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“पंडित, शिक्षक व विद्वानों सहित पुरोहित, धर्म प्रचारक एवं सन्यासियों के लक्षण”

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04 Oct 19
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“पंडित, शिक्षक व विद्वानों सहित पुरोहित, धर्म प्रचारक एवं सन्यासियों के लक्षण”

महाभारत ग्रन्थ के उद्योगपर्व के विदुरप्रजागर अध्याय में कुछ श्लोक हैं जिनमें पण्डित वा विद्वानों के लक्षण दिये गये हैं। ऐसे लक्षणों से युक्त पण्डित ही यदि हमारे विद्यालय व स्कूलों में अध्यापक हो तभी हमारी सन्तानों का सर्वांगीण विकास हो सकता है। दुःख है कि आज ऐसे शिक्षक देश में शायद ही कहीं देखने को मिले। हमें महाभारत के प्रणेता ग्रन्थकार महर्षि वेदव्यास जी के विचारों को जानना चाहिये जिससे यह ज्ञान बना रहे और भविष्य में किसी वैदिक महापुरुष के उत्पन्न होने व उसके द्वारा समाज व देश के कल्याण की भावना से युक्त होकर समाज सुधार करने पर इन विचारों का प्रचार हो सके। महाभारत के श्लोकों में पण्डित के जो लक्षण कहे गये हैं वह इस प्रकार हैं:

 

1-  जिसको परमात्मा और जीव-आत्मा का यथार्थ ज्ञान हो।

2-  जो आलस्य को छोड़कर सदा उद्योगी हो।

3-  जो सुख दुःखादि का सहन करने वाला हो।

4-  जो नित्य धर्म का सेवन व पालन करने वाला हो।

5-  जिसको कोई प्रलोभन व पदार्थ धर्म पालन से दूर न कर सके।

6-  जो सदा प्रशस्त धर्मयुक्त कर्मों को करने वाला हो।

7-  जो निन्दित अधर्मयुक्त कर्मों को कभी न करता हो।

8-  जो ईश्वर, वेद और धर्म का कदापि विरोधी होने वाला न हो। 

9-  जो परमात्मा, सत्यविद्या और धर्म में दृढ़ विश्वास रखने वाला हो।

10- जो वेद आदि शास्त्रों और दूसरे विद्वानों के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने वाला हो।

11- जो दीर्घकाल-पर्यन्त वेदादिशास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान देकर सुनकर ठीक-ठीक समझने वाला हो।

12- जो निरभिमानी व शान्त होकर दूसरों से प्रत्युत्तर करने की योग्यता रखता हो।

13- ऐसा मनुष्य जो परमेश्वर से लेकर पृथिवीपर्यन्त पदार्थों को जानकर उनसे उपकार लेने में तन मन धन से प्रवृत्त होकर काम क्रोध लोभ मोह भय शोकादि दुष्ट गुणों से पृथक वर्तमान हो।

14- जो किसी के पूछने वा दोनों के संवाद होने पर बिना प्रसंग के अयुक्त भाषाणादि व्यवहार करने वाला न हो।

15- जो प्राप्त न होने योग्य पदार्थों की कभी इच्छा न करता हो।

16- जो अदृष्ट वा अपने किसी निजी पदार्थ के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने पर शोक न करता हो।

17- जो बड़े-बड़े दुःखों से युक्त व्यवहारों की प्राप्ति में भी मूढ़ होकर घबराता न हो।

18- ऐसा मनुष्य जिसकी वाणी सब विद्याओं में चलने वाली हो।

19- जो अत्यन्त अद्भुत विद्याओं की कथा को करने में योग्य हो।

20- जो बिना जाने पदार्थों को तर्क से शीघ्र जानने व जनाने तथा सुनी व विचारी विद्याओं को सदा उपस्थित रखने वाला अर्थात् स्मरण रखने वाला हो। 

21- जो सब विद्याओं के ग्रन्थों को अन्य मनुष्यों को शीघ्र पढ़ाने वाला हो।

22- जिसकी सुनी हुई और पढ़ी हुई विद्या अपनी बुद्धि के सदा अनुकूल हो।

23- जो अपनी सभी क्रियायें को अपनी बुद्धि व पढ़ी-सुनी विद्याओं के अनुसार करता हो।

24- जो धार्मिक श्रेष्ठ पुरुषों की मर्यादा का रक्षक हो।

25- जो दुष्ट व डाकुओं की प्रवृत्ति वा रीति को विदीर्ण करने वाला हो।

 

