GMCH STORIES

“सुपात्रों को दान दी गई धनराशि परमात्मा कई गुना वृद्धि करके अनेक रूपों में लौटाते हैं: आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ”

( Read 4909 Times)

22 Oct 19
Share |
Print This Page
“सुपात्रों को दान दी गई धनराशि परमात्मा कई गुना वृद्धि करके अनेक रूपों में लौटाते हैं: आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ”

वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून का पांच दिवसीय शरदुत्सव रविवार दिनांक 20 अक्टूबर, 2019 को सोल्लास सम्पन्न। उत्सव के चैथे दिन आश्रम की पर्वतीय इकाई में सामवेद पारायण यज्ञ एवं सत्संग का आयोजन हुआ। इस कार्यक्रम में स्वामी वेदानन्द सरस्वती, उत्तरकाशी सहित आचार्य डा0 धनंजय आर्य,  डा0 विनोद कुमार शर्मा तथा आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी के व्याख्यान हुए। इस कार्यक्रम का समाचार हम दो किश्तों में प्रस्तुत कर चुके हैं। इस लेख द्वारा पं0 उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी का अवशिष्ट व्याख्यान एवं आश्रम के मंत्री जी का सम्बोधन अपनी कुछ टिप्पणियों सहित दे रहे हैं। व्याख्यान आरम्भ करते हुए वैदिक विद्वान आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ ने ‘‘दान” की चर्चा की। उन्होंने कहा कि प्रश्न है मनुष्य को दान क्यों देना चाहिये? उन्होंने कहा कि जीवात्मा इस ब्रह्माण्ड में अपनी आत्मा की अनन्त यात्रा पर बढ़ रहा है। यह सुख चाहता है। कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि जब कोई याचक हमसे कुछ याचना करे तो हमें उसे यथासम्भव पूरा करना चाहिये। दूसरों को किया हुआ दान मनुष्य को सुख देता है। इसके उन्होंने अनेक उदाहरण दिये। उन्होंने कहा कि दान दी गई धनराशि परमात्मा के बैंक में जमा होती है। यह धनराशि परमात्मा हमें बाद में कई गुना वृद्धि करके अनेक रूपों में लौटाता है। वेद के अनुसार परमात्मा निश्चय ही सभी धनों का स्वामी है। परमात्मा को अपने लिये धन की आवश्यकता नहीं है। परमात्मा शुभ कर्म करने वाले सज्जन पुरुषों पर धन की वर्षा करता है। उन्होंने इसी बात को दूसरे शब्दों में कहा कि परमात्मा दानशील मनुष्यों पर धन व सुखों की वर्षा करता है। दान देने वाले मनुष्यों का धन घटता या कम नहीं होता है। दान देने वाले को जीवन में कभी रोटी की समस्या नहीं आती। वेद में परमात्मा ने आश्वस्त किया है कि वह दानशील मनुष्य के लिए भोजन एवं विभिन्न आवश्यक पदार्थों की व्यवस्था करता है। संसार में जो अटल नियम कार्यरत हैं उन्हें ऋत नियम कहते हैं। परमात्मा की सृष्टि पर ध्यान दें तो समस्त सृष्टि दान कर रही है। उन्होंने पूछा की परमात्मा से अच्छा दानी कौन है? सृष्टि के सब पदार्थ सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, वायु, जल, अन्न, अग्नि आदि मनुष्य की सेवा कर रहे हैं। निश्चय ही परमात्मा सबसे बड़ा दानी है।

 

