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आज भी जारी है प्रागेतिहासिक काल की अभिव्यक्ति माध्य्म रॉक पेंटिग की यात्रा

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19 Feb 20
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आज भी जारी है प्रागेतिहासिक काल की अभिव्यक्ति माध्य्म रॉक पेंटिग की यात्रा

कोटा | जनसंचार (Mass Communication)के माध्यमों की जब चर्चा करते है तो आधुनिक युग के जनसंचार माध्यमों के समान ही प्रागेतिहासिक काल में उस समय  ‘‘ राॅक पेन्टिंग्स‘‘ का प्रचलन रहा। पहाड़ों और कराइयों की गुफाओं में राॅक पेंटिंग (Rock painting) बनाई जाती थी। मानव की मौलिक अभिव्यक्ति को इनके माध्यम से व्यक्त कर अन्य लोगों तक पहुंचाया जाता था। अभिव्यक्ति और जनसंचार का दुनिया का यह पहला माध्य्म था। गुफाओं की दीवारों और छतों पर किसी भी नुकीली वस्तु से जो देखते थे जैसा जीवन था को वे अपनी समझ और कल्पना से बना देते थे। धीरे-धीरे समय आगे बढ़ता गया कुछ नई चीजें सामने आई इन रेखा चित्रों का स्थान रंगीन चित्रों ने ले लिया।

    भारत में सभ्यता का प्रादुर्भाव विश्व में सबसे पहले हुआ। यहां प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन, जल से भरपूर नदियां विभिन्न प्रकार की ऋतुएं थीं। इससे यहां के लोगों में कल्पनाशक्ति का विकास (Imagination development)हुआ। इसी ने शैलचित्रों, गुफाओं में चित्रों आदि का विकास हुआ। इन कला-कृतियों में प्रकृति की सुन्दरता का चित्रण किया गया। जंगली जीवों की शिकार भी चित्र है। इसमें पशुओं को मानव के साथ रहते हुए दिखाया गया। जब महौल इतना अच्छा होता है, तो गीत-संगीत का भी उदय होता है अतः शैल व गुफा चित्रों में इससे संबंधित चित्र भी बहुत है। चित्र के लिए वह पेड़ की डालियों का उपयोग करते थे। बाद में उन्होंने प्राकृतिक रंगों का भी निर्माण किया होगा। इसके अलावा पत्थरों की सहायता से ही गुफा चित्रों का निर्माण किया होगा। ऐसे दुर्लभ चित्रण आज भी उपलब्ध है। कई जगह तो नीचे नदी बहती है, ऊपर पहाड़ों पर चित्र है। आश्चर्य होता है कि यहां मनुष्य किस प्रकार पहुंचा होगा। किस प्रकार उसने चित्रों का निर्माण (Making pictures)किया होगा। कई गुफाएं ऐसी हैं, जहां आज भी गहन अंधकार रहता है। वहां बिना रोशनी के पहुंचना या कुछ देखना संभव नहीं होता। वहां बेहद आकर्षक चित्र हजारों वर्ष पहले बनाए गए। जो गुफा जितनी प्राचीन होती है, उसके रहस्य को समझना उतना ही कठिन होता है। इससे उस समय के लोगों की जीवन संबंधी विशेषताओं का अनुमान लगाया जा सकता है। विश्व के अन्य हिस्सों में जो गुफाचित्र मिलते हैं, उसमें सर्वाधिक शिकार संबंधी चित्र हैं।
          प्रागेतिहासिक काल (Prehistoric period) के इस दृश्य जनसंचार माध्यम का सबसे पुराना उदारहण 40 हजार वर्ष से पहले उत्तरी स्पेन में ई.एल.केस्टीलो में पाये गये। दूसरा सबसे पुराना उदारहण फ्रांस की चैवेट गुफा के चित्रों के रूप में पाया गया जिन्हें 30 हजार बी.सी.काल का माना जाता हैं। ऑस्ट्रेलिया के में शैलचित्र पाये गये हैं। दक्षिणी अफ्रीका, उत्तरी -पश्चिमी सोमालिया, उत्तरी अफ्रीका , यूरोप के फ्रांस एवं स्पेन, भारत के भीमवेटका एवं हाड़ौती,उत्तरी अमेरिका , दक्षिणी अमेरिका , दक्षिण-पूर्व एशिया के थाईलैण्ड, मलेशिया , इण्डोनेशिया एवं बर्मा आदि अन्य क्षेत्रों में विश्व में गुफाओं में शैलचित्रों की खोज की गई हैं। पूरे विश्व में शैलचित्र 40 हजार से 10 हजार वर्ष पूर्व के मिले हैं।
      इस काल के लोगों के पास अपना स्थापत्य, कारीगरी, पेन्टिंग, शरीर के अंगों को अलंकृत करने, संगीत की कला थी। उन्हें चट्टानों में गुफाऐं बनाने की कला का ज्ञान था जिसमें वे दिवारों पर एवं छतों पर पेंटिंग्स करते थे। अधिकांश पेंटिंग्स शिकार, पशु-पक्षी आदि की हुआ करती थी। आगे चलकर इस विधा में मानवाकृतियां और तत्कालीन समाज की संस्कृति (Humanities and culture of erstwhile society)के अन्य प्रतीक भी चित्रण का विषय बन गये। ज्यादातर चित्र छोटे हुआ करते थे। कुछ जगह चित्रण के लिए आयताकार में कैनवास तैयार किया जाकर इसके भीतर विभिन्न प्रकार की आकृतियों का चित्रण किया गया है। यह चित्रण संभवतया उनकी संस्कृति और धार्मिक परम्पराओं व विश्वासों का प्रतीक है। जन विश्वास प्रचलित था कि पेंटिंग्स बनाकर वे अपने बडो़ं को आदर और सम्मान देते है। गुफाओं में पेंटिंग का चित्रण लाल और पीले रंग का पाया गया है। 

