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' द्रौपदी’ महाकाव्य में युग चेतना

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16 Apr 24
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' द्रौपदी’ महाकाव्य में युग चेतना

सन 2024 में लोकार्पित द्रौपदी प्रबन्धकाव्य सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं कवि श्री जितेन्द्र निर्मोही द्वारा लिखा गया है। इस महाकाव्य द्वारा उन्होंने इस युग में व्याप्त मूल्यहीनता, नारी का अपमान, बलात्कार, हत्या तथा भ्रष्टाचार जो देश एवं धरती को विनाश की ओर ले जा रहे हैं, ‘द्रौपदी’ के चरित्र के माध्यम से नारी मनोविज्ञान उसका अन्तर्मन उसका स्वाभिमान एवं अस्मिता के अपमानित होने पर कैसा प्रलंयकारी रूप उपस्थित हो जाता है, इसको लेखक ने बड़े ही ओजस्वी एवं प्रभावपूर्ण शब्दों में द्रौपदी महाकाव्य को वर्णित किया है। कलात्मकता एवं मार्मिकता हृदय को छू रहे हैं।

    अपमानित होकर जब नारी,
      विकराल रूप धर लेती है।
      वीरों का होता सर्वनाश,
      महि अलग रूप धर लेती है।

     कवि के कथन में नारी धरती स्वरूपा है जब प्रकृति का दुरुपयोग स्वयं के अहंकार एवं स्वार्थ के लिये होता है तो प्रलय आ जाती है। कवि इस पुस्तक की भूमिका में स्वयं कहते हैं कि इस कृति में उन्होंने युगीन दृष्टि का अनुभव किया। द्रौपदी का जीवन तप त्याग और सेवा से परिपूर्ण था। उसे पांडवों के साथ अनेक कष्ट झेलने पड़े, किन्तु वह अत्यंत स्वाभिमानी थी, उसके इसी रूप को काव्य में उभारा गया है तथा नारी की अस्मिता एवं आत्मसम्मान को ही कवि ने सर्वोपरि माना है जो हर युग में प्रासंगिक रहा है -

    जीवन जीना द्रौपदी का,
     जब भी याद हो आता है।
     जो भारतीय नारी अस्मिता का,
     जीवन वैभव समझाता है।

 ‘द्रौपदी’ महाकाव्य सत्रह सर्गों में विभाजित है। प्रथम दस सर्गों में मंगलाचरण सहित द्रौपदी के प्राकट्य एवं अनुपम सौन्दर्य के प्राकृतिक एवं कलात्मक मनोहारी रूप वर्णन द्वारा नारी की महिमा को स्थापित किया गया है।
        सम्पूर्ण सृष्टि उसका आँचल,
         वह धरती है या गगनांचल।

नारी के व्यक्ति त्व एवं चरित्र में कवि ने जो जीवन मूल्य एवं युगीन चेतना के समोवश को देखा है, और इसी युग चेतना के उत्कर्ष को आगे के सर्गों में, द्रौपदी वनगमन पंचपति वरण की पीड़ा और अन्तद्र्वन्द्व को नारी के धर्म, धैर्य, त्याग और सतीत्व तक पहुंचाया है। पांच पतियों के वरण से चिन्तित द्रौपदी को भगवान शंकर ने यह भी वर दिया था कि वह सदैव पूजित एवं निष्कलंक रहेगी।

 विधना ने जो लिखा, उसे हंसते हंसते सहना  है
उपवन हो या राजभवन, दुःख सुख संग सहना है।

 द्रौपदी के इसी तपनिष्ठ जीवन ने उसे महासतियों और पूजित नारियों की पंक्ति  में रखा है। यदि इस युग की धर्म, दर्शन और आध्यात्मिक चेतना को इस महाकाव्य में टटोला जाए तो चिन्तक और विचारक विद्वान कवि ने वैदिक काल से चले आ रहे मानव धर्म एवं जीवन मूल्यों के मार्गदर्शन को ही जीवन के लिए सर्वोपरि बताया है। आधुनिक प्रौद्योगिकी एवं अर्थाधारित सभ्यता के लिए जीवन में प्रेम, दया, करुणा, सेवा, परोपकार जैसे सांस्कृतिक मूल्यों की आवश्यकता सदैव रहेगी। महाकाव्य के द्वितीय सर्ग में ही रचनाकार ने भारतीय संस्कृति में जीवन मूल्यों के महत्व का समर्थन किया है।