                वैदिक विद्वान आचार्य कुलश्रेष्ठ जी ने बताया कि यज्ञकर्ता जिन पदार्थों से यज्ञ करता है वह आहुतियां उस यज्ञकर्ता से जुड़ी रहती है। वह उन आहुतियों से पृथक नहीं होता। यज्ञ में आहुत किया गया पदार्थ यजमान की आत्मा से अलग नहीं होता। वह यज्ञकर्ता को जन्म-जन्मान्तर में मिलता चला जाता है। आचार्य जी ने इसका उदाहरण देते हुए बताया कि एक सेठ के पुत्र का विवाह होता है। कुछ काल बाद पुत्रवधु गर्भवती होती है। सेठ जी उसे सभी प्रकार की चिकित्सीय सुविधायें देते हैं। प्रसव का समय आने पर उसे नगर के सबसे प्रसिद्ध डा0 के नर्सिग होम में भर्ती कराया जाता है। सेठ जी को पौत्र की प्राप्ति होती है। सेठ जी धन देकर अस्पताल के डाक्टर व सब कर्मियों को सन्तुष्ट करते हैं। पुत्र वधु को भी कोई अधिक कष्ट नहीं होता है। शिशु को सम्भालने व पालन के लिये सब प्रकार की सुविधायें उपलब्ध होती हैं। इसके साथ ही वह सेठ जी की समस्त धन सम्पत्ति का स्वामी बन जाता है। दूसरी ओर एक बच्चा एक अति निर्धन माता के गर्भ से उत्पन्न होता है जहां न वस्त्र है, न माता के भोजन का प्रबन्ध, बच्चे को दूध भी पर्याप्त नसीब नहीं होता। सम्पत्ति के नाम पर शिशु को कुछ प्राप्त नहीं होता। आचार्य कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि दोनों आत्माओं की परिस्थितियों में जो अन्तर है उसका कारण इन दोनों आत्माओं के पूर्वजन्म के कर्म वा प्रारब्ध होता है। जिस आत्मा ने पूर्वजन्म में दान किया था, लोगों से अच्छा व्यवहार किया था, देश व समाज की सेवा की थी, उसे परमात्मा ने उसके आधार पर माता-पिता व धन-सम्पत्ति का स्वामी बनाया और जिसने ऐसा न करके इसके विपरीत कार्य किये, उसे एक निर्धन दुःखी माता के यहां जन्म दिया। ऐसे ही अन्य उदाहरण भी विद्वान वक्ता ने श्रोताओं को दिये। आचार्य जी ने श्रोताओं को जीवन में सुपात्रों को मुक्त हस्त से दान देने की अपील की। उन्होंने कहा कि दान बीज है। किसान के अन्न के बीजों से उत्पन्न बड़ी मात्रा में अन्न के समान जो मनुष्य दान व शुभकर्मों को करता है उसे उसके कर्म से कहीं अधिक सुख लाभ होता है। वह परिवार के साथ फलता फूलता एवं उन्नति को प्राप्त होता है।

 

                आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि मनुष्य को अपनी आय का दस प्रतिशत भाग दान एवं परोपकार आदि शुभ कार्यों में व्यय करना चाहिये। आचार्य जी ने सन् 1984 की भोपाल गैस त्रासदी का उल्लेख किया। इस दुर्घटना में विषैली गैस के रिसने से कुछ ही क्षणों में हजारों व्यक्ति मृत्यु का ग्रास बने थे। इस घटना से वायु को शुद्ध बनाये रखने का महत्व ज्ञात होता है। वायु के विषैले प्रभाव को दूर करने के लिये ही हम प्रतिदिन प्रातः व सायं अग्निहोत्र यज्ञ करते हैं। अग्निहोत्र करने वाले मनुष्य समाज को शुद्ध वायु का दान करते हैं। यज्ञ की महिमा अपरम्पार है। आचार्य जी ने सभी धर्म प्रेमी सज्जनों को प्रतिदिन अग्निहोत्र करने की प्रेरणा की। उन्होंने कहा कि जिन्हें यज्ञ करना नहीं आता वह केवल गायत्री मन्त्र से ही यज्ञ कर सकते हैं। दान करना यज्ञ का एक अंग है। यह दान मनुष्य को मोक्ष तक ले जाता है।

 