                महर्षि दयानन्द ने उपर्युक्त विचार अपने लघु ग्रन्थ व्यवहार-भानु में लिखे हैं। वह यह भी बताते हैं कि जहां ऐसे-एसे सत्पुरुष पढ़ाने वाले और बुद्धिमान् पढ़ने वाले होते हैं, वहां विद्या और धर्म की वृद्धि होकर सदा आनन्द ही बढ़ता जाता है।

 

                महाभारत में महर्षि वेदव्यास जी ने एक शिक्षक, अध्यापक, पण्डित वा विद्वान के जो गुण बतायें हैं वह महाभारत युद्ध के बाद से देश के शिक्षकों व नागरिकों में लुप्त प्रायः होते गये जिस कारण से हमारे समाज का घोर पतन हुआ और हम विदेशी विधर्मियों के गुलाम तक हुए। यदि इन शिक्षाओं सहित वेद व वैदिक साहित्य का पठन-पाठन व प्रचार रहा होता व किया जाता तो जो अपमानजनक स्थिति आर्य हिन्दू जाति की सातवीं शताब्दी से बीसवीं शताब्दी के मध्यकाल तक व अब भी हो रही है, वह कदापि न होती। आज भी हम इन श्रेष्ठ गुणों की उपेक्षा करते हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि हमारे अधिकांश लोग शिक्षित होते हुए भी नास्तिक प्रतीत होते हैं। मनुस्मृति के रचनाकार महर्षि मनु ने कहा है कि नास्तिक वेद निन्दक को कहते हैं। वेदों की निन्दा करने वाला तथा वेदों के अध्ययन से दूर और वेद विपरीत आचरण करने वाले सभी लोग नास्तिक कहे जा सकते हैं। हमारे देश व समाज का अधिकांश भाग वेदों से बहुत दूर है। आज का शिक्षित व धन आदि से समर्थ व्यक्ति समाज के प्रति अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करता है। उसे निर्धनों, निर्बलों व असहायों के प्रति अपने कर्तव्यों का बोध नहीं है। समाज में धनी और निर्धन के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। निर्धन लोग भोजन, वस्त्र व आवास आदि की सुविधाओं से वंचित प्रायः रहते हैं और अभावों में ही रोगी होकर बिना उपचार के ही उनकी मृत्यु तक हो जाती है। हमारे समर्थ व धनाड्य लोगों पर समाज की इस स्थिति का कोई असर नहीं होता। वह चेतना शून्य व विवेक शून्य मनुष्य का सा व्यवहार करते हैं।

 

                 वेद ऐसे समाज का स्वरूप प्रस्तुत करता है जहां सभी मनुष्य समान हों तथा जिनमें किसी प्रकार का भेदभाव व ऊंच-नीच की भावना न हो। यह तभी सम्भव हो सकता है कि जब जन-जन में वेद प्रचार हो तथा समाज में हमारे अध्यापक व शिक्षक उपर्युक्त पण्डित व विद्वान के लक्षणों से युक्त हो। महर्षि दयानन्द जी ने इसी काम को अपने हाथों में लिया थां। इस कारण सभी मतों के अनुयायी उनके शत्रु बन गये थे। इसी कारण से वह षडयन्त्र का शिकार हुए और उनकी अकाल मृत्यु हुई। देश, समाज तथा आर्य हिन्दू जाति के हित में हम चाहते हैं कि ऋषि का कार्य जारी रहना चाहिये। इसके लिये हमारे राजनेताओं को भी अपने स्वार्थों का त्याग कर देश व समाज के हित में वैदिक विचारधारा, जिसका प्रवचन व प्रचार ऋषि दयानन्द जी ने किया था, उसको अपनाना होगा। यदि ऐसा नहीं किया गया तो देश व समाज की जो वर्तमान स्थिति है उससे भी बुरी स्थिति हो सकती है। जिस प्रकार से मत-मतान्तरों की जनसंख्या का अनुपात बढ़ रहा तथा हिन्दु-आर्य जाति का अनुपात कम हो रहा है, आर्य हिन्दू जाति की जनसंख्या कम हो रही है वह एक खतरे की घण्टी है। यदि नहीं सम्भले तो परिणाम भयंकर हो सकते हैं। ईश्वर की कृपा से इस समय देश की बागडोर एक योग्य प्रधानमंत्री के हार्थों में है। हम आशा करते हैं वह देश व समाज हित सहित वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा पर भी विचार करेंगे और इसके लिए जो उचित होगा वह सभी उपाय करेंगे। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121


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