GMCH STORIES

“वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा करना आर्यसमाज के लिए चुनौती है”

( Read 11524 Times)

29 Nov 19
Share |
Print This Page
“वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा करना आर्यसमाज के लिए चुनौती है”

सृष्टि के आदि काल से ईश्वरीय ज्ञान वेदों पर आधारित वैदिक धर्म एवं तदनुकूल वैदिक संस्कृति न केवल आर्याव्रत भारत में अपितु विश्व के अनेक देशों में विद्यमान रही है। सृष्टि की उत्पत्ति 1.96 अरब वर्ष पूर्व हुई थी। तब से महाभारत काल तक पूरे विश्व में विशुद्ध वैदिक धर्म एवं संस्कृति ही शत-प्रतिशत लोगों का धर्म होता था। इस अवधि में सम्पूर्ण भारत एवं विश्व की उपासना एवं अग्निहोत्र-यज्ञ की पद्धति भी एक ही थी, इसका अनुमान होता है। महाभारत युद्ध के बाद वैदिक धर्मी आर्यों के आलस्य प्रमाद व आपस की फूट के कारण पतन होना आरम्भ हुआ। ढाई हजार वर्ष पहले महात्मा बुद्ध के समय तक भी वैदिक धर्म और संस्कृति अपने किंचित विकृत रूप में देश देशान्तर में प्रचलित थी। महाभारत के बाद देश में बौद्ध मत व जैन मतों का आविर्भाव हुआ। इन मतों का प्रादुर्भाव वैदिक धर्म में यज्ञों में की जाने वाली पशु हिंसा मुख्य रूप से मानी जाती है। यदि महाभारत के बाद वैदिक मत में विकृतियां न आई होतीं तो इन मतों का प्रचलन न हुआ होता। इसके बाद ईसाई मत और उसके लगभग 5 शताब्दियों बाद इस्लाम मत का आविर्भाव हुआ। यह दोनों मत भारत से दूर अन्य देशों में उत्पन्न हुए थे। इन मतों की उत्पत्ति का कारण उन देशों में प्रचलित अज्ञान व तदनुरूप परम्परायें प्रतीत होती हैं। इन मतों ने तेजी से अपने निकटवर्ती क्षेत्रों में येन-केन-प्रकारेण विस्तार किया। यह मत वेद और बौद्ध धर्म की अहिंसा के समान सत्य और अहिंसा पर आधारित नहीं थे। इनका उद्देश्य स्व-मत का विस्तार करना रहा। इन दिनों भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। विदेशों में भारत के वैभव का प्रचार था। अतः वहां से कुछ लोग भारत को लूटने आदि कारणों से ईसा की आठवीं शताब्दी में भारत में प्रविष्ट हुए। उन्होंने न केवल भारत की भौतिक सम्पत्ति को ही लूटा अपितु अनावश्यक लोगों की हत्यायें की और मातृ शक्ति का घोर अपमान किया।

 

                विदेशी विधर्मियों के आक्रमणों के समय भारत में भयंकर फूट थी। यदि दो तीन राजा भी मिलकर विधर्मी आतताईयों का विरोध करते और आर्य शास्त्रों में वर्णित सूझबूझ व नीतियों से काम लेते तो यह आसानी से आतताईयों को पराजित कर सकते थे। ऐसा न हो सका। एक-एक कर भारत के राजा पराजित होते रहे और देश की स्वतन्त्रता, वैदिक धर्म व संस्कृति दांव पर लग गई। वह भंग हुई व विधर्मियों के हाथों अपमानित होती रही। भारत में एकता न होने के पीछे प्रमुख कारण पाषाण मूर्तियों की पूजा तथा फलित ज्योतिष सहित मिथ्या सामाजिक परम्परायें व आपसी भेदभाव आदि थे। खेद है कि जान-माल व अपमान सह कर भी हमारे लोगों पर इनका कोई उचित प्रभाव नहीं हुआ। यह उसी पतन के मार्ग पर चलते रहे। आज भी इन्होंने वह मार्ग छोड़ा नहीं है जबकि अनेक समाज सुधारकों ने हिन्दू मत के अज्ञान व अन्धविश्वासों का खण्डन किया है। सुधारकों की लम्बी सूची है जिसमें सबसे प्रभावी धर्म प्रचार ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने किया। उन्होंने न केवल वैदिक धर्म का सत्यस्वरूप देशवासियों के सामने रखा अपितु सद्धर्म वैदिक धर्म का प्रचार करने के साथ अन्य मतों की अविद्या व मिथ्या मान्यताओं व परम्पराओं की समीक्षा भी की। ऋषि दयानन्द से पूर्व व उनके समय आर्य हिन्दुओं का छल, भय, प्रलोभन व बल के आधार पर मतान्तरण किया जाता था परन्तु हिन्दू अपने ही धर्मान्तरित भाईयों को अपने साथ मिलाते नहीं थे। ऋषि दयानन्द ने इस परम्परा में भी सुधार किया और उन्होंने शुद्धि का विधान दिया जिसका उपयोग उन्होंने व बाद के आर्य विद्वानों व नेताओं ने किया जिसके कारण अन्य मतों के विद्वानों सहित वैदिक मत से ईसाई व मुसलमान बने लोगों की शुद्धि की गई। इन्हीं देश व धर्म के कामों के कारण आर्यसमाज के अनेक विद्वानों को शहीद होना पड़ा जिनमें ऋषि दयानन्द के बाद स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 लेखराम, महाशय राजपाल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