                आचार्य जी से कभी किसी ने प्रश्न किया था कि यदि किसी बिगड़े कर्म के कारण आत्मा को कुत्ते का जन्म मिल जाये तो उसे जीवन भर कष्ट उठाने पड़ेंगे। इसका उत्तर देते हुए आचार्य जी ने कहा कि कोई दानी यदि किन्हीं कर्मों के कारण कुत्ते की योनि में आ भी जाता है तो उसे परमात्मा की ओर से वहां भी अनेक प्रकार की सुविधायें मिलती हैं। हम देखते हैं कि कुछ धनिक लोगों को कुत्ता पालने का शौक होता है। उनके कुत्ते एसी कमरों में रहते और एसी कारों में घूमते हैं। दूघ व जलेबी का नाश्ता करते हैं। बीमार होने पर बड़े बड़े डाक्टर उनका इलाज करते हैं। दूसरी ओर पूर्वजन्म में दान न देने वाला कुत्ता गली में घूमता है और लोग उसे रोटी देने के स्थान पर उसे मारते पीटते झिड़कते व भगा देते हैं। आचार्य जी ने हास्य में कहा कि बहुत से कुत्ते ऐसे भाग्यशाली होते हैं कि वह अपनी मालकिन की गोद में रहते हैं जबकि मालकिन के छोटे बच्चे नौकर व नौकरानियों की देख रेख में पलते हैं। यह सब कर्मों का खेल है। सिद्धान्त है कि जीवात्मा को अपने किये प्रत्येक शुभ व अशुभ कर्म का फल भोगना पड़ता है। जब तक कर्म का भोग नहीं होगा, उस व उन कर्मों से हमारा पीछा नहीं छूट सकता।

 

                आर्य विद्वान आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि संसार और वेद दोनों को परमात्मा ने बनाया है। इसलिये वेदों का ज्ञान सृष्टि, सृष्टि-क्रम तथा वैज्ञानिक नियमों के अनुकूल व उनका पूरक है। आचार्य जी ने कहा कि निरर्थक कार्यों में अच्छी भावना से किया गया धन का व्यय दान नहीं होता। हम जो दान करते हैं उससे चेतन प्राणियों को सुख पहुंचना चाहिये। आचार्य जी ने वैदिक साधन आश्रम तपोवन के कार्मों की प्रशंसा की और सभी श्रोताओं को आश्रम को दान देने की प्रेरणा की। आचार्य जी ने ऋषि दयानन्द के जीवन की एक घटना सुनाई। उन्होंने कहा कि स्वामी दयानन्द जब मथुरा पढ़ने आये थे तो उनके पास न धन था और न ही भोजन की व्यवस्था थी। उनके गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी ने उन्हें अध्ययन आरम्भ करने से पूर्व अपने भोजन की व्यवस्था करने को कहा था। विरजानन्द जी के शिष्यो ंसे इस बात का पता मथुरा के धनाड्य ब्राह्मण पं0 अमरनाथ जोशी को चला तो उन्होंने स्वामी दयानन्द को ढूंढवाया और अपने पास बुलाकर उनके अध्ययन काल के भोजन का समस्त व्यय अपने उपर लिया। उन्होंने न केवल स्वामी दयानन्द जी के भोजन की व्यवस्था की अपितु वह उन्हें अपने सम्मुख बैठा कर भोजन कराते थे। आचार्य जी ने कहा कि पं0 अमरनाथ जोशी के इस दान से देश व विश्व का कितना उपकार हुआ इसका अन्दाज लगाना असम्भव है। इसे उन्होंने दान की महिमा बताया। उन्होंने पं0 अमरनाथ जोशी के इस कार्य की भूरि भूरि प्रशंसा की और श्रोताओं को इससे प्रेरणा ग्रहण कर इसके अनुकूल अपना व्यवहार सुधारने को कहा। इसी के साथ उन्होंने अपनी वाणी को विराम दिया।

 

