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“निर्धनों को सुख के साधन भोजन वस्त्र आदि बाटंते हुए सुख का अनुभव करने का पर्व है दीपावली”

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26 Oct 19
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“निर्धनों को सुख के साधन भोजन वस्त्र आदि बाटंते हुए सुख का अनुभव करने का पर्व है दीपावली”

मनुष्य के शरीर में जो स्थान आत्मा का है वही स्थान मनुष्य जीवन में वेदों के ज्ञान का है। ज्ञान कई प्रकार का है। ज्ञान अच्छे व बुरे प्रकार के भी हो सकते हैं। सबसे श्रेष्ठ ज्ञान वेद ज्ञान है जो मनुष्य को सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से प्राप्त हुआ था। वेदों में ईश्वर और आत्मा विषयक ज्ञान सहित सृष्टि विषयक ज्ञान भी सुलभ होता है। ईश्वर और जीवात्मा तथा इनके गुण, कर्म, स्वभाव व कर्तव्यों का जो ज्ञान वेदों से और ऋषियों द्वारा वेद व्याख्या में लिखे ग्रन्थों से प्राप्त होता है वह संसार के अन्य किसी धार्मिक, सामाजिक व अन्य ग्रन्थ से नहीं होता। संसार के अन्य ग्रन्थों में यदि ईश्वर व आत्मा के विषय में कुछ सत्य बातें हैं भी तो वह सब वेदों से ही वहां पहुंची हैं। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान होने सहित हमारे 1.96 अरब वर्षों तक के पूर्वजों का माना व आचरण किया हुआ ज्ञान है। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने पूर्वजों के बताये सत्य एवं कल्याण के मार्ग पर चले। वेद को छोड़ देने से हमारा पतन होने के साथ कोई लाभ होने वाला नहीं है।

 

                मनुष्य जीवन ईश्वर, आत्मा व संसार विषयक समस्त प्रकार के सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिये मिला है। यह केवल धन कमाने व सुख-सुविधायें भोगने व विदेशियों व विधर्मियों का अन्धानुकरण करने के लिये नहीं मिला है। यदि हम ऐसा करते हैं व कर रहे हैं तो यह हमारा अज्ञान व भूल कही जा सकती है। हम कितना भी व्यस्त क्यों न हों, हमें समय निकाल कर अपने जीवन सम्बन्धी कुछ प्रश्नों पर विचार कर लेना चाहिये। इसमें मुख्य यह प्रश्न भी हैं कि हम जन्म से पूर्व कहां थे और इस जन्म में हम कैसे माता के गर्भ तक पहुंचे हैं? इस जीवन के बाद मृत्यु होने पर हमारा क्या होगा? क्या हमारा अस्तित्व बना रहेगा? यदि बनेगा रहेगा तो फिर हमारी अर्थात् हमारी आत्मा की क्या गति होगी? उसको सुख प्राप्त होगा या दुःख? यदि दुःख प्राप्ति की सम्भावना है तो हमें उन दुःखों से बचने के उपाय व साधन भी करने चाहियें। ऋषि दयानन्द ने इन सब प्रश्नों पर विचार किया था और इनके उत्तर खोजे थे। इसी कारण उन्होंने वह मार्ग अपनाया जिस पर चलकर मनुष्य का यह जीवन तथा इसके बाद परजन्म में भी मनुष्य सुखों से युक्त रहता है। इसके विपरीत मार्ग पर चलने से मनुष्य की आत्मा परजन्म में सुख के स्थान पर दुःखों से युक्त होगी। इसका तर्कपूर्ण उत्तर हमारे ऋषियों ने दर्शन ग्रन्थों में कर्म व उसके परिणामों पर विचार व विवेचन करके जो मन्थन किया है, उससे सामने आता है। अतः हमें अपनी अनादि, अविनाशी, अनन्त आत्मा को सुखी रखने के लिये जीवन में स्वाध्याय, सत्संग, विद्वानों की संगति सहित ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ कर्म, परोपकार, ज्ञान व धन के दान का आचरण करना होगा। इससे हमें आत्मिक सुख मिलने सहित परजन्म में हमारी उन्नति होना निश्चित है।

 