 

                वर्तमान समय में वैदिक धर्म व संस्कृति को खतरा विधर्मी बाह्य मतों से तो है ही, अपने ही लोगों से जो गुरुडम व अन्यान्य मठ-मन्दिरों का निर्माण कर पाषाण पूजा कर व करवा रहे हैं तथा लोगों को फलित ज्योतिष के कुचक्र में फंसाया हुआ है, उनसे भी धर्म व संस्कृति कमजोर हो रही है जिसका लाभ विधर्मी उठाते हैं। दूसरे विदेशी मूल के मतों के अनुयायी व आचार्य परस्पर संगठित हैं जबकि सनातन वैदिक धर्म में अनेक प्रकार की विचारधारायें, मान्यतायें व अन्धविश्वास आदि भरे हुए हैं। सामाजिक दृष्टि से भी लोग संगठित न होकर अनेक जन्मना-जातियों, सम्प्रदायों व संगठनों आदि में विभाजित हैं। हमारे अपने ही भीतर ऐसे लोग भी हैं जो दूसरे मतों के पैरोकार हैं जिसका कारण उनको सत्य धर्म का ज्ञान न होना और वास्तविकता से दूर अपने किन्हीं राजनैतिक व अन्य स्वार्थों से जुड़ी सोच व विचारधारा है। इस कारण से हिन्दू समाज दिन प्रतिदिन कमजोर होता जा रहा है। हिन्दुओं की संख्या निरन्तर अन्य मतों की वृद्धि दर की तुलना में कम होती जा रही है जिससे भविष्य में हिन्दुओं की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। जब हिन्दू देश में अल्पसंख्यक हो जायेंगे तो हम अनुमान कर सकते हैं कि देश व समाज की क्या स्थिति होगी? इसकी चिन्ता न हमारे धार्मिक नेताओं व आचार्यों को है और न ही हमारे शिक्षित वर्ग के युवा व प्रौढ़ लोगों को है।

 

                हमारे शिक्षित बन्धु विदेशों में जाकर काम करना चाहते हैं और धन कमाकर उससे सुख सुविधाओं का भोग करने पर ही उनका ध्यान केन्द्रित दीखता है। उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि अतीत में किन कारणों से हमारा पतन व अपमान हुआ था? हम एक हजार वर्ष से अधिक अवधि तक गुलाम क्यों रहे? कम से कम उन पतन व गुलामी के कारणों को ही जान लेते, इसके लिये भी उनके पास समय नहीं है। जब तक हम अपने पतन के कारणों को नहीं जानेंगे तथा उन्हें दूर नहीं करेंगे हम कदापि सुरक्षित नहीं रह सकते। आर्यसमाज के विद्वान पतन के कारणों को जानते हैं परन्तु वह भी वर्तमान एवं भावी पतन को रोकने में असमर्थ बने हुए हैं। उन पर आधुनिकता और लोकैषणा की पूर्ति के कार्यों से ही अवकाश नहीं है। ऐसी स्थिति में समाज के कुछ सुधी लोगों का चिन्ताग्रस्त होना स्वाभाविक है। अन्धविश्वास व पाखण्डों को दूर करने की चुनौती तो समाज में है ही, प्रमुख चुनौती देश में हिन्दुओं की जनसंख्या का अनुपात कम न होने देने की है। यदि हिन्दुओं का जनसंख्या का अनुपात कम होता गया तो यह उनके लिये घोर आपदा, कष्ट, गुलामी साहित पतन व अपमान का कारण बनेगा। समझदार व्यक्ति वह होता है जो समस्या को उत्पन्न ही न होने दे। हम स्वास्थ्य को बिगाड़ने के कारणों को जानकर उनको उत्पन्न ही न होने दें जिससे कि शरीर में रोग होते हैं। हमें लगता है कि हिन्दू समाज अपने रोगों की उपेक्षा करता है। वह वर्तमान में जीता है। यदि वह भविष्य की चिन्ता करता तो इतिहास में जो हुआ है, वह कदापि न होता। आज भी स्थिति असन्तोषजनक प्रतीत होती है।