                आश्रम के यशस्वी मंत्री श्री प्रेम प्रकाश शर्मा ने श्रोताओं को बताया कि सन् 1945-1947 में महात्मा आनन्द स्वामी जी ने इस तपोभूमि में साधना की थी। योगाचार्य स्वामी योगेश्वरानन्द सरस्वती तथा तथा महात्मा प्रभु आश्रित जी ने भी यहां रहकर साधना व तप किया था। आर्यसमाज में योग साधना की दृष्टि से स्वामी आत्मानन्द सरस्वती, यमुनानगर का उच्च स्थान है। उन्होंने भी यहां तप किया, ऐसा हमें अपने पुराने एक आर्य मित्र से विदित हुआ है। श्री शर्मा ने कहा कि इस तपोभूमि की विशेषता यह है कि यहां योग व ध्यान के साधक को सात्विक विचार आते हैं, साधना में मन लगता व एकाग्र होता है तथा साधना में सफलता शीघ्र प्राप्त होती है। मृत्यु से कुछ महीने पूर्व हमने स्वामी दिव्यानन्द सरस्वती जी से भी समाधि अवस्था की प्राप्ति पर उनसे प्रश्न किया था। स्वामी जी ने बताया था कि एक बार इस तपोभूमि में कुछ घंटे तक वह समाधिस्थ रहे थे। यह विवरण आश्रम की मासिक पत्रिका ‘‘पवमान” में यथासमय प्रकाशित हुआ था। महात्मा दयानन्द तथा स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती जी भी यहां रहकर साधना कर रहे हैं। एक अन्य संन्यासी स्वामी सोम्बुद्धानन्द सरस्वती जी ने भी कई वर्षों तक तपोवन में निवास किया था। वह योग साधको को योग प्रशिक्षण देते थे। हमने उनके प्रशिक्षण में अपने मित्रों के सहयोग से सन् 1978 में एक-एक सप्ताह के दो योग विद्या प्रशिक्षण शिविर लगाये थे। उन्हीं दिनों लखनऊ के एक युवा साधक ने हमें तपोवन आश्रम में बताया था कि यहां उन्हें योग ध्यान साधना करने से विशेष लाभ हुआ है। वह अपना प्रवास बढ़ा रहे हैं। इस वार्ता के समय उनके परिचित लखनऊ निवासी श्री सत्यदेव सैनी जी हमारे साथ थे। जब यह स्वामी जी अस्वस्थ हुए तो उनकी उचित देखभाल व सेवा न होने के कारण मृत्यृ हो गई थी। हमारे एक मित्र कभी कभार उनके लिये भोजन लेकर जाते थे। स्वामी जी ने रूग्णावस्था में एक बार अपनी इच्छा की खाने की कुछ वस्तुयें उन्हें बताईं थी। वह स्वामी जी को समय न दे सके और कुछ समय बाद स्वामी जी का देहान्त हो गया। स्वामी जी मृत्यु के कई महीनों बाद हमें उनके विषय में जानकारी मिली।

 

                आश्रम के मंत्री श्री शर्मा जी ने बताया कि तपोभूमि में स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती जी के नेतृत्व एवं आंशिक व्यय से बाउण्ड्री-वाल, एक सभागार एवं एक भव्य विशाल यज्ञशाला बनी हैं। शर्मा जी ने आश्रम द्वारा निर्मित यज्ञशाला एवं गोशाला सहित आश्रम द्वारा संचालित चार सौ बच्चे के जूनियर हाईस्कूल विषयक जानकारियां भी श्रोताओं को दी। मंत्री श्री शर्मा जी ने बताया कि आश्रम की सभी गतिविधियां दान से चलती हैं। आश्रम की आर्थिक स्थिति प्रायः अभाव से त्रस्त रहती है। उन्होंने कहा कि वह ईश्वर को स्मरण कर बड़ी बड़ी योजनाओं का आरम्भ कर देते जो ईश्वर की कृपा से पूरी हो जाती है। शर्मा जी ने सभी अतिथियों एवं विद्वानों का धन्यवाद किया। आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी द्वारा प्रेरणा करने पर अनेक लोगों ने अपनी सामथ्र्य के अनुसार दान दिया। इसी के साथ तपोभूमि में आयोजित पंचकुण्डीय सामवेद पारायण यज्ञ एवं सत्संग समाप्त हुआ। हमने इस यज्ञ एवं सत्संग विषयक समाचार लेख को तीन भागों में प्रस्तुत किया। यह उसका अन्तिम भाग था। हम आशा करते हैं कि पाठक इसको पसन्द करेंगे। ओ३म् शम्।  

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Literature News
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like