                ऋषि दयानन्द ने अपना जीवन ईश्वर व आत्मा विषयक अनेक प्रश्नों की खोज व विचार करने में लगाया था। उन्होंने देश के प्रायः सभी विद्वानों से अपनी शंकाओं का समाधान करने का प्रयत्न किया। वह योग में भी प्रविष्ट हुए थे और उसे सर्वांगपूर्ण रूप में समझा। योग का उन्होंने योग्य गुरुओं से क्रियात्मक ज्ञान भी प्राप्त किया था। योग का अन्तिम अंग समाधि होता है। समाधि ही मोक्ष का द्वार है। समाधि प्राप्त योगी का मोक्ष होना प्रायः निश्चित होता है। ऋषि दयानन्द को 18 घण्टों तक समाधि लगाने का अभ्यास था। ऐसा उनके विषय में उपलब्ध साहित्य में पढ़ने को मिलता है। इतना होने पर भी ज्ञान के क्षेत्र में उन्हें कुछ अधूरापन अनुभव होता था। इस कारण वह विद्या के श्रेष्ठ एवं महान आचार्य स्वामी विरजानन्द जी, मथुरा को प्राप्त हुए। उनसे उन्होंने साढ़े तीन वर्ष में वेदार्थ करने की पाणिनी और पतंजलि ऋषियों द्वारा बनायी आर्ष व्याकरण की अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति का अध्ययन किया। इस वैदिक व्याकरण में उन्होंने अत्यन्त प्रवीणता प्राप्त की थी। विद्या पूरी कर उन्होंने गुरु से विदा ली। गुरु व शिष्य दयानन्द जी ने मिलकर स्वामी दयानन्द जी के जीवन का उद्देश्य तय करते हुए यह निश्चित किया था कि देश से अज्ञान के अन्धकार को दूर कर विद्या व ज्ञान का प्रसार करना है। इसी से संसार के मानव सुखी हो सकते हैं और जन्म-मरण के दुःखों से मुक्ति पा सकते हैं। यही कारण था कि ऋषि दयानन्द ने अपना समस्त जीवन ईश्वर प्रदत्त सत्य ज्ञान के ग्रन्थ वेदों के सत्य वेदार्थ करने तथा उनका दिग-दिगन्त प्रचार करने में लगाया था।

 

                वेदों का लोक भाषा हिन्दी में महत्व व अर्थ समझाने के लिये ही उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित ऋग्वेद-भाष्य तथा यजुर्वेद भाष्य का प्रणयन किया। अन्य वेदों पर उनका भाष्य उनकी विष द्वारा आसामयिक मृत्यु हो जाने के कारण पूर्ण न हो सका। इसके बाद उनके अनुयायी विद्वानों ने इस अवशिष्ट कार्य को भी पूर्ण कर दिया। अब ईश्वर, जीवात्मा एवं सृष्टि के रहस्यों का लगभग पूर्ण ज्ञान ऋषि एवं आर्य विद्वानों के ग्रन्थों में सुलभ है जिससे लाभ उठाया जा सकता है। हमारा सौभाग्य है कि एक साधारण हिन्दी भाषी व्यक्ति होकर भी हमने ऋषि के सभी ग्रन्थों सहित आर्यसमाज के विद्वानों के प्रमुख ग्रन्थों का अध्ययन भी किया है। हम समझते हैं कि हमें अध्यात्म व सृष्टि विषयक ज्ञान का कुछ-कुछ रहस्य वा ज्ञान प्राप्त हो चुका है। यही न्यूनाधिक स्थिति सभी ऋषिभक्तों वा आर्यसमाज के अनुयायियों की है। आश्चर्य इस बात का है कि ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में वेदों के सत्य अर्थों का प्रचार किया। यह ज्ञान मनुष्य मात्र के लिए अत्यन्त हितकर एवं कल्याणकारी है। इस पर भी प्रायः सभी मत-मतान्तरों के आचार्यों ने अपने पूर्वाग्रहों तथा हिताहित के कारण वेदों के अमृत समान आत्मा को अमरता व मुक्ति प्रदान करने वाले ज्ञान को अपनाया नहीं।

 

                मनुष्यों के मन व मस्तिष्क पर भौतिकवाद का भूत सवार है। क्या शिक्षित और क्या अशिक्षित, सभी भौतिकवाद के बाह्य आकर्षण में फंसकर अपने जीवन को बर्बाद कर रहे हैं। यह भौतिकवाद ऐसा है जैसे कि किसी स्वर्ण के प्याले में विष भरा हो और हम स्वर्ण के आकर्षण में फंसकर उसमें रखे हुए विष का पान कर रहे हों। ऋषि दयानन्द इस हानि से हमें बचाना चाहते थे। इसलिये उन्होंने गृहस्थी मनुष्यों के लिये पंचमहायज्ञों का विधान कर उसकी पुस्तक व विधि भी हमें प्रदान की। हमने अपने अज्ञान, अन्धविश्वास व अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के कारण उसका महत्व नहीं समझा और विनाश के मार्ग पर ही अग्रसर होते जा रहे हैं। हम वेदों पर आधारित सत्य नियम ‘सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहिये।’ का पालन भी नहीं करते। हमारी स्थिति यह है कि हम अपने असत्य को भी सत्य और अन्यों के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में तत्पर रहते हैं। यह बात कहीं लागू हो या न हो परन्तु यह वैदिक धर्म और आर्यसमाज के प्रति तो यह पूर्णतयः चरितार्थ होती दीखती है।

