ही। अतः मनुष्य को अपने हिताहित को ध्यान में रखकर मत वा धर्म का चुनाव करना चाहिये जिससे उसका भविष्य व पुनर्जन्म निकष्टंक व दुःखों से रहित हो। कोई भी मनुष्य कुत्ता, बिल्ली, चूहा, सांप, बिच्छू, सूअर, गधा, मक्खी व मच्छर आदि बनना नहीं चाहेगा परन्तु उनके चाहने व न चाहने से कुछ होने वाला नहीं है। संसार में इन योनियों में जो लोग हैं वह पूर्वजन्मों में मनुष्य ही थे। उन्होंने इन योनियों में जन्म की इच्छा व्यक्त नहीं की थी। उनको यह जन्म उनके कर्मों के अनुसार मिले हैं। आगे भी ऐसा ही होगा। कोई मत व उसका आचार्य काम नहीं आयेगा। वह स्वयं ईश्वर की व्यवस्था से सत्यासत्य कर्मों के अनुसार सुख व दुःख पायेगा। हमारा इस जन्म का कारण हमारे पूर्वजन्म के कर्म रहे हैं और आगे के जन्मों में भी यही व्यवस्था काम करेगी। अतः हमें वैदिक धर्म धारण कर व ग्रहण कर सत्य मार्ग का आचरण व अनुसरण करना चाहिये। इति ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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