           भारत के सन्देर्भ में मध्य प्रदेश के भीमबेटका क्षेत्र में बड़े पैमाने पर करीब 600 शैलाश्रय पाये गए हैं जिनमें 275 शैलाश्रय चित्रों से सज्जित हैं।  इस बहुमूल्य धरोहर को पुरातत्व विभाग के अधीन संरक्षित कर दिया  गया है। जुलाई 2003 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर में शामिल कर दुनिया का ध्यान इस और आकृष्ठ किया। यहाँ के शैल चित्रों के विषय मुख्यतया सामूहिक नृत्य, रेखांकित मानवाकृति, शिकार, पशु-पक्षी, युद्ध और प्राचीन मानव जीवन के दैनिक क्रियाकलापों नृत्य,संगीत, शिकार, घोड़े, हाथी तथा अन्य जानवरों से सम्बंधित हैं। चित्रों में प्रयोग किये गए खनिज रंगों में मुख्य रूप से गेरुआ,लाल,सफेद,पीला और हरे खनिज रंगों का प्रयोग किया गया है। भीमबेटका से 5 किलोमीटर की दूरी पर पेंगावन में 35 शैलाश्रय पाए गए है ये शैल चित्र अति दुर्लभ माने गए हैं। इसी प्रकार के प्रागैतिहासिक शैलचित्र रायगढ़ जिले के सिंघनपुर के निकट कबरा पहाड़ की गुफाओं में,  होशंगाबाद  के निकट आदमगढ़ में, छतरपुर जिले के बिजावर के निकटस्थ पहाड़ियों पर तथा  रायसेन जिले के  बरेली तहसील के पाटनी गाँव में मृगेंद्रनाथ की गुफा के शैलचित्र एवं  भोपाल - रायसेन मार्ग पर भोपाल के निकट पहाड़ियों पर (चिडिया टोल) में भी मिले हैं। होशंगाबाद के पास बुधनी की एक पत्थर खदान में भी शैल चित्र पाए गए हैं। इन सभी शैलचित्रों को 10 हज़ार से 35 हज़ार वर्ष प्राचीन माना गया है।

        राजस्थान हाड़ौती में शैलचित्रों की बड़ी श्रंखला पाई गई हैं। कोटा के अलनिया में, बूंदी जिले के गरड़दा बांध के डूब क्षेत्र में धाखा, सुई का नाला, नलदेह, छापरिया, नचला, हाथी डूब, नारडा, रामलोई, डूंगरी नाला आदि स्थानों पर रेखाओं के जरिए बनाई मानवीय आकृतियों से लेकर विशालकाय सींग वाले जानवरों और लम्बी गर्दन वाले जिराफ का शैलचित्र भी मौजूद है। चित्तौड़गढ़ के रावतभाटा के शैलाश्रयों में शैलचित्रों की बड़ी श्रंखला पाई गई हैं। रावतभाटा के पास श्रीपुरा गांव में 75 हजार साल से भी ज्यादा पुराना उत्कीर्ण शैली में बना डायनासोर का शैलचित्र खोजा है। यह शैलचित्र सैरोपोडा श्रेणी के ओपिस्टोकोलिकाडिया स्कार्ज़िन्स्की डायनासोर से बहुत ज्यादा मिलता है। इस गांव में इस शैली के तीन दर्जन से ज्यादा शैलचित्र मौजूद है।यह शैल चित्र बामनी नदी के किनारे मौजूद शिलाखंडों पर धारदार चीज से बेहद बारीकी से उत्कीर्ण किए गए हैं। 

   समय,समझ और विकास के साथ ऐसे चित्र बनाये जाने लगे जिन से इस दृश्य माध्य्म का मुकम्मल विकास हुआ।ओरंगाबाद के समीप अंजन्ता की गुफाओं (महाराष्ट्र) के चित्र पूरे विश्व में अपनी पहचान बनाते हैं और इन गुफाओं को वर्ल्ड हेरिटेज सूची में शामिल किया गया है। चित्रों की अनेक शैलियां विकसित हुई। शैलाश्रयों के शैल चित्र महलों और हवेलियों तक पहुँच गये। वर्तमान समय की चित्रकला का विकास शैलचित्रों के विकास की ही कहानी है। आज भी चित्रकला प्रबल दृश्य प्रचार माध्य्म है।      

         इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्रागेतिहासिक काल से लेकर लम्बे समय तक गुफाओं में बने शैलचित्र अभिव्यक्ति, संदेश पहुंचाने, तत्कालीन संस्कृति के प्रतीक के रूप में जनसंचार का एक अतिप्राचीन माध्यम रहे हैं जिनकी यात्रा का कर्म वर्तमान में भी निरंतर जारी है।

 


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