 

                ऋषि दयानन्द ने हमें समस्त दुःखों से छुड़ाकर आनन्द के भण्डार ईश्वर की उपासना में मुक्ति का अजस्र सुख भोगने का मार्ग बताया था। वह इसी कार्य को करते हुए बलिदान हो गये। उनका बलिदान सन् 1883 की दीपावली के दिन ही अजमेर में हुआ था। उनका मानव जाति पर जो उपकार है उससे वह कभी उऋण नहीं हो सकती। हम आशा करते हैं कि वर्तमान एवं भविष्य में सभी निष्पक्ष मनुष्य जो अपनी आत्मा की उन्नति करते हुए ईश्वर को प्राप्त होकर दुःखों से मुक्त होना चाहते है, वह अवश्य ही वैदिक धर्म की शरण में आयेंगे और जीवात्मा के इन सुख प्राप्ति व मोक्ष आदि लक्ष्यों को प्राप्त करेंगे। हम दीपावली एवं ऋषि दयानन्द जी के बलिदान दिवस पर उनका पावन स्मरण कर उनको अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह सबकी आत्मा व बुद्धि में प्रेरणा करें कि वह असत्य को छोड़ सत्य वैदिक धर्म का ग्रहण व उस अमृत को अवश्य धारण करें और अपना व सभी प्राणियों का कल्याण करने में अपने जीवन को लगाये।

 

                दीपावली का पर्व मनाने के पीछे यह शिक्षा ग्रहण करना है कि हमें जीवन से अन्धकार को दूर कर इसे ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करना है। इसी को प्रतीक रूप में हम मिट्टी के दीये जलाकर उससे सन्देश व शिक्षा ग्रहण करते हैं। मनुष्य जीवन में हमें ईश्वर के प्रति उपासना के कर्तव्य का पालन करते हुए हमें आमोद-प्रमोद के साथ जीवन व्यतीत करना होता है। उस आमोद-प्रमोद को सामाजिक व सार्वजनिक रूप में मनाने के लिये ही दीपावली पर्व का आविष्कार हमारे पूर्वजों ने किया था। समय-समय पर ज्ञान व अज्ञानतावश भी कुछ घटनायें इसमें जोड़ दी गई हैं। यह भी कहा जाने लगा कि इस दिन मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम असत्य, हिंसा, अन्याय, दुष्चरित्रता के पर्याय रावण को मारकर वन से अयोध्या लौटे थे। इस हर्ष व उल्लास के समय अयोध्यावासियों ने दीप जलाकर उनके सम्मान में विजय पर्व मनाया था। यह घटना हुई अवश्य थी परन्तु यह कार्तिक मास की अमावस्या को नहीं हुई थी। ऐसा बाल्मीकि रामायण के प्रमाणों से विद्वान निष्कर्ष निकालते हैं। ऐसी स्थिति में भी इस घटना को इसके साथ जोड़कर मनाने में कोई बुराई नहीं है। सही तिथि का ज्ञान हो तो उसे आगे पीछे मनाया जा सकता है। वैदिक पर्वों में दीपावली पर्व को देश व विदेश में भारतीय मूल के अधिकांश विवेकशील लोग हर्ष व प्रसन्नता के साथ मनाते हैं। इस दिन हमें ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ आदि के द्वारा पूजन तथा परोपकार व दान के कार्य करने चाहिये। हमें निर्धनों का ध्यान रखना चाहिये और उन तक भोजन व मिष्ठान्न आदि पहुंचाना चाहिये। उनको गर्म वस्त्र भी बांटे जा सकें तो अच्छा कार्य है। दूसरों को सुख देने पर ही आत्मा सुख का अनुभव करती है। इसके अनेक उदाहरण हैं। अकेले खाने व बांट कर खाने में सुख की अनुभूति भिन्न भिन्न होती है। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि हमें बांटकर खाना चाहिये। इसी प्रकार सुख प्राप्ति के लिये हमें निर्बल व पीड़ितों के साथ पर्वों को मनाना चाहिये। इससे हमारा समाज भी ऊपर उठेगा। ऋषि दयानन्द ने तो आर्यसमाज का नियम भी बनाया है कि ‘मनुष्य को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये अपितु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।’ दीपावली के दिन हम दूसरों में सुख बांटे। इससे हमें भी सुख मिलेगा। यही मनुष्यता हमें सीखाती है। दीपावली पर्व का भी यही सन्देश है कि दूसरों में खुशियां बांटो और स्वयं खुश रहो। इन्हीं शब्दों के साथ लेख को विराम देते हैं ओ३म् शम्। 

-मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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