GMCH STORIES

 समाज की सच्चाई के इर्दगिर्द घूमती विजय जोशी की कहानियां

( Read 1197 Times)

01 May 25
Share |
Print This Page

 समाज की सच्चाई के इर्दगिर्द घूमती विजय जोशी की कहानियां

डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
 

सुलगता मौन कहानी संग्रह में  जीवन के विविध प्रसंगों की वे कहानियाँ हैं जिनमें युगबोध का स्वर और मानवीय मूल्यों के संरक्षण की बात एक दिशा प्रदान करती है। वहीं ये सामाज की सच्चाई को भी सामने लाती है। जिसे उन्होंने मुखर होते उन स्वरों को जो समय - असमय भीतर ही भीतर सुलगते हुए मौन रहे ...को समर्पित किया है। कहानियों में आस के पंछी, सबक, भीगा हुआ मन, अब ऐसा नहीं होगा, नर्म  अहसास, कदमताल, नाटक, अपनों से पराए, सुलगता मौन, पटाखे, सीमे हुए अरमान  कुल ग्यारह कहानियाँ हैं।  समाज, परिवार और व्यक्ति में जो परिवर्तन आ रहा है उन सभी को ये कहानियाँ सरलता से पाठकों के सामने लाती हैं। इस संग्रह की हर कहानी कुछ न कुछ सन्देश देती है। पाठकों को सोचने के लिए मजबूर करती है। 'आस के पँछी ' और 'अपनों से पराये ' ऐसी कहानियाँ हैं जो रिश्तों-रिश्तों के बीच उत्पन्न स्थितियों को साफ-साफ दिखाती है। 'सबक' में पारिवार की स्थितयों और उनके प्रभाव, स्वभाव और आभाव को  सामने लाया गया है। 'भीगा हुआ मन ' आडम्बरों पे चोट करती हुई कहानी है जो एक सीख देती है। 'अब ऐसा नहीं होगा ' कहानी में लड़की के जन्म लेने के बाद की समस्या तथा मानसिक पीड़ा सामने आयी है। यह सामाजिक विडम्बना के पक्ष को पाठकों के सामने रखती है। 'नर्म अहसास ' बदलती जीवन शैली से बदलते विचारों के प्रभाव को दिखलाती है। 'कदमताल ' परिवार में सन्देह करने से बिगड़ती स्थिति तथा सम्बन्धों में टकराहट को सामने लाती है। 'नाटक ' कहानी से साहित्य और समाज के नाटक का पर्दाफ़ाश एक साक्षात्कार के माध्यम से होता है। 'सुलगता मौन ' कहानी अपने भीतर पीड़ा को झेलते वृद्ध दम्पत्ति के मौन को सरलता से बताती है। '  फटाके ' कहानी अंधविश्वास की पोल खोलती है। ' सीमे हुए अरमान ' अवसरवादिता और कर्मठता के बीच के द्वन्द्व का वर्णन करती है।
          संकलन की शीर्षक वाली कहानी वृद्ध दम्पती की अपनी ही समस्याओं, उलझनों, सवालों और वेदनाओं को पाठक के समक्ष कुछ इस रूप में सामने लाती हैं कि पाठक कभी रुंआसा होता है, कभी खीझता है, कभी डरता है तो कभी मौन साधता है। कुछ ऐसी ही कहानी है 'आस के पंछी' भी। राधा किशन जी के चार बेटे होते हुए भी वे अकेले रहने को विवश है। बेटे अपना फर्ज नहीं निभाते बल्कि माता-पिता से संबंध तक समाप्त कर होते हैं। और यही सिल्सिला अपनों को पराया कर देता है। 
संग्रह की एक और मार्मिक कहानी है 'अपनों से पराये' जिसमें बहादुर सिंह अपने पुत्र को अपनी नौकरी तक दे देता है लेकिन बदले में उसे भी अपमान ही झेलना पड़ता है। माता-पिता अपनी संतान के लिए सर्वस्व बलिदान कर देते हैं। बड़े से बड़ा कष्ट सहते हैं, छोटी से छोटी इच्छा को समाप्त कर लेते हैं, आँखों की नींद और पेट की भूख को जाहिर नहीं होने देते। किन्तु वही संतान जब अपने कर्तव्य से विमुख हो जाए तो, माता- पिता अपने 'सीमे हुए अरमान' किस धूप के आगे तपाएँ।