 

                आर्यसमाज की स्थापना वैदिक धर्म और संस्कृति की रक्षा व उसके प्रचार प्रसार के लिए ऋषि दयानन्द जी ने मुम्बई में 10 अप्रैल, 1875 को की थी। आर्यसमाज का उद्देश्य हिन्दू समाज सहित संसार के अन्य मतों के अज्ञान, अन्धविश्वासों तथा पाखण्डों को भी दूर करना है। आर्यसमाज ने इस दिशा में कार्य किया है परन्तु उसे जो सफलता मिलनी चाहिये थी वह नहीं मिली। वर्तमान में आर्यसमाज मंे भी संगठन संबंधी कुछ विकृतियां देखने को मिलती हैं। हम विगत पचास वर्षों से इन विकृतियों को देख रहे हैं परन्तु इसमें कमी आती हुई दिखाई नहीं दी। यह असुखद भविष्य का संकेत लगता है। हमें यह निश्चय करना है कि जब तक समाज में धार्मिक, सामाजिक व अन्य प्रकार के अज्ञान पर आधारित मान्यतायें हैं, वैदिक धर्म व संस्कृति सुरक्षित नहीं रह सकती। वर्तमान एवं भविष्य को चिन्ताओं से मुक्त करने के लिये हमें अपने भेदभावों को दूर कर आपस में विश्वास उत्पन्न करना है। हमें एक माला की तरह एक सूत्र में बन्धना व ढलना है जैसे मोतियों की माला होती है जिसमें सब मोती एक सूत्र में पिरोये जाते हैं और वह सब शोभायमन होते हैं। यदि

 

                ऐसा यदि नहीं हुआ, जिसके होने की उम्मीद न के बराबर है, तो हमें लगता है कि सृष्टि के आरम्भ व 1.96 अरब वर्षों से चला आ रहा हमारा धर्म व संस्कृति सुरक्षित नहीं रहेगी। आर्यसमाज के नेताओं को जो किसी भी गुट से जुड़ा है, उस पर दायित्व है कि वह आर्यसमाज सहित देश के धार्मिक नेताओं से मिलकर उनको जाति पर आने वाले संकटों से अवगत व सावधान करायें और इसके साथ ही आर्य-हिन्दू समाज संगठित कैसे हो सकता है, उसकी हितकारी कड़वी दवा से भी अवगत कराये। किसी परिणाम को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न आवश्यक होते हैं। हमें प्रयत्नों में कमी नहीं रखनी चाहिये। हिन्दू व आर्यसमाज को वैदिक मान्यताओं को जो महाभारत काल तक ब्रह्मा से जैमिनी ऋषि द्वारा मान्य व प्रचारित थी, उनको जानकर उन्हें अपनाना होगा। हमें इस कार्य को क्रियात्मक रूप देना चाहिये। सत्य का प्रचार करने से हम असत्य के बादलों को दूर कर सकते हैं। इसके लिये किसी भी स्थिति का सामना करने के लिये तत्पर होना चाहिये। हमने इस लेख वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा की समस्या की ओर संकेत किया है। हम आर्यसमाज के शीर्ष विद्वानों से अपेक्षा करते हैं कि वह समस्या का समाधान खोजें और ऋषिभक्तों को अवगत करायें। अब आध्यात्मिक व्याख्यान देने का समय नहीं है। जाति की सुरक्षा पहली आवश्यकता होती है। एक भजन की पंक्तियां कुछ स्मरण हो रही हैं- ‘समय पर जो जाति सम्भलती नहीं है, बिगड़ी उसकी किस्मत सुधरती नहीं है।’ इससे मिलती जुलती पंक्तियां सम्भवतः कुवंर सुखलाल आर्य-मुसाफिर जी के एक भजन की हैं जो वर्तमान परिस्थितियों में अत्यन्त प्रासंगिक हैं। इस पूरे गीत से हम प्रेरणा लें। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Literature News , Chintan
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like