यह ऋषि परम्परा की धरती,
इस पर दुनिया टिकी हुई
जब-जब इसकी मर्यादा टूटी,
यह जगती सारी बिखर गई।

आज के युग में आत्मशक्ति का ह्रास हो रहा है। जीवन में अध्यात्म एवं ज्ञान की चेतना ही मनुष्य को आत्मशक्ति प्रदान करती है। आज के युग में पूँजीवादी सभ्यता के विकास के साथ-साथ ही आत्मशक्ति क्षीण हो रही है, निजी स्वार्थों की होड़ में देश, जाति एवं समाज में असंतुलन व्याप्त  है -
 
द्यूत मद मदिरा सुन्दरी,
  ये पतन के मार्ग हैं।
 किन्तु यह पथ आज भी,
क्यों मनुज को स्वीकार है।

यही द्यूत महाभारत के युद्ध का कारण बना, आत्मबली युधिष्ठित को भी द्यूत ने दुर्बल बना डाला।
इस महाकाव्य में कवि ने रूप सौन्दर्य, ज्ञान, सेवा एवं तप त्याग के अतिरिक्त  नारी में शक्ति को भी आवश्यक बताया है। महाकवि पंत की ये पंक्तियाँ -

क्षमा सोहती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसका क्या जो दंतहीन विष हीन विनीत सरल हो।

हम कितना भी ज्ञान अर्जित कर लें, तप कर लें किन्तु यदि हममें शक्ति एवं सामथ्र्य नहीं है तो न तो हम स्वयं की रक्षा कर पाएंगे न ही देश और मानवता की। द्रौपदी में एक श्रेष्ठ नारी के सभी गुण विद्यमान थे, इसके अतिरिक्त द्रौपदी का आत्माभिमान विद्युत की तरह तेजोदीप्त था तथा अस्मिता अग्नि के समान भस्म कर देने वाली थी, किन्तु जीवन की विषमताओं ने उसे कष्टों विपदाओं और विडम्बनाओं में डाल दिया था। कवि के शब्दों में .....

नारी तो सर्वदा धरित्री है,
जो ऐसा जीवन ढोती है
सुख चैन कहां मिलता उसको,
 नयनों से नदिया बहती है।

 यहां द्रौपदी महाकाव्य में कृष्णा के जीवन की जटिलताओं तथा विपदाओं को देखकर उसके आत्म सम्मान की रक्षा के लिये स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने उसे अपनी दो प्रिय शक्ति यां उपहार में दी थीं। एक नीलमणि एवं दूसरी माया जो स्वयं श्री कृष्ण की सहचरी थी और इसीलिये उस द्यूत सभा में जहां पौरुष का झूठा दम्भ उपस्थित था द्रौपदी ने स्वयं की तो रक्षा की ही किन्तु दुःशासन के रक्त  से स्वयं के केश धोने का संकल्प लिया।
 द्रौपदी प्रबन्धकाव्य के 8, 9, 10 सर्गों में पंच पतिवरण की पीड़ा, द्रौपदी अन्तद्र्वन्द्व, द्रौपदी-चिन्तन में प्रबंधकार ने स्त्री विमर्श की द्वापर से लेकर इस युग तक की ज्वलन्त समस्याओं एवं चिन्ता का अति संवेदनशील होकर चित्रण किया है। कवि ने नारी मनोविज्ञान का गहराई से जाकर सूक्ष्म विश्लेषण किया है। द्रौपदी की पीड़ा के मनोभावों का ऐसा मर्मस्पर्शी चित्रण तथा साथ ही स्त्री के जीवन में क्या उचित है क्या अनुचित इसका भी स्वाभाविक वर्णन किया है। उन काव्य पंक्ति यों को पढ़ते वक्त  ऐसा नहीं लगता है कि यह पुरुष द्वारा रचित है तथा एक पुरुष नारी मनोभावों की इतनी गहराई से व्याख्या कर सकता है। आश्चर्य होता है! और यही मानवता के प्रति संवेदनशीलता सही अर्थों में कवि की पहचान है।
 वैसे तो द्रौपदी कृष्णा के जीवन चरित्र पर अब तक अनेक रचनाकारों ने गद्य एवं पद्य दोनों में कलम चलाई है, किन्तु इक्कीसवीं सदी की औद्योगिक क्रान्ति के इस युग में भी इसकी प्रासंगिकता को देखते हुए कवि श्री जितेन्द्र निर्मोही का इस महाकाव्य को लिखने का प्रयास अभिनंदनीय है।

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