स्त्री मन के भावों को भी कहानीकार ने इतनी गहराई से कहानियों में उकेरा है कि उनके निष्पक्ष साहित्यकार होने पर प्रसन्नता हो उठती है। 'अब ऐसा नहीं होगा' लिंग असमानता पर आधारित कहानी है। माता-पिता बनने वाला युगल जब अस्पताल के उस दृश्य को जीता है तो अमिता अनायास ही अपने गर्भ में पल रही संतान के प्रति आशंकित और भयभीत हो उठती है और ऐसा होना स्वाभाविक भी है। शिक्षित और आधुनिक कहलाने वाला मनुष्य समाज, आज भी बालिका को दोयम स्थान पर रखता है तथा संतान के रूप में पुत्र का ही आकांक्षी रहता है।
पति-पत्नि के संबंधों की एक दुविधापूर्ण किन्तु समझदारी भरी कदमताल को समेटे कहानी 'कदमताल' भी वास्तव में पठनीय है। यहाँ नारी की उलझनों को विजय जी ने तर्कपूर्ण तरीके परिभाषित किया है। 
     कथाकार ने उप कथानक का सहारा लेकर मुख्य भाव को इतना मज़बूत मोड दिया है कि साधारण सी कहानी भी महिला सशक्तिकरण को स्पष्ट कर गई। वर्तमान प्रजातांत्रिक स्थितियों, पाखण्डों और घोटालों का नाटक उजागर करती कहानी 'नाटक', प्रतीकों के रूप में वास्तविक स्थितियों को दर्शाती है। आज किसी भी प्रतियोगिता में आवेदन से  लेकर चयन तक की प्रक्रिया को नाटक के रूप में ही पूरा किया जाता है, और वास्तव में चयन तो पहले ही तय हो चुका होता है। 
         रोज़मर्रा की आपाधापी, तमाम दुनिया की व्यस्तताओं, जीवन की छोटी बड़ी जिम्मेदारियों, घर बाहर के मुश्किलें और नाते-रिश्तों की उलझनों से परे संकलन की एक कहानी इतनी विचारणीय लगी कि मन कह उठा ऐसे कथ्य पर लिखना एक दृष्टि सम्पन्न और अनुभवी साहित्यकार के ही बस का है। जैसी स्थिति और द्वन्द्व कहानी के नायक के ह्रदय को विचलित कर गए संभवतया वही द्वन्द्व विजय जी ने भी झेला ही होगा क्योंकि ऐसे द्वन्द्व का हल वे ही निकाल सकते हैं।
        इस संग्रह की कहानियों में चरित्र परिवर्तन और समस्या के समाधान का संकेत होना ही कहानी को सशक्त बनाता है। ये सभी कहानियाँ वर्तमान समाज, परिवार और व्यक्ति में हो रहे परिवर्तन  को सरलता से पाठकों के सामने लाती हैं। इस संग्रह की हर एक कहानी कुछ न कुछ सन्देश देती है। पाठकों को सोचने के लिए मजबूर करती हैं।  साहित्यकार डॉ. गीता सक्सेना के मत में , "संवेदनाओं के धरातल पर परिवेश को सुरम्य भाव-भंगिमाओं में शब्दांकित करती कहानियों की एक श्रंखला है ।"  जोशी ने सरल भाषा में  सामाजिक और पारिवारिक जीवन को ईमानदारी से कहानियों के द्वारा प्रस्तुत किया है। इन कहानियों में आम जन की पीड़ा और उनके मौन को शब्दों के सहारे सामने लाया गया है। इसके साथ ही कहानियां कई तरह की समस्याओं को दूर करने के लिए सुझाव भी देती हैं जो पात्रों में आ रहे परिवर्तन के द्वारा सामने आते हैं। विजय  की ये कहानियाँ सदैव सामाजिक समस्याओं पर विचारणीय तथ्यों को समेटकर सटीक संवादों, शानदार शिल्प, कसे हुए कथानक , प्रस्तुत परिवेश और आकर्षक शीर्षक के साथ आती हैं। अब मौन को सुलगता कौन कह सकता है। जो यह जानता है कि मौन जब सीमा से अधिक बढ़ जाता है तो जैसे सूखी लकड़ी लू के थपेड़ों से सुलगने लगती है वैसे ही मौन भी कटाक्ष सहते-सहते सुलगने लगता है। संग्रह की कुछ कहानियाँ एक उलझन के साथ ही समाप्त हो गई पर कहानीकार ने जिस संवेदनशीलता के साथ उलझनों को उकेरा है पाठक उन्हें गहरे तक अनुभूत करता चलता है। सामाजिक, और पारिवारिक मुद्दों पर कथानक रचना यूं भी विजय जी की खूबी है और इस संग्रह में तो उन्होंने इन अनछुए पहलुओं को लिपिबद्ध कर पाठक को इन विसंगतियों के प्रति सावचेत किया है।


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories :
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like